हिंदुस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने ‘सरकारी-तोता’ कहा. विरोधियों ने ‘सरकारी-तलवार या तोप’. डर से भयाक्रांत अंडरवर्ल्ड डॉन ने ‘डायन’ समझा! जनता ने ‘बेवकूफ या मूर्ख’ बनाने वाली एजेंसी करार दिया! मतलब अपराधों की जांच के लिए ‘पाली-पोसी’ जा रही देश की इकलौती जांच एजेंसी ‘सीबीआई’ एक तरफ, उसका मखौल उड़ाने वाली सौ-सौ कहावतें लानतें-मलामतें दूसरी तरफ. दो-चार दिन से तो देश में जिसे देखो, वही पानी पी-पीकर कोस रहा है, बिचारी इकलौती केंद्रीय जांच एजेंसी को! प्रधानमंत्री कार्यालय हो या फिर देश की जनता. चाहे अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहिम से सरीखे खूंखार अपराधी जो कभी, इसी सीबीआई के नाम से ‘घिघियाने/मिमियाने’ लगते थे. सीबीआई मुखिया की ‘काठ-की-कुर्सी’ लपकने की खातिर छिड़े ‘शर्मसारी-संग्राम’ को देखकर सब ‘हंसी-ठिठोली’ कर रहे हैं.
दीवार ढहते ही आंगन-मकान बेपर्दा हो गए
कल तक जिस सीबीआई के नाम से, तमाम ‘सूरमाओं’ की बोलती बंद हो जाती थी. आज उसी सीबीआई के चंद ‘आला-हुक्मरान’ कुर्सी से धकियाए जाने के बाद दर-ब-दर भटक रहे हैं! सीबीआई के ‘माई-बाप’ समझे जाने वाले ‘डायरेक्टर-साहब’ की ताकत वापस ले ली गई है! घमासान की जड़ स्पेशल-डायरेक्टर-साहब भी वहां ले जाकर पटके गए हैं जहां कोई भी आईपीएस खुशी-खुशी जाना नहीं चाहता. जनता और मीडिया ‘सरकारी-मंच’ पर हो रही सीबीआई की छीछालेदर से परिपूर्ण इस ‘रामलीला’ के ‘लंका-कांड’ पर ताली बजा रहे हैं.
दरअसल सीबीआई की नींव में ‘तेजाबी-पानी’ (खारा) तो सन् 1970 के (करीब 50 साल पहले से) दशक से ही धीरे-धीरे ‘रिसने और चूने’ लगा था. बेजान-बे-दम हो चुकी उसकी दीवारें दो-चार दिन पहले क्या ढहीं! बिचारी सीबीआई का ‘घर-आंगन’ एक झटके में ‘बे-पर्दा’ हो गए! पेश ‘पड़ताल’ की इस खास-किश्त में आइए एक नजर डालते हैं. सीबीआई की ‘पैदाइश’ से लेकर ‘पानी-पानी’ होने तक की अनकही-अनछुई सच्चाई पर.
आखिर यह सीबीआई है क्या बला?
5 जनवरी सन् 1898 को रेवाड़ी (अब हरियाणा राज्य का जिला) में जन्मे राय साहब करम चंद जैन को सीबीआई का ‘जनक’ माना जाता है. राय साहब के जन्म के वक्त रेवाड़ी अभिभाजित पंजाब के गुरुग्राम (गुड़गांव) की तहसील हुआ करती थी. लाहौर विवि से उन्होंने ‘लॉ-ऑनर्स’ की डिग्री हासिल की. कुछ वक्त गुरुग्राम (गुड़गांव) में वकालत की. बाद में करम चंद जैन पब्लिक प्रोसीक्यूटर बनकर अभिभाजित पंजाब के गुजरांवाला, लायलपुर, सियालकोट (अब पाकिस्तान) और गुरदासपुर में नौकरी करते रहे.
उसी दौरान उन्हें ‘WAR & SUPPLY DEPARTMENT’ में कानूनी-सलाहकार नियुक्त कर दिया गया. वॉर एंड सप्लाई का मुख्यालय उन दिनों लाहौर में स्थित था. करम चंद जैन को ही सेंट्रल पुलिस फोर्स ‘SPECIAL POLICE ESTABLISHMENT’ (SPE) का पहला कानूनी सलाहकार बनाया गया. यह बात है सन् 1941 की.
लाहौर से दिल्ली पहुंचते ही पटेल ने सब पलट दिया
SPE की प्रमुख जिम्मेदारी थी ‘वॉर एंड सप्लाई’ महकमे में व्याप्त भ्रष्टाचार-रिश्वतखोरी पर लगाम लगाना. उस जमाने में कुर्बान अली खान को SPE का पहला सुपरिंटेंडेंट बनाया गया जो कि बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए. सन् 1946 में होम डिपार्टमेंट के अधीन करके SPE (आज की सीबीआई) को लाहौर से दिल्ली ले आया गया. उसी वक्त ‘DELHI SPECIAL POLICE ACT-1946’ बनाया गया.
दिल्ली पहुंचते ही SEPF का नाम बदलकर कर दिया गया ‘DELHI ESTABLISHMENT POLICE FORCE.’ आजाद भारत में DEPF’s की बागडोर थमाई गई उप-प्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के हाथों में. गृह-मंत्रालय पटेल के ही पास था. लिहाजा वल्लभ भाई पटेल ने कानूनी सलाहकार जैन को हिदायत दी कि वे DEPF का विस्तार राज्यों तक करें.
फरवरी 1951 तक राय साहब करम चंद जैन ही सीबीआई के मुख्य लीगल एडवाइजर (प्रधान कानूनी सलाहकार) रहे. 1 अप्रैल सन् 1963 को DEPF का नाम बदलकर सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इंवेस्टीगेशन (केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो) यानि ‘CBI’ रख दिया गया.
सीबीआई का जंजाली ‘जाल’ बढ़ता गया
आज आलम यह है कि भ्रष्टाचार, अपराध को कम करने के लिए बनी ‘बिचारी’ एक सीबीआई के माथे पर बदनामी के सौ-सौ कलंक मढ़े हुए दिखाई दे रहे हैं! डायरेक्टर और स्पेशल डायरेक्टर ‘काठ की कुर्सी’ की खातिर खुलेआम ‘तांडव-नृत्य’ करने में नहीं शरमा रहे हैं. जिसका दांव बैठता है वही ‘सीबीआई’ को दुधारु गैय्या सा ‘दूह’ ले रहा है! दिल्ली के तत्कालीन पुलिस कमिश्नर आलोक वर्मा का दांव बैठा तो उन्होंने कई बैचमेट आईपीएस-संगी-साथियों को पीछे धकियाते हुए सीबीआई डायरेक्टर की कुर्सी ले ली! बिचारे अस्थाना-जी (विवादित स्पेशल डायरेक्टर) को न मालूम क्या सूझी जो वे, यूं ही ‘हाई-प्रोफाइल’ आईपीएस आलोक वर्मा से जूझ बैठे.
काठ की कुर्सी की ‘कारगुजारी’ का करिश्मा सामने है. डायरेक्टर साहब यानि आलोक वर्मा ‘सर’ अपने घर और उस पर बैठने की ललक में उठा-पटक मचाये ‘अस्थाना-सर’ अपने घर में बैठे हैं.
अपराधियों को काबू करने वाले ‘बे-काबू’!
सन् 1940 के दशक में जिस सीबीआई (SPECIAL POLICE ESTABLISHMENT) की स्थापना भ्रष्टाचार रोकने के लिए की गई थी. आज उसी सीबीआई में कुर्सी को लेकर सिर-फुटव्वल मची है. यह सब तमाशा सीबीआई के भविष्य को किस दिशा में ले जा रहा है? पूछने पर दिल्ली हाईकोर्ट के रिटायर्ड चर्चित जस्टिस एस.एन. ढींगरा (शिव नारायण ढींगरा) बताते हैं, ‘यह सब तो काफी पहले से दिखाई दे रहा था. जिनकी गोद में सीबीआई (सत्ता-सरकार-नेता) पाली-पोसी जा रही थी, उन्हीं ने आंखें मूंद ली हैं. जब घर का मुखिया आंखें मूंद लेगा, तो सीबीआई को भला कौन बचा पाएगा?’ इस लेखक से ही सवाल दागते हैं हमेशा बेबाक और दो-टूक बात करने वाले एस.एन. ढींगरा.
सीबीआई को आंसुओं से रुला दिया
पूर्व जस्टिस शिव नारायण ढींगरा के मुताबिक,‘सन् 1995 की बात है. मुझे दिल्ली में टाडा-कोर्ट का चार्ज मिला. अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहिम के गुंडे और मुंबई जेजे हॉस्पिटल गैंगवार के आरोपी 4-5 शार्प-शूटर एक पूर्व केंद्रीय मंत्री की शरण में आकर दिल्ली में छिप गए. ‘मंत्री-जी’ ने खादी की हनक में हत्यारों को बदरपुर (दिल्ली) स्थित NTPC (नेशनल थर्मल पॉवर कार्पोरेशन) के गेस्ट हाउस में ठहरा दिया. सीबीआई की जांच में पता चला, ‘शार्प-शूटरों’ का शरणदाता तो एक केंद्रीय मंत्री था! ‘311-सीआरपीसी’ में मैने मंत्री जी के जमानती वारंट जारी कर दिए. सत्ता की हनक में मंत्री ने मेरे द्वारा जारी समन फाड़ कर फेंक दिया. मैंने आरोपी मंत्री की गिरफ्तारी के वारंट जारी कर दिए.’
मुझे सीबीआई से काम लेना आता था!
मंत्री की गिरफ्तारी पर सीबीआई बहाने बनाने लगी. मुझे सीबीआई से काम लेना आता था. एक दिन मैंने भरी अदालत में सीबीआई टीम से कह दिया कि अगली पेशी पर अगर मंत्री गिरफ्तार होकर मेरे सामने कटघरे में पेश न कर पाओ तो, अपने (सीबीआई के) एस.एस.पी. को गिरफ्तार करके साथ लेते आना. अगली तारीख पर सीबीआई, मंत्री-जी को कटघरे में लिए खड़ी थी.’
आगे फिर दोहराते हैं बेबाक ढींगरा, ‘कमजोर सीबीआई नहीं है. उससे काम लेने वाले कमजोर हैं. सीबीआई संस्था या एजेंसी है, सरकार नहीं. सरकार जैसे चाहती है उससे काम लेती है. यह अलग बात है कि बदनाम सीबीआई होती है.’
आज नहीं तो कल, ऐसा ‘सत्यानाश’ तय था!
शांतनु सेन मूलत: सीबीआई के ही अफसर रहे हैं. उन्होंने बहैसियत डायरेक्ट डिप्टी एसपी सन् 1963 में सीबीआई-सर्विस ज्वाइन की थी. कुल जमा उन्होंने 1963 से 1996 तक यानि 33 साल सीबीआई की नौकरी की. इस बीच शांतनु सेन 1992 से 1996 के बीच करीब साढ़े चार साल तक सीबीआई में ज्वाइंट-डायरेक्टर भी रहे. सात साल तक (2013 में रिटायर) दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर तेजिंदर खन्ना के ओएसडी रहे.
बकौल बेबाक शांतनु सेन, ‘बात है सन् 1973 के आसपास की. उन्हीं दिनों केंद्र सरकार ने सीबीआई में बाहरी (सीबीआई सर्विस से बाहर का स्टाफ आईपीएस और अधीनस्थ) स्टाफ की, बजरिये ‘डेपुटेशन’ कथित घुसपैठ शुरू करा दी. मैं तभी समझ गया कि आज नहीं तो आने वाले कल में सीबीआई का बेड़ा ‘गर्क’ होना लगभग तय है. मेरी उस सोच को अमली जामा पहन कर सामने आने में 45 साल यानि चार दशक लग गए. आज जमाना सामने देख रहा है. सीबीआई के भीतर कुर्सी का कलंक अपने माथे लगाने पर आमादा. आईपीएस ही आईपीएस के पीछे (आलोक वर्मा-अस्थाना) हाथ धोकर पड़ा है!’
बाहरी ‘बाहर’ हों तो, ‘अंदर’ ठीक हो जाएगा
बकौल शांतनु सेन, ‘जैसे भी हो जितनी जल्दी हो. सीबीआई के मूल कॉडर अफसर को ही डायरेक्टर बना दीजिए. सौ समस्याओं का एक समाधान मिल जायेगा. दूसरे सीबीआई का सत्यानाश उनसे भी हो रहा है जो पुलिसिंग तो जानते हैं, मगर उन्हें बेहतर पड़ताल यानि इन्वेस्टीगेशन की तमीज नहीं है. सीबीआई का तो ढांचा ही जांच-पड़ताल की बुनियाद पर टिका है. बाहरी पुलिस अफसर लाकर सीबीआई में लाद दिए गए हैं. जिन्हें जांच के नाम पर धेला भर भी शायद ही कुछ आता-जाता होगा! सो खाली-ठाली बैठे-बिठाये क्या करें वे?’
शांतनु सेन के कथन या उनकी बात को दिल्ली हाईकोर्ट के चर्चित पूर्व जस्टिस एस.एन. ढींगरा भी पुख्ता करते हैं. बकौल जस्टिस शिव नारायण ढींगरा,‘आज पुलिस से बदतर हालत हो चुकी है सीबीआई की. सीबीआई की अपनी तो बस मुख्यालय बिल्डिंग ही है. बाकी सब दारोमदार तो डेपुटेशन पर बाहर से लाकर लादे-बैठाए गए आईपीएस अफसरों तथा उनके अनुभवहीन मातहतों के कंधों पर ही टिका है.’
सीबीआई यानि कट रही डाल पर बैठा ‘लकड़हारा’!
दिल्ली के रिटायर्ड पुलिस कमिश्नर और सीबीआई के तत्कालीन संयुक्त-निदेशक नीरज कुमार से ‘फ़र्स्टपोस्ट हिंदी’ के लिए इस लेखक ने बात की. ‘बेचारगी’ के आलम में खड़ी मखौल उड़वा रही सीबीआई की हालत से नीरज खासे खफा हैं. बकौल पूर्व आईपीएस नीरज कुमार, ‘मैं 9 साल सीबीआई में ज्वाइंट-डायरेक्टर रहा. इतने बुरे आलम की कल्पना नहीं की थी कभी. कुर्सी के चक्कर में सीबीआई की छवि, विश्वसनीयता, प्रतिष्ठा. तीनों को नाली के पानी में बहा दिया गया है. क्यों भाई? सीबीआई किसी की बपौती है क्या? क्या सीबीआई में 'कुर्सी और पॉवर' से बढ़कर उसकी इज्जत-आबरू बचाकर रखने के कोई मायने ही नहीं हैं?’ एक साथ सौ-सौ सवाल दागने वाले नीरज के ही शब्दों में, ‘आज सीबीआई की हालत उस बढ़ई या लकड़हारे की मानिंद हो चुकी है जो, काटी जा रही डाल के ही ऊपर बैठा है.’
बर्बाद सिर्फ सीबीआई हो रही है!
नीरज कुमार के मुताबिक,‘दो-चार दिन से शुरू हुआ तमाशा ‘अहंकार’ से अधिक कुछ नहीं है. इसमें आलोक वर्मा , अस्थाना का कोई नुकसान नहीं होगा. सबसे ज्यादा मिट्टी पलीद हो रही है सीबीआई की. जो पहले से ही जमाने भर की नजरों में (सरकार से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक) ‘खटक’ रही है. सीबीआई में जो कुछ ड्रामा हो रहा है वो ‘रामलीला’ नहीं बल्कि ‘लंका-काण्ड’ है. ’
डॉन भी ‘मांद’ में सीबीआई पर मुस्कराता होगा!
‘बीते जमाने में जब सीबीआई ने याकूब मेमन को दबोचा तो, खुद को अंडरवर्ल्ड की दुनिया का शहंशाह समझने वाले दाउद इब्राहिम की बोलती बंद हो गई थी. दाऊद कहता था कि- 'सीबीआई ने तो मुझे माउस (चूहा) बनाकर रख दिया है.' जो दाऊद बीते कल में कहता घूम रहा था कि,- 'सीबीआई ने उसे कहीं मुंह दिखाने के काबिल नहीं छोड़ा है. कहीं खुलकर आने-जाने के लायक नहीं रहा हूं मैं सिर्फ सीबीआई की बदौलत.' आज सोचिये कभी सीबीआई के नाम से मेमने की मानिंद मिमियाने/ घिघियाने वाला दाउद क्या मांद में बैठा, सीबीआई की हो रही दुर्गति पर अट्टाहास नहीं कर रहा होगा?’ बताते-बताते नीरज कुमार की मुट्ठियां गुस्से से भिंच जाती हैं.
भस्मासुर बन चुकी है सीबीआई!
नीरज कुमार की नजर में,-‘मौजूदा हालातों से तो लगता है कि सीबीआई भस्मासुर बन चुकी है. चक्कर वही एक अदद ‘काठ की कुर्सी’ (डायरेक्टरी) का मालिक बनने की मैली-चाहत! उनके मुताबिक अब सीबीआई जांच-एजेंसी कम, प्रलयकारी राक्षस का रुप ज्यादा लेती जा रही है. सरकार सीबीआई के दोनों ‘आला-साहब’ यानि बेकाबू होते डायरेक्टर और स्पेशल डायरेक्टर को वक्त रहते तलब करके ‘कंट्रोल’ कर लेती. तो शायद हालात इतने विस्फोटक नहीं हो पाते कि दोनों को जबरिया सीबीआई मुख्यालय से हटाकर उन्हें उनके घरों में भिजवाने की नौबत आती.’
एक शांत रहा दूसरा ‘सुप्रीम-कोर्ट’ गया!
उल्लेखनीय है कि, नीरज कुमार ने ही 1993 में हुई बम धमाकों की पड़ताल के लिए सीबीआई में स्पेशल टॉस्क फोर्स (STF) यानि विशेष कार्य-बल की स्थापना की थी. यह कुवत भी नीरज कुमार से बिरले आईपीएस की ही थी कि जिसके, आतंक ने मुंबई दहलाने वाले दाऊद इब्राहिम को भी जिंदगी की पनाह मंगवा दी. यह अलग बात है कि अड़ियल नीरज ने दाऊद की ‘घुड़की’ को, बरसाती मेंढक की ‘चौमासी-टर्र-टर्र’ से ज्यादा कभी तवज्जहो नहीं दी.
‘मजबूत’ सीबीआई में ‘कमजोर’ अफसर लाये जाते हैं
दिल्ली पुलिस के रिटायर्ड डिप्टी पुलिस कमिश्नर सुखदेव सिंह 1970 के दशक में खुद भी सीबीआई का शिकार बन चुके हैं. कई साल पहले (1990 के दशक में) दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल के पहले डीसीपी से रिटायर होने वाले सुखदेव सिंह मीडिया से दूर ही रहते हैं. मैंने उन्हें तलाश कर किसी तरह सच को सामने लाने की खातिर बोलने को राजी किया. बकौल सुखदेव सिंह, ‘जो सरकार बनती है वही, सीबीआई को अपने हिसाब से चलाती है. सच पूछिये तो सीबीआई कमजोर कतई नहीं है. सीबीआई बहुत पॉवरफुल है. सीबीआई में अफसर अक्सर कमजोर लाए-लगाए जाते हैं. ताकि वक्त जरूरत पर उनसे मनमर्जी काम लिया जा सके.
मैं सीबीआई का ही शिकार हूं!
इसका सबसे बड़ा उदाहरण और भुक्तभोगी मैं खुद हूं. सन् 1977 में जनता पार्टी सरकार में केंद्रीय गृह-मंत्री को खुश करने की खातिर कत्ल के आरोप में मुझे गिरफ्तार करके तिहाड़ जेल की काल कोठरी में ले जाकर ठूंस दिया गया. उन दिनों मैं दिल्ली पुलिस में गांधीनगर सब-डिवीजन का एसडीपीओ (एसीपी/ डिप्टी एसपी) था. उसी दौरान सुंदर डाकू की संदिग्ध मौत हो गई. जिसका इल्जाम बजरिये सीबीआई, तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री ने अपने लोकसभा क्षेत्र के वोटरों को खुश करने के लिए मेरे सिर लदवा दिया. बाद में सरकार बदली तो, अदालत ने मुझे हत्या के आरोप से मुक्त कर दिया. बदनाम मैं नहीं उस वक्त भी जनता सरकार और सीबीआई हुई थी.’
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(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र खोजी पत्रकार हैं.)
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