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पहले एनकाउंटर में ही कोतवाल, सिपाही की हत्या का बदला 2 आतंकवादियों को ढेर कर ले लिया

'आगे-पीछे का कुछ सोचे बिना ठान लिया था कि, जब मरना ही है तो इज्जत से मरेंगे. निरीह-निहत्थे लोगों को बेबसी-लाचारी के आलम में खाड़कूओं (आतंकवादियों) के हाथों यूं ही फोकट में मरने देने के लिए नहीं छोडूंगा'

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

‘पुलिस-मुठभेड़ में शामिल टीम के सदस्यों के लिए मौत अक्सर (एनकाउंटर के दौरान) आस-पास मंडराती नजर आती है. असली-एनकाउंटर में जो पुलिस वाला बच गया वो बहादुर-भाग्यवान. जो मारा गया वह ‘शहीद.’ मरणोपरांत भारी-भरकम इनाम-इकराम का हकदार.’ इस बार पेश ‘संडे क्राइम स्पेशल’ में यह मुंह-जुबानी है भारतीय पुलिस सेवा के (आईपीएस) आला-अफसर आर. के. चतुर्वेदी की.

28 फरवरी, 2018 को यूपी पुलिस से महानिरीक्षक (इंटेलीजेंस) के पद से रिटायर हो चुके श्री राम कृष्ण चतुर्वेदी मौजूदा वक्त में उत्तर प्रदेश राज्य पुलिस भर्ती बोर्ड के सदस्य हैं.


खुद के कारनामों की किताब जो कभी पढ़ी ही नहीं

बीते कल की उत्तर प्रदेश पुलिस के इस हरफनमौला अफसर (पूर्व आईपीएस) ने आज जब यादों की फाइलों से धूल हटानी शुरू की, तो उन फाइलों के अंदर बंद मिले उनके अपने ही तमाम रुह कंपा देने वाले सच्चे किस्से. यादों के फटे-पुराने पीले पड़ चुके वह सैकड़ों पन्ने, पुलिस की नौकरी के दौरान जिन पन्नों पर, सब कुछ वक्त की कलम लिखती रही. यह अलग बात है कि, बीते कल में लिखे गए अपनी ही बहादुरी के उन तमाम हैरतंगेज कहानी-किस्सों को पढ़ने का इस आला-पुलिस-अफसर को पुलिसिया नौकरी की भागम-भाग वाली जिंदगी में कभी ‘वक्त’ ही नहीं मिल सका. यादों के उन्हीं पन्नों को गूंथकर बनी ‘किताब’ के भीतर झांकने की कोशिश कर रहे हैं, 38 साल की पुलिस की नौकरी के बाद खुद आर.के. चतुर्वेदी आज हमारे-आपके सामने हैं.

60 साल पहले यानी वर्ष 1957 का इलाहाबाद

इलाहाबाद के मशहूर वकील श्री राजदेव चतुर्वेदी की पत्नी उर्मिला देवी ने 1 दिसंबर, 1957 को कमला नेहरु अस्पताल में एक बेटे को जन्म दिया. नाम रखा गया राम कृष्ण. इकलौती संतान राम कृष्ण अभी 4 साल के ही थे कि, अप्रैल 1962 में पिता राजदेव का साया सिर से उठ गया. बात हिम्मत हार जाने की थी. एक तो पति की मौत का गम ऊपर से 4 साल के बेटे का अंधकार में दिखाई दे रहा भविष्य. इसके बाद भी 4 साल के बेटे के उज्जवल भविष्य की चिंता, जिगर की जीवट उर्मिला देवी के उस वक्त के दुख (पति की मृत्यु) पर भारी साबित हुई.

वर्ष 1999 में जब आर के चतुर्वेदी जब एसपी सिटी नोएडा थे, तब मां उर्मिला देवी के साथ उनकी तस्वीर

वर्ष 1963 में 4 साल के मासूम बेटे राम कृष्ण की उंगली पकड़े-पकड़े उर्मिला देवी ने इलाहाबाद छोड़ दिया और पहुंच गईं मिर्जापुर शहर. खेलने-कूदने, मौज-मस्ती की उम्र किन-किन झंझावातों-दुश्वारियों में गुजरी? यह बहुत लंबी और रुला देने वाली कहानी है... कई दशक बाद इस संवाददाता द्वारा काफी कुरेदे जाने पर बताते हैं आर.के. चतुर्वेदी. मां की तपस्या और खुद की हाड़तोड़ मेहनत के बलबूते राम कृष्ण चतुर्वेदी ने मिर्जापुर से स्नातक कर लिया. वर्ष 1979 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए किया. इसके अगले साल यानी 1980 में उत्तर-प्रदेश राज्य पुलिस सेवा में चुने गए, लेकिन पुलिस की नौकरी वर्ष 1986 में ज्वाइन की.

38 साल लंबी पुलिसिया जिंदगी का ‘सारांश’

स्टेट पुलिस सर्विस ज्वाइन करने से पहले 3 साल नैनी जेल इलाहाबाद में बहैसियत जेल-अधीक्षक नौकरी की. बतौर डिप्टी एसपी पहली पोस्टिंग बलिया में हुई. यह वर्ष 1987 की बात है. लखीमपुर (वर्ष 1989-1993) से बतौर सर्किल ऑफिसर (सीओ) वर्ष 1993-96 तक नोएडा (दिल्ली से सटा यूपी का हाईटेक शहर) में तैनात रहे. प्रमोशन होने पर वर्ष 1996 में नोएडा से हटाकर लखनऊ में पुलिस अधीक्षक इंटेलीजेंस बना दिए गए. कुछ समय एडिश्नल एसपी मुजफ्फरनगर रहने के बाद नोएडा-गाजियाबाद के बारी-बारी से एसपी सिटी बने. वर्ष 2001 में डेपुटेशन पर इंडियन ऑयल कार्पोरेशन (आईओसी) में चीफ विजिलेंस ऑफिसर (नार्दन रेंज) भी रहे. इंडियन ऑयल में रहते हुए ही 2004 में भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) का 1998 (राज्य पुलिस सर्विसेज से) बैच यूपी कॉडर मिल गया.

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आईपीएस मिलने के बाद पहली पोस्टिंग बतौर चंदौली के एसपी मिली. उस वक्त (2005-2006) यहां नक्सलवाद चरम पर था. इसके बाद सहारनपुर, मथुरा, नोएडा (गौतमबुद्ध नगर) पीलीभीत, सुलतानपुर, एटा, इटावा, रेलवे, आगरा, फैजाबाद, फतेहपुर, लखनऊ आदि में एसएसपी/एसपी रहे. 2012 में प्रमोट होकर डीआईजी (पुलिस उप-महानिरीक्षक) कानपुर, लखनऊ, गोरखपुर रेंज रहे. 2016 में प्रमोट होने के बाद इलाहाबाद रेंज के पुलिस महानिरीक्षक बने. फिलहाल मई, 2018 से श्री चतुर्वेदी उत्तर-प्रदेश राज्य पुलिस भर्ती बोर्ड के सदस्य के रूप में कार्यरत हैं.

जब भयभीत पुलिस ने खाकी वर्दी पहनना छोड़ दी!

बात है वर्ष 1991-1992 की. उस वक्त लखीमपुर खीरी के पुलिस अधीक्षक थे वी.के. गुप्ता (विजय कुमार गुप्ता, जो बाद में डायरेक्टर जनरल ट्रेनिंग से रिटायर हुए). मुझे सब-डिवीजन पलिया का सीओ (सर्किल ऑफिसर) बना दिया गया. उन दिनों तराई में सिक्ख आतंकवाद चरम पर था. बरेली, शाहजहांपुर, लखीमपुर खीरी, पीलीभीत, रामपुर, बिजनौर, देहरादून में खाड़कूओं ने कोहराम मचा रखा था. 'भय का आलम यह था कि, खाड़कूओं के डर से इलाके के अधिकांश पुलिसकर्मियों ने या तो खाकी वर्दी पहननी छोड़ दी. या फिर वर्दी के ऊपर कंबल-चादर ओढ़कर थाने-चौकी से बाहर निकलना शुरू कर दिया था. पुलिस वाले 8-10 के ग्रुप में चलते थे. शाम 4-5 बजे ही नाके (बैरियर) बंद कर दिए जाते थे. थाने-चौकी के गेट पर ताले जड़ दिए जाते. दिन ढलने से पहले ही पुलिस वाले खुद को थाने-चौकी के अंदर बंद कर लेते थे. इस आशंका से कि, न मालूम कब घात लगाकर खाड़कू हमला बोल दें? खाड़कूओं के डर से अधिकांश थाने-चौकी की लाइट रात के वक्त बंद कर दी जातीं थीं.

(प्रतीकात्मक तस्वीर)

वो 26 हत्यायें जिन्होंने खून खौला दिया

जहां तक मुझे याद आ रहा है वह घटना वर्ष 1991 की थाना मैलानी की बरगद चौकी इलाके में घटी थी. देश में उस आतंकी घटना ने कोहराम मचा दिया था. जिसमें सर-ए-शाम स्वचालित (ऑटोमैटिक) हथियारों से लैस खाड़कूओं (सिख आतंकवादी) ने फॉरेस्ट चौकी (वन विभाग बैरियर-चौकी) और रेलवे क्रासिंग पर कब्जा कर लिया. जितनी बसें और अन्य वाहन उधर से गुजरे, खाड़कूओं ने उनमें से एक धर्म-विशेष के लोगों को चुन-चुन कर सड़क पर उतारा. लाइन में खड़ा किया और गोलियों से भून डाला. रुला देने वाले उस सामूहिक हत्याकांड से ठीक पहले, खाड़कू शाम के ही वक्त लखीमपुर के गोला, शाहजहांपुर के खुटार, पीलीभीत और ऊधम सिंह नगर में अंधाधुंध फायरिंग कर के करीब 10 और लोगों को मौत के घाट उतार चुके थे.

जब सोच लिया कि मरना ही है तो इज्जत से मरेंगे

चंद घंटों में 26 बेबस-बेकसूर लोगों की हत्या कर दी गई. यह बात है नवबंर 1991-92 की. उन 26 बेबस-बेकसूरों की मौत ने पुलिस हो या जनमानस सबको हिला कर रख दिया था. आर.के. चतुर्वेदी बताते हैं, पुलिस जीवन के शुरुआती दिनों की सच्ची मगर दिल दहला देने वाली कहानी. ‘उन्हीं नरसंहारों के बाद सोच लिया था कि, पुलिस की वर्दी चुटकले सुनकर घिसाने-फाड़ने के लिए नहीं पहनी है. हम खाकी वर्दी पहने बैठे रहें. हमारे हाथों में हथियार होने के बाद भी नौनिहाल अनाथ होते रहें. बेबस माताएं-बहनें विधवा होती रहीं. ऐसे पुलिसिया जीवन को धिक्कार है. उन्हीं 2-3 दिन में आगे-पीछे का कुछ सोचे बिना ठान लिया था कि, जब मरना ही है तो इज्जत से मरेंगे. निरीह-निहत्थे लोगों को बेबसी-लाचारी के आलम में खाड़कूओं (आतंकवादियों) के हाथों यूं ही फोकट में मरने देने के लिए नहीं छोडूंगा,’ बीते कल की पुलिस जिंदगी की कड़वी सच्चाई बेबाकी से सुनाते हैं आर.के. चतुर्वेदी.

डॉक्टर की बेटी को ‘लड़का’ समझ ले गए खाड़कू!

मैं अभी खाड़कूओं को नेस्तनाबूद करने की सोच ही रहा था. अचानक एक शाम पलिया के मशहूर हार्ट स्पेशलिस्ट डॉक्टर की बेटी का अपहरण हो गया. अपहरण तो डॉक्टर के बेटे का होना था, मगर लड़का समझकर खाड़कू डॉक्टर की बेटी को उठा ले गए. 5-6 दिन जिले में कोहराम मचा रहा. छठे दिन लड़की सकुशल छूट सकी. इसी बीच मुझे सीओ सिटी लखीमपुर से ट्रांसफर कर के पलिया सब-डिवीजन का पुलिस क्षेत्राधिकारी बना दिया गया.

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पलिया की वो पोस्टिंग (ट्रांसफर) मेरे पुलिस करियर का टर्निंग प्वाइंट साबित हुई. आर. के. चतुर्वेदी अतीत के पन्नों के ऊपर जमी 35 साल पुरानी धूल साफ करते-करते बीते कल में खो जाते है. उस जमाने में पलिया इलाके की पोस्टिंग मतलब पुलिस वाले को घर से फूल-माला पहन कर ज्वाइनिंग को निकलना होता था. न मालूम वापसी में घर किस हाल में लौटें?

पब्लिक और जंगल में मिला कामयाबी का ‘नुस्खा’

पलिया में उन दिनों शाम होने से पहले ही सड़कों पर सन्नाटा छा जाता था. वजह वही, बेरहम खाड़कूओं का आतंक. पलिया पुहंचकर समझ गया कि, अब इलाका भी अपना और खाड़कू भी मेरे ही इलाके में कोहराम मचा रहे हैं. सोची-समझी रणनीति के तहत मैं पब्लिक में पैठ बनाने लगा. अक्सर सादा कपड़ों में कस्बे में निकल कर पब्लिक के बीच जाकर बैठने लगा. इससे जो मैं चाहता था वो, हासिल होना शुरू हो चुका था. पब्लिक अपना विश्वासपात्र समझकर गुप्त सूचनाएं सीधे मुझ तक पहुंचाने लगी. इसके साथ ही मैंने अपने विश्वासपात्र सिपाही सुरेश वर्मा (अब यूपी पुलिस में हवलदार) के साथ चुपचाप आसपास मौजूद घने जंगलों के आसपास भी आना-जाना शुरू कर दिया. कुछ ही दिन में पता लग गया कि, मेरे इलाके में खालिस्तान कमांडो फोर्स (केसीएफ) का पंजाब में बैठा सुखदेव सिंह उर्फ सुख्खा, भिंडरवाला टाइगर फोर्स ऑफ खालिस्तान और बब्बर खालसा के खाड़कू मिलकर बेबस-निहत्थे लोगों का खून बहा रहे हैं.

150 पुलिस वालों के सामने कोतवाल की हत्या ने हिला दिया

जैसे ही सुख्खा (सुक्खा) गैंग का नाम मेरे सामने आया तो, मेरा ध्यान पीलीभीत के जंगलों में 3-4 दिन पहले ही धोखे से की गई पूरनपुर कोतवाल इंस्पेक्टर जितेंद्र सिंह यादव और सिपाही की नृशंस हत्या की ओर गया. उन दोनों को खाड़कूओं ने पुलिस कॉम्बिंग से लौटते वक्त बांस के जंगलों में धोखे से मार डाला था. दोनों पुलिस वालों की हत्या के बाद खाड़कू उनकी एक-47 राइफल और एक सेल्फ लोडेड राइफल (एसएलआर) भी लूटकर ले गए थे. तीन कंपनी अतिरिक्त बल और 3-4 थानों की पुलिस फोर्स की मौजूदगी में हुआ वो दोहरा हत्याकांड, यूपी पुलिस के गाल पर जून की तपती लू के थपेड़ों सा हर लम्हा पड़ता महसूस हो रहा था.

पीलीभीत जिले का पूरनपुर थाना, जिसके कोतवाल इंस्पेक्टर जितेंद्र सिंह यादव की हत्या का बदला पुलिस नौकरी के पहले एनकाउंटर में ही 3 दिन के अंदर 2 आतंकवादी मारकर लिया

बियाबान जंगल में जब सिपाही को पेड़ पर चढ़ा दिया

एक दिन मुखबिर ने 16-17 आतंकवादियों के जंगल में छिपे होने की खबर दी. मैं 7-8 पुलिसकर्मियों को लेकर जंगल की ओर कूच कर गया. रास्ता दिखाने के लिए हमारे आगे-आगे चल रहा शख्स घने जंगल में जाकर रास्ता भटक गया. उसी वक्त मैंने अपने हमराह (हर वक्त साथ रहने वाला सिपाही) सुरेश वर्मा को एक पेड़ पर चढ़ा दिया. इस उम्मीद में कि शायद उसे कहीं कुछ हलचल सी दिखाई पड़ जाए. मेरी आशंका सही साबित हुई. सिपाही सुरेश वर्मा (अब हवलदार) ने इशारा किया, कि एक जगह पर हाथी घास (बेतहाशा लंबी-घनी घास के झुंड) खूब हिलती-डुलती हुई सी नजर आ रही है.

एक फायर के बदले उधर से गोलियों की बौछार आई

इतना सुनना था कि, हमने संदेह दूर करने की नीयत से उस तरफ एक गोली चला दी. जबाव में उधर से अंधाधुंध गोलियों की बौछार हमें मिली. हम समझ गए कि, वो खाड़कू हैं और हमसे कहीं ज्यादा असलहा-गोला-बारुद से लैस हैं. ‘काफी देर तक दोनों ओर से जी-भर के गोला-बारुद इस्तेमाल हुआ. जब दूसरी ओर से फायरिंग शांत हो गयी, तो हमने पेड़ों पर चढ़कर देखा. वो लोग (आतंकवादी) घनी घास की आड़ लेकर भाग रहे थे. अपने कुछ साथियों को वो (खाड़कू) खून से लथपथ हालत में घसीट कर और कंधों पर जैसे-तैसे ले जा रहे थे. हमने दोबारा फायरिंग शुरू की, मगर तब तक वो हमारी रेंज से बाहर हो पड़ोसी देश की सीमा में पहुंच चुके थे. मेरी जिंदगी का अगर वो पहला रियल एनकाउंटर था, तो तराई के कई जिलों की जनता के लिए उस एनकाउंटर के बाद यूपी पुलिस पर इतना विश्वास जरूर हो गया कि, पुलिस अंधेरे में तीर न चलाकर खाड़कूओं को मरने और भागने पर मजबूर करने में भी सक्षम है.’ बेबाकी से सफलता-असफलता की तमाम सच्ची और दिल सहमा देने वाली कहानियां बताते-सुनाते नहीं थकते हैं आर.के. चतुर्वेदी.

जिन्हें हम घायल खाड़कू समझ रहे थे वो लाशें थीं

बकौल श्री आर. के. चतुर्वेदी, ‘मौके पर पहुंची पुलिस टीम को 3 एके-47 राइफल और हजारों की संख्या में कारतूस और उनके खोखे, एके-47 राइफलों में इस्तेमाल की जा चुकी सैकड़ों खाली मैगजीन और हथगोले मिले. बाद में पता यह भी लगा कि, हम जिन्हें यूपी पुलिस की गोलियों से जख्मी खाड़कू समझ रहे थे, वास्तव में वो जख्मी खाड़कू नहीं, बल्कि दो खाड़कूओं की लाशें थीं. जिन्हें उनके साथी आतंकवादियों (खाड़कूओं) ने पड़ोसी देश की सीमा में ले जाकर फूंक डाला था.’ जोरदार ठहाका मारते हुए बताते हैं आर.के. चतुर्वेदी, ‘और इस तरह मैं अपनी पुलिस सर्विस के पहले एनकाउंटर में ही दो खाड़कूओं को ढेर करने के बाद भी शिकार की लाश हासिल किए बिना ही रह गया. मरने वाले दोनो आतंकवादी खालिस्तान कमांडो फोर्स के थे.’

दो खाड़कू मार कर हमने हिसाब चुकता कर लिया

‘शहीद हुए पूरनपुर कोतवाल इंस्पेक्टर जितेंद्र सिंह यादव और सिपाही मेरे जिले में भले ही तैनात न रहे हों, मगर थे तो हमारी ही फोर्स के जवान. जिन आतंकवादियो ने धोखे से उन दोनों को शहीद किया था, हमने उनमें से 2 आतंकवादियो को 4 दिन बाद ही ढेर कर दिया.’ पहले खतरनाक एनकाउंटर का सच बयान करते हुए बताते हैं आर.के. चतुर्वेदी.

आसान नहीं पुलिस में शाबासी के लिए पीठ ठुकवाना

पुलिस महकमे में शाबासी मिलना आसान नहीं होता है. टीम वर्क में कभी कोई श्रेय ले उड़ता है तो कभी और कोई. जो वाकई पीठ ठुकवाने के हकदार होते हैं, उनमें से अधिकांश 'शाबासी' के इंतजार में ही रिटायर हो जाते हैं. ऐसे में भूली-बिछड़ी यादों के बीच आर.के. चतुर्वेदी के जेहन में नाम आता है उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक रह चुके पूर्व आईपीएस सुलखान सिंह (अब रिटायर्ड) का.

उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी के हाथों सम्मानित होते हुए आईपीएस अधिकारी आर.के. चतुर्वेदी

‘28 फरवरी, 2018 को रिटायरमेंट के बाद मेरी फेयरवेल पार्टी में सुलखान सिंह साहब भी मौजूद थे. उन्होंने कहा 'आज भी मुझे तुम्हारी टीम द्वारा पलिया के जंगलों में किया गया वो एनकाउंटर याद है. जिसमें तुमने मेरे जिले में (सुलखान सिंह उस वक्त पीलीभीत जिले के पुलिस अधीक्षक थे) तैनात इंस्पेक्टर (जितेंद्र सिंह यादव पूरनपुर कोतवाल) और सिपाही की हत्या का बदला दो खाड़कूओं को गोलियों से भूनकर 3-4 दिन के भीतर ही ले लिया था.' बताते हुए आर.के. चतुर्वेदी का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है, जो कि लाजिमी भी है.

....और यहां भी हमें छोड़ बाकी सब खड़े रह गए

यूपी पुलिस का बीते कई दशक का इतिहास गवाह है कि, महकमे में ‘सेवा-विस्तार’ नाम का तोहफा राज्य पुलिस महानिदेशक स्तर के दो आला-अफसरों को ही अब तक दिया गया था. पहला पूर्व महानिदेशक अरविंद जैन और दूसरा सुलखान सिंह को. केंद्र सरकार में प्रतिनियुक्ति (महानिदेशक केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल) पर तैनात ओम प्रकाश सिंह को पुलिस महानिदेशक का कार्यभार सौंप कर सुलखान सिंह कुछ महीने पहले ही रिटायर हो चुके हैं.

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आर.के. चतुर्वेदी यहां भी 4 कदम आगे निकले और तमाम आईपीएस की भीड़ से अलग ही इतिहास लिख गए. राज्य सरकार ने राम कृष्ण चतुर्वेदी को उनके बेदाग अतीत के मद्देनजर, आईजी इंटेलीजेंस के पद पर ही 3 महीने की ‘पुर्न-नियुक्ति’ गिफ्ट कर दी. यह भी यूपी पुलिस में अपने आप में पहला और यादगार रिकॉर्ड बना. उत्तर प्रदेश पुलिस महकमे में अब से पहले कभी भी ऐसा नहीं हुआ था. इस सब के बाबत ‘पुलिस महकमे में उनकी काफी मजबूत और ऊंची पहुंच है?’ पूछने पर बताते हैं कि, ‘नहीं ऐसा कुछ नहीं है. पुलिस सीधी पब्लिक से जुड़ी होती है. पुलिस वाला अच्छा-बुरा जो कुछ भी करता है. वो सबको दिखाई देता है. महकमे में रहते हुए पब्लिक के लिए अच्छा किया तो अच्छा ही हासिल होगा. सो हुआ.’