‘दिल्ली पुलिस की करीब 38 साल की नौकरी में एक दफा मुझसे एक ‘सीनियर आईपीएस अफसर’ ने माफी मांगी थी. पुलिस की पूरी नौकरी में मैंने भी अपनी ‘जूनियर महिला दारोगा’ से एक बार माफी मांगी. मेरा रुतबा दोनों मर्तबा बढ़ा ही. एक बार खुद का सिर सम्मान से ऊंचा किसी के सामने (आईपीएस अफसर) उठा हुआ देखकर. दूसरी बार मेरे 'सॉरी' बोलने के फलस्वरूप, किसी का सिर गर्व से अपने सामने ऊपर उठा हुआ देखकर. इसी तरह के तमाम खट्टे-मीठे अनुभवों के बीच करीब 4 दशक की पुलिस नौकरी कर के मैं कब रिटायरमेंट की देहरी पर जा खड़ा हुआ? पता ही नहीं चला.’
हैरतंगेज-अविश्वसनीय दास्तान-ए-आला दारोगा
यह किसी ग्रंथ-वेद-पुराण में उल्लेखित (जिक्र) या किसी संत-महात्मा के श्रीमुख से निकली 'ज्ञान-वाणी' कतई नहीं है. यह है एक उस दबंग पुलिस अफसर के खूबसूरत अतीत का सच, जिसके दावे के मुताबिक पुलिस की नौकरी को उसने 'जीया' तो जी भर कर, मगर 'ऊपरी' कमाई के नाम पर धेला नहीं कमाया.
‘संडे क्राइम स्पेशल’ की इस कड़ी में हम कोशिश कर रहे हैं, दिल्ली पुलिस के रिटायर्ड असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर (एसीपी) 79 साल के बलजीत सिंह की जिंदगी की सोई पड़ी यादों को अंगड़ाई दिलाने की. वही बलजीत सिंह जिनके एसएचओ ने, उनकी वकालत में एडमिशन की 'डिपार्टमेंटल-परमीशन' वाली एप्लीकेशन को थाने में फाड़कर फेंक दिया था. इसके बाद भी दिल्ली का वही दारोगा बलजीत सिंह कालांतर में दिल्ली पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज में 'लॉ-इंस्ट्रक्टर' और देश का मशहूर वकील बना. खुद के सोये अतीत को 20 साल बाद जगाकर, उसमें खुद झांक रहे हैं रिटायर्ड सहायक पुलिस आयुक्त बलजीत सिंह हमारे-आपके सामने बिना किसी लाग-लपेट के.
19 अगस्त, 1939 का सहारनपुर शहर
रेलवे में एक प्राइवेट ठेकेदार के घर बेटे ने जन्म लिया. नाम रखा गया बलजीत सिंह. बलजीत ने वर्ष 1956 में शकुंभरी दास इंटर कॉलेज से साइंस के साथ 12वीं की परीक्षा पास कर ली. 1958 में कपूरथला (पंजाब) के गवर्मेंट रणधीर कॉलेज से ग्रेजुएशन कर लिया. बीए का एग्जाम खत्म होते ही दिल्ली के साउथ पटेल नगर में रहने वाले चाचा महेंद्र पाल सिंह उसे अपने साथ ले आए.
शुरुआती दिनों में कुछ समय बहादुरशाह जफर मार्ग (दिल्ली का प्रेस-एरिया) से प्रकाशित एक अंग्रेजी अखबार के विज्ञापन विभाग में नौकरी की. दिल्ली पुलिस में असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर (एएसआई) की वेकेंसी निकली. फॉर्म भरा और 19 जुलाई, 1959 को मैं महज 19 साल 11 महीने की उम्र में दिल्ली पुलिस का असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर बन गया. तनख्वाह 120 रुपए महीना थी. उस जमाने में पुलिस और पुलिसवाले दोनों की उतनी ही ‘इज्जत’ थी, जितनी आज सड़क पर खाकी की खुलेआम ‘फजीहत’ हो रही है.’
यह सबकुछ बेबाकी से बताते हैं 21 साल पहले दिल्ली पुलिस से बतौर सहायक आयुक्त (डिफेंस-कालोनी सब-डिवीजन) 31 अगस्त, 1997 को रिटायर हो चुके सीनियर एडवोकेट बलजीत सिंह.
दारोगा दिल्ली का और ट्रेनिंग यूपी पुलिस सेंटर में
बकौल बलजीत सिंह, ‘जब मैं भर्ती हुआ, उस वक्त दिल्ली पुलिस के उप-महानिरीक्षक थे आईपीएस एन.एस सक्सेना. उन्होंने मुझे एक साल के लिए यूपी के मुरादाबाद पुलिस ट्रेनिंग सेंटर भेज दिया. 1961 में ट्रेनिंग से लौटा तो पहली पोस्टिंग रुप नगर थाने में मिली. थाने के एसएचओ थे नवाब हरगोविंद सिंह 'बी.ए.' हरगोविंद मूलत: पाकिस्तान के बहावलपुर के रहने वाले थे.’
दिल्ली पुलिस का इकलौता ग्रेजुएट एसएचओ
नवाब हरगोविंद उस जमाने में दिल्ली पुलिस के इकलौते स्नातक एसएचओ थे. इसीलिए वो अपने नाम के आगे शान के साथ ‘बी.ए.’ लिखते थे. नवाब साहब अनुशासन के इस कदर पक्के और मिजाज के कड़क थे, कि हर किसी से उनकी पटरी बैठ पाना मुश्किल था. सुबह ठीक 9 बजे थाने में पहुंच जाते थे. कार्यालय में बैठने से पहले वो थाने के कमरे, हवालात, रसोई, मालखाना, शौचालय की साफ-सफाई बेनागा किए हुए देखते थे. इसमें कोताही किसी की भी हो, मगर खैर पूरे थाने की नहीं होती थी.
आज की पुलिस में आईपीएस के शौचालय या तो उसके ऑफिस के भीतर ही हैं. या फिर सिपाही हर समय साहब के लिए तालाबंद शौचालय की चाबी लिये ड्योढ़ी (देहरी) पर खड़ा रहता है. उस जमाने में दिल्ली हाईकोर्ट राजपुर रोड पर थी. नाम था ‘सर्किट बैंच ऑफ पंजाब.’
1960 के दशक में बन गया सब-इंस्पेक्टर
‘वर्ष 1964 में दिल्ली पुलिस ने पहली बार डायरेक्ट सब-इंस्पेक्टर की वेकेंसी निकाली. मैं भी सलेक्ट हो गया. 6 महीने के लिए फिल्लौर (लुधियाना से आगे पंजाब में) में ट्रेनिंग के लिए भेज दिया गया. उस जमाने में दिल्ली पुलिस का ट्रेनिंग सेंटर नहीं होता था. पुलिस कामकाज भी उर्दू में होता था. रुप नगर थाने में पोस्टिंग के दौरान यूनिवर्सिटी सब-डिवीजन का मुझे इंचार्ज बना दिया गया था. तब सब- डिवीजन इंचार्ज की इज्जत और पावर आज के कनाट प्लेस-करोलबाग थाने से ज्यादा थी.’
करीब 38 साल दिल्ली पुलिस की नौकरी के अनुभव बांटते हुए बलजीत सिंह यह सब बताते हैं.
एसएचओ ने मेरी ‘लॉ’ एप्लीकेशन फाड़कर फेंक दी
दिल्ली पुलिस में थानेदारी के शुरुआती दिनों में अपने साथ हुए तमाशों का बेबाकी से जिक्र करते हुए बलजीत सिंह बताते हैं कि, ‘मुझे जब यूनिवर्सिटी सब-डिवीजन का इंचार्ज बनाया गया, तो मैंने सोचा लगे हाथ वकालत पढ़ लूं. वकालत पढ़ने की परमीशन की एप्लीकेशन लेकर एसएचओ नवाब हरगोविंद सिंह के सामने पेश हुआ. वो बोले, 'थाने को लॉ-कॉलेज बनाने पर तुले हो' और इतना कहते ही मेरी लॉ में एडमिशन के लिए पेश डिपार्टमेंटल परमीशन की वो एप्लीकेशन उन्होंने फाड़कर फेंक दी.
उस वाकये से दिल टूटा मगर हिम्मत नहीं टूटने दी. यह बात है वर्ष 1963-64 की. आगे-पीछे की कुछ सोचे बिना उसी एसएचओ नवाब को फिर एप्लीकेशन दे दी. उन्होंने तो परमीशन दे दी, मगर शर्त यह कि डीसीपी आर.एन अग्रवाल के सामने पेशी होगी. डीसीपी बोले कि, 'तुम्हारी वकालत करने के शौक ने अगर पुलिस को प्रभावित किया, तो यह मंजूरी कैंसिल कर दी जायेगी,' मैंने 'हां' कहा, और वकालत में एडमीशन ले लिया. और ऐसे झंझावतों में गिरते-पड़ते मैंने 1966 में दिल्ली विश्वविद्यालय से लॉ कंप्लीट कर लिया. संसद मार्ग थाने में पोस्टिंग के दौरान 1969 में पॉलिटिकल साइंस से एमए भी कर लिया.’ बताते हैं दिल्ली पुलिस से रिटायर होने के बाद बलजीत सिंह देश के मशहूर वकील बने.
साइकिल से गश्त करते हो, मेरी कार कैसे ढूंढोगे?
‘मैं नई दिल्ली जिले के संसद मार्ग थाने में पोस्टेड था. एक एमपी (सांसद) की कार चोरी हो गयी. दिल्ली पुलिस में कोहराम मच गया. मैं साइकिल से एमपी के बंगले पर हालात मालूम करने पहुंचा. नेता जी को बताया आपकी चोरी गई कार खोजकर लाने की जिम्मेदारी मेरी है. नेता जी ने एक बार मेरी साइकिल को और दूसरी बार मुझे घूरकर देखा. फिर बोले, 'आप तो खुद ही साइकिल पर गश्त और पुलिसिंग करते हैं. ऐसे में भला आप मेरी चोरी गई कार कैसे ढूंढ़ पाएंगे?' मैं आज तक नहीं समझ पाया कि, आखिर उन नेता जी द्वारा मेरी साइकिल वाली पुलिसिंग और उनकी चोरी हुई कार को खोजकर लाने के काम के बीच क्या संभावित तारतम्य/ सामंजस्य था?’ नेताजी पर ठहाका मारकर जोर से हंसते हुए बताते हैं बलजीत सिंह.
देश की पहली महिला आईपीएस मेरी ‘अंडर ट्रेनी’ थी
‘जहां तक मुझे याद आ रहा है वर्ष 1972-73 की बात है. 32-33 साल की ही उम्र में मैं 3-स्टार इंस्पेक्टर बन चुका था. बहैसियत एसएचओ पोस्टिंग हुई थाना किंग्सवे कैंप में. उसी दौरान भारत की पहली महिला आईपीएस किरण बेदी (अब पुडुचेरी की उप-राज्यपाल) थाने में मेरे अंडर में थानेदारी के गुर (बतौर ट्रेनी आईपीएस) सीखने पहुंची. दिल्ली पुलिस की नौकरी में किरण बेदी जैसी दबंग महिला आईपीएस को अपने अंडर में ट्रेनिंग कराने जैसा सम्मान मरते दम तक याद रखूंगा.
4 साल सहायक उप-निरीक्षक और करीब 7-8 साल सब-इंस्पेक्टर रहा. 1971-72 में मैं ग्रेड-1 इंस्पेक्टर बन गया. उस जमाने में दिल्ली में 40 से भी कम थाने होते थे. सदर. पहाड़गंज, पार्लियामेंट स्ट्रीट, तुगलक रोड थाने महत्वपूर्ण थे. इसीलिए उनमें तीन फूल (3 स्टार) इंस्पेक्टर को एसएचओ बनाया जाता था. यमुनापार इलाके में (अब 2 जिले पूर्वी और उत्तर पूर्वी) गांधी नगर और शाहदरा 2 ही थाने होते थे. सीलमपुर, तिमारपुर पुलिस पोस्ट (अब दोनों थाने हैं) इंचार्ज भी रहा. वर्ष 1968 में दिल्ली जंक्शन मेन पुलिस पोस्ट (अब पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन थाना) का चार्ज भी काफी समय मेरे पास रहा.’ बताते हैं बलजीत सिंह.
गाड़ी में फॉरेंसिक साइंस लेबोरेट्री का मैं इंचार्ज था
यह सौभाग्य भी वर्ष 1968-69 में बलजीत सिंह को ही मिला. बकौल बलजीत सिंह, ‘तब तक दिल्ली में कोई फॉरेंसिक साइंस लेबोरेट्री नहीं थी. फॉरेंसिक साइंस एक्सपर्ट ट्रेनिंग के लिए मुझे सलेक्ट किया गया. साढ़े 3 महीने की ट्रेनिंग ली हैदराबाद स्थित सेंट्रल फॉरेंसिक साइंस लेबोरेट्री में. ट्रेनिंग पूरी होते ही मुझे दिल्ली की पहली फॉरेंसिक साइंस लेबोरेट्री का इंचार्ज बनाया गया. उन दिनों फॉरेंसिक साइंस लेबोरेट्री पुलिस की एक गाड़ी में बनाई गयी थी. लैब की रिपोर्टिंग क्राइम ब्रांच को थी. दफ्तर तीस हजारी इलाके में था.’ 50 साल पहले दिल्ली पुलिस सर्विस की यादों के पन्ने पलटते हुए तमाम अनकही कहानियां सुनाते हैं बलजीत सिंह.
चीखता है सीन-ऑफ-क्राइम, पुलिस बस सुन ले
पुलिस कार्यप्रणाली में आए जबरदस्त बदलाव से बलजीत सिंह खासे खफा हैं. उनके मुताबिक, ‘हमारे जमाने की पुलिस घटनास्थल की ओर भागती थी. अब पुलिस वाला घटनास्थल से दूर भागता है. अगर पुलिस वाकई ईमानदारी मेहनत से काम करे तो उसे इज्जत मिले. काम ईमानदारी से (कुछ पुलिस वालों को छोड़कर) पुलिस वाले करना नहीं चाहते. पगार मोटी (तनख्वाह) लेते हैं. सुख-सुविधाएं जरुरत से ज्यादा हासिल हो चुकी हैं. इसलिए दिल-दिमाग से काम करने की प्रवृत्ति कम होती जा रही है.
मैं यह नहीं कहता या चाहता हूं कि, पुलिस को सुविधाएं न मिलें, जो सुविधाएं आपको मिली हैं उनके बदले आप समाज को वो पुलिसिंग भी तो दो, जैसी पुलिस की दरकार जन-मानस को है. सच पूछिए तो हर 'सीन-ऑफ-क्राइम' चीखता-चिल्लाता है. जरुरत बस इसकी है कि, पुलिस का जांच-अधिकारी उस आवाज को ईमानदारी से सुन भर. इससे न ‘जांच’ घटिया स्तर की होगी, न ही पुलिस की थू-थू होगी.’
बलजीत सिंह के अल्फाजों में, ‘आपराधिक घटना की जांच कर रहे पुलिस अफसर को दिमाग में घटनास्थल का ‘प्रेशर’ नहीं, सिर्फ घटनास्थल रखना चाहिए.’ बलजीत सिंह सराय रोहिल्ला, सब्जी मंडी, करोलबाग, हौजकाजी थाने के भी एसएचओ रहे थे.
जब थाने-चौकी की पोस्टिंग से मैं ऊब गया
आज थाने-चौकी की पोस्टिंग के लिए देश की पुलिस में मारा-मारी, आपा-धापी मची है. दिल्ली पुलिस की 38 साल नौकरी करने के बाद एसीपी से रिटायर बलजीत सिंह की कहानी मगर एकदम इसके उलट है. बकौल बलजीत सिंह, ‘1980 आते-आते दिल्ली पुलिस की 20 साल की नौकरी कर चुका था. थाने-चौकी की ड्यूटी से ऊब-थक गया. पुलिस कमिश्नर पी.एस. भिंडर (प्रीतम सिंह भिंडर) से गुजारिश की. उन्होंने 10 महीने के लिए दिल्ली पुलिस क्राइम ब्रांच में भेज दिया.’
अब कई बलजीत सिंह ‘पुलिस बटालियन’ में पड़े होंगे
उस पूरी घटना को याद करते हुए पूर्व आईपीएस पी.एस. भिंडर बताते हैं, ‘आईपीएस सर्विस में कई अच्छे जांबाज पुलिस अफसर और अधीनस्थ (सबऑर्डिनेट) मिले. दबंग और ईमानदार बलजीत सिंह उनमें से एक थे. आज भी पगड़ी में बलजीत सिंह का वो रोबीला पुलिस अफसर वाला चेहरा याद है. अब पुलिस के हालात बदतर होते जा रहे हैं. तमाम बलजीत सिंह आज भी पुलिस में मौजूद होंगे. फर्क बस इतना है कि, आज की पुलिस के बहादुर-काबिल बलजीत सिंह कहीं किसी बटालियन, सिक्योरिटी-लाइन में पड़े चुपचाप पुलिस की नौकरी में केवल वक्त काट रहे होंगे. उस जमाने का दिल्ली पुलिस का बहादुर और नेकदिल अफसर बलजीत सिंह मुझे 38 साल बाद भी याद है. उस जमाने की और आज की पुलिस में बड़ा फर्क आ चुका है.’
बहुत याद आयी रुप नगर थाने और नवाब साहब की
‘क्राइम ब्रांच से ‘चीफ लॉ-इंस्ट्रक्टर’ बनकर पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज महरौली कानून पढ़ाने चला गया. तब मुझे रुप नगर थाने की अपनी पहली पोस्टिंग बहुत याद आई. वजह थी रुप नगर थाने के तेज-तर्रार एसएचओ नवाब गोविंद सिंह 'बी.ए' द्वारा मेरी लॉ में एडमीशन वाली एप्लीकेशन फाड़कर फेंक देने की घटना. एप्लीकेशन फाड़ने के साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि, बलजीत सिंह तुम थाने को 'लॉ-कालेज' बनाने पर तुले हो. वाकई मैं अब दिल्ली पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज में 'लॉ-इंस्ट्रक्टर' बन चुका था. 'लॉ' की उसी डिग्री की बदौलत. दिल्ली पुलिस से रिटायर हुआ तो, उसी 'लॉ-डिग्री' की बदौलत अब दिल्ली की तीस हजारी अदालत और दिल्ली हाईकोर्ट में वकालत कर रहा हूं.’ बलजीत सिंह अतीत के पन्नों में सिमटी पड़ी यादों को जगा कर उन्हें पूरे 5 दशक बाद ताजा करने की कोशिश करते हैं.
हौजकाजी एसएचओ बना तो छुरेबाजी हुई न पथराव
‘वर्ष 1981 के आसपास उत्तर प्रदेश में राम मंदिर मूवमेंट धीरे-धीरे करवट लेने लगा था. उसका असर दिल्ली तक हुआ. शहर के कई हिस्सों में दंगे भड़कने लगे. पुरानी दिल्ली के सभी थाना क्षेत्रों में कर्फ्यू लगे 87 दिन हो गए थे. जो पुलिस अफसर-कर्मचारी पुरानी दिल्ली की ओर बढ़ा, उसे ही सिर पर पथराव झेलना पड़ा. डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस (डीआईजी) सुरजीत सिंह ने मुझे दिल्ली पुलिस मुख्यालय बुलाया. डीआईजी ने पुरानी दिल्ली के उस हौजकाजी थाने का एसएचओ बना डाला, जिसमें दिन-रात खुलेआम पथराव-छुरेबाजी हो रही थी. मैं जब हौजकाजी थाने का चार्ज लेने के बाद सड़कों से गुजरा तो न कहीं कोई छुरेबाजी की खबर आई. न ही किसी ने मेरे सिर पर एक भी पत्थर फेंका. लिहाजा चार्ज लेने के एक घंटे बाद ही 87 दिन पुराने कर्फ्यू में मैंने ढील दे दी. पब्लिक के मन में बस मेरे प्रति यह विश्वास था कि, बलजीत सिंह पुलिस इंस्पेक्टर/ एसएचओ बाद में इंसान पहले है.’
दिल्ली पुलिस की नौकरी के दौरान की 38 साल पुरानी यादों की गठरियों की गांठे खोल-खोलकर दिखाते और बताते हैं बलजीत सिंह.
गरीब था इसलिए ‘ऊपर’ वालों ने भी वसूली नहीं की
पुलिस महकमे में चौथ-वसूली, रिश्वतखोरी के बारे में बलजीत सिंह बताते हैं, ‘तब भी सब कुछ चलता होगा. अब भी सब चलता होगा. मैंने कभी किसी से 'वसूली-उगाही' की ही नहीं. पूरी दिल्ली पुलिस को मालूम था कि, गरीब पुलिस अफसर है. शायद इसीलिए कभी किसी ऊपर वाले अफसर ने मुझसे कोई 'डिमांड' नहीं की होगी.’ जोरदार ठहाका मारते हुए यह बात बताते हैं बलजीत सिंह.
31 अगस्त, 1997 को (उस वक्त दक्षिणी दिल्ली के डीसीपी थे मौजूदा पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक और पुलिस कमिश्नर तिलक राज कक्कड़) दक्षिणी दिल्ली जिले के डिफेंस कालोनी सब-डिवीजन से एसीपी के पद से रिटायर हो गए. रिटायरमेंट के बाद से ही बलजीत सिंह दो दशक से दिल्ली हाईकोर्ट और तीस हजारी अदालत में बेटे मनदीप वालिया के साथ वकालत कर रहे हैं.
आईपीएस ने मुझसे, मैंने दारोगा से कहा ‘सॉरी’
सादा जीवन. उच्च विचार, अटल इरादों वाले बलजीत सिंह बताते हैं कि, रिटायरमेंट के आसपास मैं पुलिस मुख्यालय में कमिश्नर टीआर कक्कड़ से मिलने गया. लौटा तो सोचा उन आईपीएस को भी सैल्यूट कर दूं, जिन्होंने 15-20 साल पहले राजपथ पर मेरी ड्यूटी के दौरान मुझे बिना किसी गलती के ही फटकार लगाई थी (यह आईपीएस हमेशा अपने बालों में मेंहदी कलर लगाते थे और कुछ समय दक्षिणी दिल्ली जिले के डीसीपी भी रहे). कमरे में पहुंचा तो उन आईपीएस ने मुझे खुद ही, राजपथ वाली घटना याद दिलाई और बोले, 'बलजीत उसके लिए सॉरी.' बलजीत सिंह बताते हैं कि उस आईपीएस की ग्रेटनेस का वह उदाहरण जीते जी नहीं भूलूंगा.
दूसरी घटना का जिक्र करते हुए बलजीत सिंह बताते हैं, ‘उस समय मैं डिफेंस कालोनी सब-डिवीजन का एसीपी था. इलाके में बड़े पैमाने पर अतिक्रमण ढहाने का अभियान चल रहा था. उसी दौरान ड्यूटी पर तैनात एक महिला सब-इंस्पेक्टर मेरे पास छुट्टी मांगने आई. बोली मेरा छोटा बच्चा है मैं जाना चाह रही हूं. मैंने उसकी बात अनसुनी कर दी. कई साल बाद वही महिला सब-इंस्पेक्टर मुझे तीस हजारी कोर्ट में मिली, तो मैंने उस घटना का जिक्र करते हुए उसे 'सॉरी' बोलकर उससे माफी मांगी. बाद में वही महिला थानेदार प्रमोट होकर इंस्पेक्टर बनी और कमला मार्केट थाने की एसएचओ भी रही.’
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