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कासगंज की 'सांप्रदायिकता' से बाहर निकलिए तो मकनपुर का मजहबी प्यार जरूर दिखेगा

मदारिया सूफी सिलसिला इश्क और फना के सिद्धांत पर चलता है. शायद इसीलिए सूफियों का यह पहला ऐसा सिलसिला है जिसने देशप्रेम और मुल्क की हिफाजत को अपना पहला फर्ज समझा

Nazim Naqvi

कानपुर बरेली रेलवे लाइन पर एक छोटा सा रेलवे स्टेशन अरौल मकनपुर के नाम से जाना जाता है. इसी रेलवे रूट पर इस छोटे से स्टेशन से तकरीबन 200 किलोमीटर दूर वही कासगंज है जो राष्ट्रीयता के नाम पर जल रहा है. धधक रहा है. राजनीति चरम पर है. आरोप-प्रत्यारोप का का एक ऐसा शोर जो मीडिया-बाजार में नया माल कहकर बेचा जा रहा है.

शोर तो मकनपुर में भी है. एक पैसेंजर ट्रेन अभी आकर रुकी है. जिसमें से अथाह भीड़ उतरकर एक दिशा में भागी जा रही है. इसी भागमभाग में रामशरण जो कि कासगंज से यहां परिवार समेत आए हैं मुझसे टकरा गए. मैने एक साथ कासगंज के लेकर कई सवाल कर डाले लेकिन रामशरण ने बस इतना कहा जल रहा है मेरा शहर. इसीलिए मैं अपने दातापीर हजरत मदार की दरगाह पर चला आया.


सांप्रदायिकता के बीच जब 'कासगंज' देश की खबर बन रहा हो तो खुशबुओं की राजधानी कन्नौज से 10 किलोमीटर दूर बसे इस छोटे से कस्बे मकनपुर की खबर छोटी हो जाती है. हालांकि आगामी 2 फरवरी को इस छोटे से कस्बे में एक अंतर्राष्ट्रीय सूफी कॉन्फ्रेंस होने जा रही है जिसमें अमेरीका, अफगानिस्तान, जर्मनी, साउथ-अफ्रीका और श्रीलंका के सूफी विद्वान शामिल हो रहे हैं.

कासगंज में हुई हिंसा की तस्वीर

इससे पहले सूफीवाद पर इतनी बड़ी 'वर्ल्ड सूफी फोरम' मार्च 2016 में दिल्ली के विज्ञान-भवन में आयोजित हुई थी, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संबोधित करते हुए कहा था कि 'सूफीवाद दरअसल वह आध्यात्मिक खोज है जिसने अपने मूल शब्द 'शांति' को पवित्र नबी और इस्लाम के मौलिक मूल्यों से पाया है'.

आइए पहले मकनपुर से आपकी मुलाकात करा दें. उत्तर-प्रदेश के किसी आम कस्बे जैसा ही है यह मकनपुर जहां पानी, सड़क, बिजली और शिक्षा के सवाल बाकी जगहों से अलग नही हैं लेकिन इस कस्बे में बसने वाली अवाम खुश नजर आती है. हमने वजह जानने की कोशिश की तो मुलाकात हुई कमल गुप्ता नाम के एक व्यावसाई से जो सुबह-सुबह श्लोक जैसी धुन में कुछ गाते हुए अपने घर से बाहर निकले. हमने पूछा यह आरती की धुन में रमे हुए किधर चले तो वह हंसे ... मै मनकबत पढ़ रहा था. और वह मदार साहब की उस दरगाह की ओर बढ़ गए जो इस कस्बे के केंद्र में दिल की तरह धड़कती है.

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हज़रत बदीउद्दीन जिंदा शाह मदार की दरगाह के चारों तरफ बसा है यह कस्बा, जिसे मकनपुर कहते हैं. मदारिया फाउंडेशन के प्रदेश-अध्यक्ष डॉ. मजहर नकवी ने तो हमें हैरत में डाल दिया जब उन्होंने बताया कि यह जगह हिंदू आस्थाओं का संगम रही है. और तकरीबन हिंदू समाज की सभी रस्में इस दरगाह पर हाजरी के बिना पूरी नही होतीं.

मदारिया फाउंडेशन कई वर्षों से मकनपुर को प्रदेश के सूफी-सर्किट में लाने के लिए सरकार से आग्रह कर रहा है क्योंकि इस सूफी-सर्किट में देवा-शरीफ और बहराइच जैसे नाम तो हैं लेकिन मकनपुर जैसे एतिहासिक-स्थान की अनदेखी की गई है.

दारा शिकोह. (तस्वीर विकीपीडिया से साभार)

इतिहास की बात करें तो हजारों ऐसे वृतांत हैं जो इसकी प्रमाणिकता का बखान करते हैं, इन्हीं में से एक है दाराशिकोह का बयान. बात है लगभग 1650 ईसवी की जब दाराशिकोह ने मकनपुर के इस उर्स में शामिल होने की बात लिखी, 'मैं यहां एक उर्स के मौके पर मौजूद था जिसमें चार-पांच लाख का मजमा था'. दरअसल उस समय लोक कलाकारों का संगम इस जगह पर होता था, जो बदस्तूर आज भी जारी है, और अमरनाथ की छड़ी-शरीफ जैसा ही एक जुलूस जिसे छड़ का जुलूस कहा जाता था, पूरे हिंदुस्तान से होता हुआ उर्दू कैलेंडर 17-जमादुल-अव्वल को मकनपुर में पहुंचता था. यह छड़ का जुलूस जहां रुकता वहां मेला लग जाता यह मेले बाद में चलन में आ गए जो आज भी छड़ के जुलूस के रास्तों पर ही लगते हैं. और इसी के साथ हिंदोस्तान की मशहूर कहावत मेला-मदार चरितार्थ होती है.

कहते हैं कि 17-जमादुल-अव्वल के दिन ही मदार साहब ने इस दुनिया से पर्दा किया था. हिंदू-वार्षिकी के हिसाब से वह दिन बसंत-पंचमी का था. कमल गुप्ता मनकबत पढ़ते हुए दरगाह की तरफ जा चुके थे और मैं समझ पा रहा था कि यहां विकास, राजनीति और नफरत जैसे सवालों से अलग एक अलग ही समाज की स्थापना हो चुकी है. जिसे सूफी परंपरा में फना और इश्क की बुनियाद पर जिदगी जीने का तरीका कहते हैं. मजहब और संप्रदाय जैसी चीजें यहां बेमानी हैं शायद इसलिए कि सबके मन बंधे हैं प्रेम की उस डोर से जिसे मदारिया सूफी सिलसिला कहा जाता है.

आध्यात्म इस जगह पर किसी शास्त्र या वाद की तरह नही बल्कि जिदगी का हिस्सा बन चुका है. सन 242 हिजरी में सीरिया के शहर हलब में जन्मे हज़रत बदीउद्दीन जो यायावर थे, 282 हिजरी में पूरी दुनिया का सफर करने के बाद यहां आए तो इश्क को जैसे अपनी मंजिल मिल गई. गुजरात, राजस्थान समेत मुल्क के दूसरे हिस्सों से होते हुए मदार साहब आखिर में मकनपुर जैसे इस छोटे से गाव में पहुंचकर रुक गए. यहां इंसानियत का पैगाम देते हुए 838 हिजरी में इस दुनिया से रुख्सत हो गए. उनके मानने वालों में हर मजहब और आस्था के लोग थे और यही वजह है कि आज भी हिंदू और मुसलमान अपनी-अपनी आस्थाओं के तौर पर यहां दो भव्य मेलों का आयोजन करते हैं.

मदारिया सूफी सिलसिला इश्क और फना के सिद्धांत पर चलता है. शायद इसीलिए सूफियों का यह पहला ऐसा सिलसिला है जिसने देशप्रेम और मुल्क की हिफाजत को अपना पहला फर्ज समझा. याद कीजिए 1763 में हिंदुस्तान का अंग्रेजों के खिलाफ पहला विद्रोह जिसे तारीख में फकीर-संन्यासी विद्रोह के रुप मे जाना जाता है. इसका नेतृत्व मदारिया सिलसिले के मलंग ‘मजनूशाह’ के हाथ में था. मजनूशाह ने बंगाल से लेकर बिहार और उड़ीसा के गिरी-पुरी साधुओं के साथ मिलकर मदारिया सिलसिले की शिक्षाओं के अनुरूप देश की हिफाजत की अलख जला दी.

प्रतीकात्मक तस्वीर

यह विद्रोह इतना बढ़ा कि अंग्रेजों को भारत एक ख्वाब लगने लगा. अंग्रेज़ों को मदारिया सूफी मत और इसके मानने वालों से सबसे बड़ा खतरा पैदा हो चुका था. यही वजह है कि 1857 में कोलिन कैंबेल ने अपनी तोपों का मुंह मकनपुर की तरफ कर दिया और नाना राव के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई लड़ रहे रुहुल अकबर, रुहुल आज़म और भवानी पाठक को सरेआम फांसी पर लटका दिया गया जिनकी समाधियां आज भी मकनपुर के गर्व का प्रतीक हैं.

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कई वर्षों के बाद इस बार बसंत पर्व और इस्लामी कैलेंडर फिर से करीब आया है और इस बार एक बार फिर इस चौखट पर लगने वाला उर्स और मेला, हिंदू-मुस्लिम आस्थाओं का संगम बन कर उभरा है. इसी खास मौके पर मदारिया सूफी फाउडेशन अंतरराष्ट्रीय सूफी कॉन्फ्रेंस का आयोजन कर रही है जिसमें अमेरिका से डॉ. केन रॉबिसन, बर्लिन से डॉ. उते फलाश, श्रीनगर से डॉ. फारुक रेंजू, मैनेजमेंट एक्सपर्ट डॉ. मजहर अब्बास नकवी, कोलकाता से डॉ. आनन्दा भट्टाचार्या, जोहानिसबर्ग से हसनमियां जेथाम और विष्णु फाउंडेशन, चेन्नई से स्वामी हरी प्रसाद तथा दरगाह निजामुद्दीन, दिल्ली से अजमल निजामी और अफगानिस्तान के सूफी जरीफ चिश्ती समेत कई अन्य हस्तियां भी शिकरत करने वाली हैं.

बहरहाल मदारिया फाउंडेशन को उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री से काफी उम्मीदें हैं जो खुद गोरखनाथ परंपरा से आते हैं. यह वह नाथ-परंपरा है जिसमें कभी मुसलामानों की बहुलता थी. जिसका सूफीवाद के साथ चोली-दामन का साथ था. सवाल यह है कि क्या योगी आदित्यनाथ को कासगंज से इतनी मोहलत मिलेगी कि वह कन्नौज के करीब इस छोटे से कस्बे की सुध लेंगे.