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जन्मदिन विशेष: शंकरदयाल शर्मा में कहां से आया था पीएम पद ठुकराने का वो साहस!

डा. शंकरदयाल शर्मा से सबसे उजली आत्मा वाले राष्ट्रपतियों में शुमार किए जाएंगे.

Chandan Srivastawa

देश के सबसे ऊंचे आसन पर दलित समुदाय का कोई व्यक्ति पहुंचे यह हमारे लोकतंत्र की आकांक्षा भी रही है और किसी सियासी गोलबंदी को धराशाई करने की रणनीति भी. राष्ट्रपति के चुनाव में ‘कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना’ का जो सीन इस बार रामनाथ कोविंद बनाम मीरा कुमार के मुकाबले में नजर आ रहा है, वैसा इसके पहले भी हुआ है और एक से ज्यादा दफे हुआ है.

एक बार ऐसा हुआ था नीलम संजीव रेड्डी की उम्मीदवारी की काट करने के लिए और दूसरी बार हुआ जब राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में डॉ. शंकरदयाल शर्मा के नाम पर सहमति कायम करने की कोशिशें की जा रही थीं.


जब दलित प्रत्याशी का नाम उछला

लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद पार्टी ने मोरारजी देसाई की महत्वाकांक्षाओं को दरकिनार कर इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाया था लेकिन इंदिरा गांधी पार्टी को वरिष्ठों की पकड़ से निकाल उसपर अपना खुद का दबदबा कायम करना चाहती थीं. उन्होंने वरिष्ठों के मर्जी के खिलाफ कई फैसले लिए और पार्टी के भीतर वरिष्ठ नेताओं की सिंडिकेट से उनकी एक अघोषित लड़ाई छिड़ गई.

सिंडिकेट ने उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने के चलन से हटकर जब’ लोकसभा के स्पीकर नीलम संजीव रेड्डी को अपना उम्मीदवार बनाया तो इंदिरा गांधी भांप गईं कि उनके खिलाफ साजिश हो रही है, उन्हें लगा सिंडिकेट प्रधानमंत्री का पद पार्टी के भीतर मौजूद प्रतिद्वंदी मोरारजी देसाई को देने के लिए शह और मात की एक बिसात बिछा रही है.

नीलम संजीव रेड्डी के नाम पर हुई ‘सिंडिकेट’ गोलबंदी तोड़ने के लिए इंदिरा गांधी ने तर्क दिया कि मौका (1969) महात्मा गांधी के जन्म-शताब्दी वर्ष का है और महात्मा को इससे बेहतर श्रद्धांजलि क्या होगी कि पार्टी एक ‘हरिजन’ बाबू जगजीवन राम को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाए (‘बाबूजी’ को गांधी के शब्द ‘हरिजन’ से आपत्ति नहीं थी, वे अपने लिए ‘दलित’ की जगह इसी शब्द का प्रयोग करते थे).

खैर, उस वक्त राष्ट्रपति पद के लिए प्रत्याशी का नाम तय करने बैठी पार्टी की समिति ने इंदिरा गांधी का प्रस्ताव अपनी वोटिंग के दम पर नकार दिया और इंदिरा गांधी ने तत्कालीन उपराष्ट्रपति वीवी गिरि के बहाने से अपनी ही पार्टी के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी के खिलाफ वह किया जिसे देश के एक कार्यवाहक राष्ट्रपति जस्टिस हिदायतुल्लाह ने ‘तख्तापलट’ कहकर याद किया है!

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पंडित शंकरदयाल शर्मा या कोई दलित प्रत्याशी

राष्ट्रपति पद के लिए दलित प्रत्याशी का नाम आगे बढ़ाकर राजनीति चमकाने और सियासी गोलबंदी की काट करने की एक कोशिश हुई 1992 में. तब प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव कोशिश कर रहे थे कि उपराष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा के नाम पर सर्वसम्मति बन जाए लेकिन जनता दल के वीपी सिंह और रामविलास पासवान का कहना था कि राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार दलित समुदाय के किसी व्यक्ति को बनाया जाना चाहिए. जाहिर है, तब इन दोनों नेताओं की नजर अपनी राजनीति के लिहाज से निर्णायक दलित वोटों पर थी.

लेकिन राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए प्रत्याशी के नाम पर चल रही रस्साकशी में वीपी सिंह ने अपने तेवर कुछ नरम किए. लंदन जाने से पहले उन्होंने जनता पार्टी के अध्यक्ष एसआर बोम्मई से कहा कि मेरी इच्छा तो यही है कि राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार हरिजन समुदाय का कोई व्यक्ति बने लेकिन इसे पार्टी का विचार ना समझकर मेरा निजी ख्याल माना जाए.

वीपी सिंह के तेवर नरम पड़ने की दो वजहें थीं. एक तो उस वक्त वामदलों ने कह दिया था कि राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार का नाम तय करने में सिर्फ जाति को ही आधार बनाया जाए ऐसा जरूरी नहीं. दूसरे, जनता दल के सांसद राजमोहन गांधी का रुख यह था कि मुद्दे पर कोई फैसला पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के सिरे से न हो, पार्टी के भीतर मसले पर पूरी चर्चा करवाई जाए.

उस समय संसद में सीटों की संख्या का गणित कुछ ऐसा था कि किसी एक पार्टी के लिए अपनी मनमर्जी का कर पाना नामुमकिन था, नरसिम्हा राव की सरकार जनता दल और वाममोर्चे के समर्थन से चल रही थी और प्रधानमंत्री के रूप में नरसिम्हा राव जानते थे कि कुछ मोल-तोल करना पड़ेगा. राष्ट्रपति पद के लिए अपने मनपसंद प्रत्याशी को वे तभी खड़ा कर सकते थे जब उपराष्ट्रपति पद के लिए वे या तो बीजेपी की पसंद के उम्मीदवार के लिए सहमत हों या फिर जनता पार्टी और वाममोर्चा से ही इस मामले में कोई पटरी बैठ जाए.

लेकिन एक बड़ी वजह थी, खुद शंकरदयाल शर्मा की शख्सियत, वे लगभग अजातशत्रु थे. अंदाजा लगाइए कि उनके नाम पर सहमति कायम करने के लिए नरसिम्हा राव अनौपचारिक तौर पर एक ओर धुर दक्षिणपंथी राजनीति के प्रतीक पुरुष लालकृष्ण आडवाणी से आस लगाए हुए थे तो दूसरी तरफ वाममोर्चा के सिपहसालार ज्योति बसु से.

और इसपर भी कोई अचरज नहीं कि विचारधारा के लिहाज से एकदम उत्तर-दक्षिण पड़ते इन दोनों को शंकरदयाल शर्मा के नाम पर निजी तौर पर कोई आपत्ति नहीं थी. सियासत के अपने लंबे अनुभव के आधार पर ज्योति बसु जानते थे कि यह व्यक्ति अपने अकीदे का पक्का है, धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत से डिग नहीं सकता और सक्रिय राजनीति में लगातार चार दशक तक एक सम्मानजनक दूरी से शंकरदयाल शर्मा को जिम्मेदारी के विभिन्न पदों (मुख्यमंत्री और राज्यपाल) पर काम करता देख चुके लालकृष्ण आडवाणी को यकीन था कि सब धर्मों को एक-से धीरज से धारण की उदारता के मामले में हिंदू धर्मशात्रों का यह पंडित अद्वितीय है.

उस समय का सियासी घटनाक्रम बताता है कि जनता पार्टी को भी अपनी कोशिशों में कामयाबी मिली और प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को भी. चूंकि उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में दलित समुदाय के प्रतिनिधि के तौर पर केआर नारायणन के नाम को नरसिम्हा राव ने मान लिया सो वीपी सिंह और रामविलास पासवान राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी के लिए शंकर दयाल शर्मा के नाम पर सहमत हो गए.

विपक्ष (बीजेपी/नेशनल फ्रंट) ने उनके मुकाबले राज्यसभा के उपाध्यक्ष जीजी स्वेल को मैदान में उतारा लेकिन शंकरदयाल शर्मा को वोट लगभग हर पार्टी से मिले. शंकरदयाल शर्मा ने जीजी स्वेल पर तकरीबन दोगुने (3 लाख 46 हजार के मुकाबले 6 लाख 75 हजार) मतों के अंतर से जीत दर्ज की.

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शंकरदयाल शर्मा: भारतीयता की मूरत

भारत क्यों अनेकताओं में एकता का देश है, इसे शंकरदयाल शर्मा की शख्सियत से हल्की-फुल्की भी पहचान बनाकर जाना जा सकता है. और इसका एक आसान तरीका हो सकता है कि हम यह जानें कि अपने समय की सियासत के चुभते सवालों पर बतौर राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा सोचते क्या थे?

राष्ट्रपति पद के लिए जीत दर्ज करने के बाद एक पत्रिका में उनका इंटरव्यू छपा. उस वक्त हिंदुत्ववादी राजनीति अपने उभार पर थी, राम-मंदिर प्रकरण के बहाने ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ के मुहावरे पर जनता-राजनेता और बुद्धिजीवी बहस में मुब्तिला थे. पत्रकार ने इसी को लक्ष्य करके शंकरदयाल शर्मा से सवाल पूछा कि एक ऐसे वक्त में जब देश कठिन हालात से गुजर रहा है और धर्मनिरपेक्षता निशाने पर है, आप राष्ट्रपति पद की जिम्मेवारी कैसे निभाएंगे?

धर्मशास्त्रों के ज्ञानी डा. शंकरदयाल शर्मा का उत्तर था 'ईश्वर में अपनी आस्था के सहारे, देश पर अपने विश्वास के सहारे.'

अगर आप सेक्युलरिज्म का वही अर्थ समझते हैं जो पश्चिम की दुनिया में बना तो शंकरदयाल शर्मा का जवाब आपको अचरज में डालेगा और अगर आप मानते हैं कि धर्मनिरपेक्षता का एक ठेठ भारतीय अर्थ है तो देश के नौंवे राष्ट्रपति के जवाब में आपको पूरी भारतीय धर्म-परंपरा बोलती हुई जान पड़ेगी.

उन्होंने अपनी बात को समझाते हुए पत्रकार को कहा कि ईश्वर और देश की जनता पर अपने विश्वास के सहारे मैं अपनी जिम्मेवारी निभाऊंगा. जहां तक धर्मनिरपेक्षता की बात है, मैं उसके प्रति निष्ठावान हूं क्योंकि धर्मनिरपेक्षता ना रही तो देश भी ना रहेगा. लेकिन मैं ईश्वर में आस्था रखने वाला आदमी हूं. मैं मंदिरों में जाता हूं और जब-तब मजारों का भी फेरा लगाता हूं. मुझे दोनों ही जगह एक-सी खुशी मिलती है.'

जवाब से झांकते अंतर्विरोध को भांपकर पत्रकार ने उन्हें याद दिलाया कि 'कुछ राजनीतिक समूह यह साबित करने पर तुले हैं कि धार्मिक आस्था संविधान से भी ज्यादा ऊंची चीज है' और इस याद्दहानी पर डा. शर्मा का जवाब बिल्कुल वैसा ही था जैसा कभी धर्मभूमि भारत के स्वभाव के बारे में संविधान सभा में सोचा गया था.

राष्ट्रपति ने कहा, 'यह तो हमारे लिए बिल्कुल बेगानी बात है. कौन सा धर्म आपको फर्क करना सिखाता है? उनसे पूछिए कि क्या उन्हें ऋग्वेद की याद है जो कहता है, 'एकम् सत्, विप्रा बहुधा वदन्ति (एक ही सत्य को ज्ञानी जन अलग-अलग ढंग से कहते हैं).

अशोक ने अपने शिलालेखों में एक अहम बात यह कही है कि दूसरे धर्म के लोगों को पूरा सम्मान दो. और आखिर में उसने यह भी कहा है कि जो व्यक्ति दूसरे धर्म को वंचित कर अपने धर्म को बढ़वार चाहता है वह दरअसल अपने धर्म को नुकसान पहुंचाता है. इस्लाम में तो रब-उल-आलमीन (सबका मालिक एक वही ईश्वर) का जिक्र है, रब-उल-मुसलमीन (सिर्फ मुसलमानों का ईश्वर) जैसा कुछ थोड़े ही कहा गया है. राष्ट्रपति का अपना निजी कोई अजेंडा ना हो तो वह सरकार पर भी असर डाल सकता है और विपक्ष पर भी.'

जाति की राजनीति के मायने

डॉ. शंकरदयाल शर्मा के राष्ट्रपति बनने के वक्त देश की सियासत का मुहावरा मंडल बनाम कमंडल की राजनीति से तय होने लगा था. सियासत के रोजमर्रा में कोई भी आदमी उस वक्त ना दलित-बहुजन के सशक्तीकरण के सवाल की अनदेखी कर सकता था ना ही भारतीय राष्ट्र-राज्य से अलग-अलग धर्म-समुदायों के रिश्ते के सवाल से. खुद शंकरदयाल शर्मा की राष्ट्रपति पद की दावेदारी भी दलित बनाम सवर्ण के विवाद में उलझी थी.

नव-निर्वाचित राष्ट्रपति से पत्रकार ने पूछा कि आप जाति-विवाद के साए में राष्ट्रपति निर्वाचित हुए हैं, क्या इससे देश के सर्वोच्च पद की प्रतिष्ठा पर कोई आंच आई है?

सवाल के लंबे जवाब में डॉ. शर्मा ने तीन अहम बातें कहीं. इसमें एक बात व्यक्तिगत थी कि कि वेद, इस्लाम, बौद्ध और जैन धर्म की अपनी शिक्षा के कारण उन्होंने खुद कभी किसी से भेदभाव नहीं किया.

दूसरे यह कि आज के वक्त में दलितों के सशक्तीकरण की बातें ज्यादा हैं जबकि पुरानी पीढ़ी के राजनेता समाज के दलित-वंचित तबके के लिए बिना शोर किए काम किया करते थे और उस काम का ही नतीजा है जो आज (1992) उप-राष्ट्रपति के सचिवालय में 70 फीसद तादाद दलित और पिछड़े समुदाय के लोगों की है.

और तीसरी बात यह कि दलित-बहुजन के सशक्तीकरण का असली और सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि आप उनकी मदद के लिए जिम्मेदारी के पद पर रहते हुए करते क्या हैं. उन्होंने पत्रकार को याद दिलाया कि मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री रहते उन्होंने अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को हजारों एकड़ की जमीन मुहैया करवायी. सो, असल सवाल तो यह है कि जिम्मेदारी के पद पर रहते आप वंचित तबके के लिए मौके जुटाते हैं या नहीं.

अगर डॉ. शर्मा की इस तीसरी बात को ध्यान में रखें तो प्रतीकों के खेल बन जाने को अभिशप्त अब के राष्ट्रपति पद के मुकाबले की विडंबना को बखूबी समझा जा सकता है.

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भेदभाव से परे एक आस्था

हिंदुस्तानियत शंकरदयाल शर्मा के लिए ओढ़ी हुई चीज नहीं थी. पढ़ाई के सिलसिले में वे कैम्ब्रिज भी हो आए थे और हावर्ड भी. विश्वविद्यालय की नौकरी से लेकर मुख्यमंत्री, कैबिनेट मंत्री, उप-राष्ट्रपति और राष्ट्रपति पद तक की जिम्मेवारियां निभाई लेकिन अपने बारे में कहा यही कि जिंदगी में जो कुछ जाना-समझा वह भारत-भूमि पर मौजूद धर्मों की सिखावन से ही जाना-समझा.

और भारत-भूमि के धर्मों ने उन्हें सिखाया कि ताकत की असली पहचान है कि वह कतार में खड़े सबसे आखिरी आदमी की जिंदगी के लिए क्या कुछ करता है. जब वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो सारी जागीरदारियां झटके में खत्म कर दीं, शिक्षा मंत्री के रूक में उनका जोर इस बात पर रहा कि लड़कियों, दलित-बहुजन और जनजातीय समुदाय के बच्चों को बेहतर और निशुल्क शिक्षा कैसे हासिल हो.

अपनी आस्था के बूते वे जानते थे कि न्याय किस तरफ है. जेपी आंदोलन के दिनों में वे कांग्रेस के अध्यक्ष थे और ऐन पद पर रहते जेपी आंदोलन के खिलाफ एक शब्द ना कहा. पार्टी में किसी ने इंदिरा गांधी से शिकायत की ‘यह आदमी जेपी के खिलाफ नहीं लड़ सकता, यह तो उन्हें द्रोणाचार्य कहता है.’ उन्होंने खुलेआम स्वीकारा कि इमर्जेंसी के दौर में ज्यादतियां हुईं और इसके लिए क्षमा मांगी जानी चाहिए. अन्यायी फैसले से इनकार का साहस था तभी तो एनटी रामा राव की सरकार की बर्खास्तगी के आला कमान के फैसले की हां में हां ना मिला सके.

निजी दुख को सार्वजनिक जिम्मेदारी से जोड़कर ना देखने का गुण भी उन्हें अपने आस्था के जीवन से ही मिला था. उनकी संतति आतंकवादी गोलियों की शिकार हुई लेकिन उग्रवाद की आंच से झुलसते पंजाब में उन्होंने राज्यपाल की भूमिका बड़े धीरज से निभाया.

शंकरदयाल शर्मा की आस्था ने उन्हें सिखाया था कि सार्वजनिक पद पर जिम्मेदारियों के निर्वहन में धर्म कभी बाधा नहीं बनता. राज्यसभा की अध्यक्षता करते वक्त उन्हें पंच-परमेश्वर वाला सबक याद था. तब दलगत प्रतिबद्धता से ऊपर उठकर उन्होंने साथ सदन और लोकतंत्र का दिया था. पार्टी के सदस्यों के हंगामे से बाधित होती संसदीय कार्यवाही के बीच यह कहकर सदन से आसन से उठ गए थे कि 'लोकतंत्र की यह हत्या अब मैं और नहीं देख सकता.'

धर्म की आस्था ने ही उन्हें त्याग भी सिखाया था. राजीव गांधी की हत्या के बाद पार्टी के भीतर उपजे नेतृत्व के संकट के समय पार्टी की प्रधानी और प्रधानमंत्री का पद सोनिया गांधी ने उन्हें सौंपा था. पद का सहज लालच होता तो ‘हां’ कह देते जैसा कि बाद में पीवी नरसिम्हा राव ने किया भी लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे ताकतवर पद यह कहते हुए ठुकरा दिया कि मेरी उम्र और सेहत इसकी इजाजत नहीं देते.

राष्ट्रपति बने तो जैसे इस पद से जुड़ी जिम्मेदारियों ने उनके विवेक का एक तरह से इम्तिहान लिया. देश में लगातार तीसरी दफे त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति उत्पन्न हुई लेकिन पहली बार ऐसा हुआ कि सरकार बनाने की दावेदारियां से एक से ज्यादा थीं. सवाल था सरकार बनाने का न्यौता किसे दिया जाय? एक के बुलाने पर बाकियों के नाराज होने की आशंका तो थी ही, बड़ा डर यह था कि कहीं जनादेश का ही अपमान ना हो जाए.

पहले के दो अवसरों पर स्थिति अलग थी. पहले 1989 और फिर 1991 में राष्ट्रपति आर वेंकटरमण इस स्थिति का सामना कर चुके थे. उन्होंने तब पहले सरकार बनाने का न्यौता उस पार्टी को दिया था जिसके पास सबसे ज्यादा सीटें थीं, भले वह अल्पमत हो. लेकिन इन दोनों ही अवसरों पर प्रधानमंत्री पद का दावेदार कोई एक ही व्यक्ति था, 1989 में वीपी सिंह और 1991 में पीवी नरसिम्हा राव. लेकिन इस बार (1996) एक से ज्यादा दावेदार थे और बड़ा निर्णायक था यह फैसला कि सरकार बनाने का न्यौता पहले किसको मिलता है.

डॉ. शर्मा ने चली आ रही परंपरा का पालन किया. सीटों के मामले में सबसे बड़ी पार्टी के मुखिया को सरकार बनाने का न्यौता दिया. थर्ड फ्रंट को इसकी उम्मीद नहीं थी, सो उसने राष्ट्रपति के फैसले की कठोर आलोचना की. क्या तब थर्ड फ्रंट यह उम्मीद कर रहा था कि राष्ट्रपति को अपनी विचारधारात्मक झुकाव के आधार पर फैसला करना चाहिए था?

आगे का किस्सा सब जानते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी की वह सरकार विश्वास मत हासिल नहीं कर सकी और न्यौता सरकार बनाने के दूसरे दावेदार संयुक्त मोर्चा को मिला, एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने.

जब कानून स्पष्ट ना हो, कानून के जानकार एकमत ना हों और हालात मांग करें कि फैसला अभी के अभी करना हो तो सहारा विवेक का होता है. उस घड़ी परीक्षा होती है कि राष्ट्रपति संविधान-निर्माताओं के अकीदे पर कितना खरा उतरता है. वह अकीदा था कि आगे के वक्त में राजकाज बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करेगा कि राजनेता कितने नेकनीयत हैं.

और जहां तक नेकनीयती का सवाल है, डॉ. शंकरदयाल शर्मा सबसे उजली आत्मा वाले राष्ट्रपतियों में शुमार किए जाएंगे. विश्वास ना हो तो एक बार उनकी निश्छल हंसी को याद कर लीजिए, बगैर आत्मा के उजास के वैसी हंसी कभी संभव नहीं होती.