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श्याम बेनेगल: भारतीय समानांतर सिनेमा के झंडाबरदार

हाशिए पर मौजूद भारतीय समाज के तमाम तबकों की कहानी श्याम बेनेगल की फिल्में दुनिया के सामने लाती हैं

Sumit Kumar Dubey

सिनेमा को हमेशा से ही समाज का आईना माना जाता रहा है. बॉलीवुड की कमर्शियल फिल्मों के जरिए अगर उस वक्त के समाज की कल्पनाशीलता से अवगत होते हैं तो समानांतर सिनेमा हमें समाज के उस काले और वास्तविक हिस्से में  लेकर जाता है जिसे हम देखकर भी अनदेखा करने की कोशिश में रहते हैं.

भारत में समानांतर सिनेमा को आकार देने का श्रेय सत्यजीत रे को जाता है. लेकिन सत्यजीत रे के बाद अगर किसी ने उनकी विरासत को ना सिर्फ संभाला बल्कि नया आयाम दिया है, वह हैं श्याम बेनगल. श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्मों के जरिए ना सिर्फ भारतीय सामाज को वास्तविक रूप से दर्शकों के सामने परोसने का काम किया बल्कि सिनेमा को  बेहतरीन अदाकार भी दिए. इनकी फिल्में भारतीय समाज में हाशिए पर बैठे लोगों के हालात को बयां करने का एक ऐसा दस्तावेज है जो एक झटके में हमारे समाज की कुरीतियों को पर्दाफाश कर देता है.


महान फिल्मकार गुरुदत्त से श्याम बेनेगल का रिश्ता

आंध्र प्रदेश में आज ही के दिन साल 1934 में जन्मे श्याम बेनेगल का सिनेमा के साथ एक पुराना रिश्ता था. उनकी दादी और मशहूर फिल्मी हस्ती गुरुदत्त की नानी सगी बहनें थीं. बॉलीवुड में इस तरह का कनेक्शन होने के बावजूद श्याम बेनेगल ने अपने करियर की शुरुआत विज्ञापनों के स्क्रिप्ट राइटर के तौर पर की. फीचर फिल्म बनाने से पहले वह करीब 900 विज्ञापन फिल्में बना चुके थे.

श्याम बेनेगल की भारतीय सिनेमा में एंट्री एक बहुत ही नाजुक वक्त पर हुई. 1970 के दशक की शुरुआत में भारतीय कला सिनेमा पहचान के संकट के गुजर रहा था. समानांतर सिनेमा को फंडिंग की एक ऐसी समस्या का सामना करना पड़ रहा था जिसके सुलझाने के लिए लिए अपने मूल उद्देश्य से ही समझौता करना पड़ जाता. यह वो वक्त था जब पूरे भारत में न्यू सिनेमा की शुरुआत हो रही थी. ऐसे वक्त में श्याम बेनेगल ने सिनेमा के पटल पर आकर न्यू सिनेमा को एक नई पहचान तो दी ही साथ बिना अपने सिद्धांतों से समझौता किए बिना, अपनी फिल्मों का एक नया फाइनेंशियल मॉडल भी खड़ा कर दिया.

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ईजाद किया समानांतर फिल्मों की फंडिंग का नया मॉडल

इनकी फिल्म मंथन को-ऑपरेटिव फंडिंग का बेहतरीन उदाहरण है. फिल्म दूध का व्यापार करने वाले छोटे गांव वालों पर आधारित थी. इस फिल्म के लिए करीब पांच लाख गांव वालों ने दो-दो रुपए के हिसाब के चंदा दिया. और जब यह फिल्म रिलीज हुई तो फिर अपनी इस फिल्म को देखने के लिए वे टिकिट खरीदकर सिनेमाघर भी पहुंचे.

श्याम बेनेगल की फिल्में इसी तरह से समाज के वंचित तबके के मसले के उठाकर उसे पूरी दुनिया के सामने रखती हैं और इनको व्यवसायिक कामयाबी मिलने में ज्यादा मुश्किल नहीं हो पाती.

अंकुर और निशांत जैसी फिल्मों में जहां श्याम बेनेगल ने समाज में महिलाओं की दयनीय स्थिति को सामने रखा वहीं फिल्म भूमिका में एक महिला की असमंजसता को वह बखूबी पर्दे पर लाने में कामयाब रहे. जुलाहों की व्यथा को उन्होंने फिल्म सुस्मन के जरिए लोगों के सामने रखा तो वहीं मछुआरों की दुनिया फिल्म अंतरनाद के जरिए सबसे सामने आई. दलितों के भीतर समान अधिकारों की चेतना को श्याम बेनेगल फिल्म समर के जरिए सामने लाते है वहीं फिल्म हरी-भरी में महिलाओं के अधिकारों की बात करते है.

नसीरुद्दीन शाह, शबाना आजमी और स्मिता पाटिल जैसे बेहतरीन अदाकारों ने श्याम बेनेगल की फिल्मों के जरिए ही अपनी एक्टिंग के हुनर का लोहा मनवाया.

साल 1974 में अंकुर जैसी जबरदस्त फिल्म के जरिए कला फिल्मों के नए अध्याय की शुरूआत करने वाले श्याम बेनेगल ने धर्मवीर भारती के उपन्यास सूरज का सातवां घोड़ा के जरिए पितृसत्तात्मक समाज को कठघरे में खड़ा कर दिया वहीं सरदारी बेगम समाज से बगावत करने वाल महिला की कहानी बयां करती है. फिल्म मम्मो, सरदारी बेगम और जुबेदा के जरिए इन्होंने मुस्लिम महिलाओं के हालात को भी देश-दुनिया के सामने रखा. फिल्म मंडी में उन्होंने दिखाया कि कैसे हमारे समाज को वेश्याओं की जरूरत तो है लेकिन वह इन्हें कबूल करने में हिचकिचाता है. समाज पर यह एक जोरदार ताना  था.

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टेलीविजन पर भी रचा इतिहास

श्याम बेनेगल सिर्फ सिनेमा ही नहीं बल्कि टेलीविजन के छोटे पर्दे पर भी अपनी ऐसी छाप छोड़ी है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. टीवी पर रामायण और महाभारत जैसे पौराणिक कथाओं वाले धारावाहिकों ने जब धूम मचाई तो उस वक्त की सरकार ने भारत के इतिहास को भी छोटे परदे के जरिए जनता के सामने लाने का विचार किया. सरकार ने इस काम के लिए श्याम बेनेगल को चुना और उन्होंने देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा आजादी से पहले जेल में  लिखी गई डिस्कवरी ऑफ इंडिया को आधार बनाकर भारत एक खोज के नाम से एक ऐसी टेलीविजन सीरीज को पेश किया जो भारतीय टेलीविजन के इतिहास में एक कालजयी रचना बन गई.

भारतीय सिनेमा में उनके योगदान को देखते हुए साल 2007 में उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया. पांच बार राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल करने वाले वह इकलौते निर्देशक है. पद्मश्री और पद्म भूषण जैसे नागरिक सम्मान भी उनकी झोली में  चुके हैं. आज श्याम बेनेगल 83 साल के हो चुके हैं. उम्र के इस पड़ाव पर भी श्याम बेनेगल काफी एक्टिव हैं. फिल्मों को वह अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा साधन मानते है और इससे जुड़े तमाम मसलों पर अपनी राय व्यक्त करने के सभी पीछे नहीं हटते हैं. हाल में फिल्म पद्मावती से जुड़ा विवाद इसकी नजीर है. श्याम बेनेगल को उनके जन्मदिन पर फर्स्टपोस्ट हिंदी की ओर से बधाई .