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पाटीदार समिति में फूट: हार्दिक को अलग-थलग क्यों कर रही है पार्टी?

पास के बचे हुए नेताओं का कहना है कि पास एक विचार लेकर चल रहा है. इसमें किसी व्यक्ति का कोई स्थान नहीं है. इशारा हार्दिक पटेल की तरफ है

Syed Mojiz Imam

पाटीदार अनामत आंदोलन समिति में बाकायदा फूट पड़ गई है. इस समिति से हार्दिक पटेल को अलग कर दिया गया है. पाटीदार अनामत आंदोलन समिति ने साफ कर दिया है कि अब सिर्फ पाटीदार के आरक्षण के मुद्दे पर ही संघर्ष रहेगा. बाकी मुद्दों से कोई लेना देना नहीं है. इसके पीछे तर्क दिया जा रहा है कि जबसे समिति राजनीतिक दलों के साथ दिखाई देने लगी है, तब से आंदोलन का मकसद कमजोर हुआ है.

पास के बचे हुए नेताओं का कहना है कि पास एक विचार लेकर चल रहा है. इसमें किसी व्यक्ति का कोई स्थान नहीं है. इशारा हार्दिक पटेल की तरफ है. पास की कीमत पर हार्दिक पटेल अब अपनी राजनीति चमकाने से बाज आएं. पास के संगठन प्रभारी दिलीप साबवा का कहना है कि हमने तय किया है कि पास का कोई भी आदमी चुनाव नहीं लड़ेगा और आरक्षण के अलावा किसी और मुद्दे पर कोई ध्यान नहीं दिया जाएगा. ये फैसला पास के 140 तहसील के प्रतिनिधियों की बैठक में लिया गया है, जिसमें तकरीबन 450 लोगों ने शिरकत की है.


बिना हार्दिक के हुई बैठक

8 अप्रैल को गुजरात के बोटाद में बैठक की गई थी, जिसमें 165 तहसील प्रतिनिधियों में से 140 ने हिस्सा लिया था. बैठक में पहली बार हार्दिक की फोटो पोस्टर से गायब दिखाई दी. पोस्टर में सरदार भगत सिंह, शिवाजी और पाटीदार समाज में पूजनीय मां उमा और मां खोड़ल की तस्वीर लगाई गई. ये भी कहा गया कि स्टेज पर बोलने की अनुमति किसी को नहीं दी जाएगी, जिसको बोलना हो वो नीचे से ही बोलेगा. इससे साफ हो गया है कि पाटीदार राजनीति के लिए अपने कंधों का इस्तेमाल नहीं होने देगा. लेकिन ये भी कहा गया है कि बीजेपी का विरोध जारी रहेगा. पास को लग रहा है कि सीधे कांग्रेस का समर्थन करने से आंदोलन भी कमज़ोर हुआ है. दूसरे आरक्षण की जो मूल मांग थी वो शायद कहीं दब गई है.

दिलीप साबवा दे रहे हैं हार्दिक को चुनौती

दिलीप साबवा पेशे से टीचर हैं लेकिन उनका कहना है कि वो खुद सरकारी नौकरी छोड़कर इस आंदोलन से जुड़े थे. लेकिन इस आंदोलन का फायदा कुछ लोग उठाने में कामयाब हो गए हैं. हार्दिक पटेल गुजरात में आरक्षण की मांग को लेकर अब गंभीर नजर नहीं आ रहे हैं, बल्कि पूरे देश में जाकर अपनी राजनीति चमकाने में लगे हुए हैं. पास की कोर कमेटी में भी हार्दिक के समर्थक कम बचे हैं.

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चुनाव से पहले रेशमा पटेल, दिनेश और वरुण ने बीजेपी का दामन थाम लिया था, तो किरीट पटेल और ललित वसोया कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े. बाकी बचे नीलेश यरवड़िया, मनोज पनारा और मुकेश पटेल अब दिलीप साबवा के साथ हैं. हार्दिक के साथ सिर्फ अल्पेश कठीरिया बचे हैं. वहीं पास के बारे में बताया गया है कि ये रजिस्टर्ड संस्था नहीं है. संस्था से जुड़े लोगों का कहना है कि कोर कमेटी की जरूरत होगी तो नई बना ली जाएगी. लेकिन फिलहाल फोकस पाटीदार समाज के आरक्षण का मुद्दा है.

क्यों हुआ था पास का गठन?

जुलाई, 2015 को पाटीदार अनामत आंदोलन समिति का गठन हुआ था, जिसका मकसद था पाटीदार समाज को पिछड़ा वर्ग का दर्जा दिलाना. इसके अलावा पाटीदार को आरक्षण का लाभ मिले. 25 अगस्त 2015 को सबसे बड़ा प्रदर्शन हुआ था, जिसमें हिंसा भड़कने से काफी जान-माल का नुकसान हुआ था. इस आंदोलन को सरदार पटेल सेवादल और खोदलधाम ट्रस्ट ने भी समर्थन किया था. इस आंदोलन का चेहरा बने हार्दिक पटेल, जो राज्य सरकार से लोहा लेते रहे. हार्दिक पटेल को जेल भी जाना पड़ा, जिसके बाद हार्दिक की पूछ पूरे देश में बढ़ गई. कई विवाद भी हुए, जिसमें सीडी भी उछाली गई लेकिन हार्दिक की इमेज पर कोई असर नहीं हुआ.

गुजरात चुनाव में कांग्रेस से बढ़ी नजदीकी

पास में हार्दिक के विरोधियों का दावा है कि अगर हम अपने मुद्दे लेकर चलते तो बीजेपी को हरा सकते थे. लेकिन हार्दिक पटेल की दोस्ती कांग्रेस से हो गई, जिससे बीजेपी को फायदा हो गया. हार्दिक पटेल चुनाव में कांग्रेस के साथ थे. उनके कई समर्थकों को कांग्रेस ने टिकट भी दिया लेकिन बीजेपी को हराने में कामयाबी नहीं मिल पाई. कांग्रेस के नेता राहुल गांधी से मिलने ना मिलने पर काफी विवाद भी हुआ था.

गुजरात में पाटीदार ताकतवर

गुजरात में पाटीदार बीजेपी के समर्थक रहे हैं. लेकिन पास के आंदोलन से स्थिति बदली और पाटीदार वोट में कांग्रेस ने सेंध लगा दिया. इस चुनाव में बीजेपी और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी. गुजरात में पाटीदार की संख्या 12.3 फीसदी है. लेकिन पाटीदार समाज काफी ताकतवर है. पाटीदारों के पास काफी जमीन-जायदाद है. इनका शुमार पैसे वाले लोगों में होता है. इनकी सामाजिक स्थिति भी अच्छी है. लेकिन हाल-फिलहाल में पाटीदार समाज को लग रहा है कि पढ़ाई और सरकारी नौकरी में उनकी संख्या कम हो रही है, जिसके बाद आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन शुरू हुआ है.

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गुजरात में ओबीसी आरक्षण

गुजरात में 27 फीसदी ओबीसी को आरक्षण पहले से मिला हुआ है. हालांकि राज्य में 1981 में ही तत्कालीन सीएम माधव सिंह सोलंकी ने बख्शी कमीशन की रिपोर्ट पर आरक्षण दिया था, जिसके बाद राज्य में हिंसा हुई. माधव सिंह सोलंकी को 1985 में इस्तीफा देना पड़ा. लेकिन बाद में हुए चुनाव में वो खाम (क्षत्रिय हरिजन आदिवासी मुस्लिम) के समीकरण से दोबारा चुनाव जीतने में कामयाब हो गए. माधव सिंह सोलंकी का एसईबीसी (सामाजिक और आर्थिक पिछड़ा वर्ग) ओबीसी बन गया जिसमें पहले 81 जातियां थी. बाद में 2014 में बढ़कर 146 हो गई हैं.

(सारी तस्वीरें हार्दिक पटेल के फेसबुक अकाउंट से साभार)