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यूपी चुनाव 2017: सच में केसरिया होने वाली है इस बार की होली?

2007 में बीएसपी को या 2012 में एसपी को वोट डाला हो लेकिन 2017 में ऐसे मतदाताओं की पहली पसंद बीजेपी है

Sanjay Singh

लखनऊ में हजरतगंज की एक पान की दुकान पर दो जन अपनी सुबह की गिलौरी मुंह में इत्मीनान से घुलाते हुए राजनीति की चर्चा कर रहे हैं. 'लगता है बीजेपी आगे जा रही है' दोनों में से एक ने कहा और अपने नजरिए से बात को बढ़ाने लगा.

चर्चा अभी चल ही रही थी कि एक ऑटो पान-दुकान के पास रुका. ड्राइवर गुटखा खरीदने के लिए हड़बड़ी में उतरा. दुकानदार ग्राहक की पसंद का गुटखा ढूंढ़ने में लग गया और इसी दरम्यान ड्राइवर के कानों में पान-दुकान पर चलती चर्चा के बोल पड़े.


उसने बिना वक्त गंवाये अपना फैसला सुना दिया, 'भैया ऐसा है कि बीजेपी जीत रहा है नहीं बल्कि बीजेपी जीत गई, आप मेरी बात गांठ बांध लो.'

वह जिस रफ्तार से आया था तकरीबन उसी रफ्तार से अगले कुछ पलों में रफूचक्कर हो गया. उसके पीछे रह गए पान, गुटखा और सिगरेट के साथ वहां अपने ख्यालों में गुम लोग और रह गई सोचने के लिए ड्राइवर के मुंह से निकली बात. बात किसी बीजेपी कार्यकर्ता के मुंह से नहीं बल्कि एक आम मतदाता की जबान से निकली थी, सो वह खास मायने रखती है.

11 मार्च का इंतजार नहीं

ड्राइवर के वाक्य में तकरीबन अंतिम फैसला सुनाने का सा भाव था. उसने अपनी बात पूरी दृढ़ता से कही थी और इसी कारण उसका कहा बहुत दिलचस्प बन गया था. ऑटोरिक्शे का ड्राइवर 11 मार्च के नतीजों के इंतजार में नहीं था. उस ड्राइवर और उस जैसे बहुत से लोगों से इन पंक्तियों के लेखक ने अपनी दो हफ्ते के सफर में बातचीत की.

सबका कहना था कि चुनाव के नतीजे तो साफ नजर आ रहे हैं. 11 मार्च यानी मतगणना के दिन बस यह पता चलना है कि किसको कितनी संख्या में वोट मिले.

सूबे के अलग-अलग हिस्सों में सफर के दौरान इन पंक्तियों के लेखक ने गांव, सड़क किनारे की छोटी चाय-पान की दुकान, चौपाल, नुक्कड़, कच्चे-पक्के घरों में रहने वाले लोग और अर्धशहरी इलाकों के बहुत से आम इंसानों से बात की.

समाज के हर जाति-वर्ग और उम्र के लोगों में जैसा उत्साह बीजेपी को लेकर है वैसा बीएसपी या एसपी के समर्थक लोगों में नहीं दिखता. लोगों में जैसा उत्साह बीएसपी के लिए 2007 में या एसपी के लिए 2012 में था तकरीबन वैसा ही इस बार बीजेपी के लिए दिख रहा है.

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दरअसल गाजियाबाद, मेरठ, बागपत, शामली, कैराना, कन्नौज, आजमगढ़, बनारस, जौनपुर, रायबरेली, सुल्तानपुर, अमेठी, इलाहाबाद, लखनऊ आदि में कई तबकों के वोटरों में बीजेपी के लिए कुछ वैसी ही चाहत दिख रही है जैसी की बदलाव की बहती बयार के बीच दिल्ली में या फिर लोकसभा के चुनावों के वक्त दिखी थी— साइकिल, हाथी और पंजा की जगह लोग फूलछाप(कमल) को तरजीह दे रहे हैं.

ऊंचाहार से आगे एक टूटी-फूटी सी चाय दुकान के सामने सीआरपीएफ का जवान खड़ा था. वह सादे लिबास में था लेकिन उसके हाव-भाव सैनिकों वाले थे. उसके साथ दो जन और थे. उनसे थोड़ी ही दूर पर एक टवेरा गाड़ी खड़ी थी जिसपर पुलिस का निशान लगा था.

पूरा दृश्य चाय दुकान पर खड़े लोगों के फौजी होने की चुगली कर रहा था. चाय दुकान पर खड़ा जवान यूपी के हरदोई जिले का था और अपनी ड्यूटी के सिलसिले में सफर पर था.

इस जवान ने कहा, 'यह अब हिन्दू-मुस्लिम वाला चुनाव बन गया है. मैं अपने परिवार, दोस्त और ड्यूटी के बाद के वक्त में लोगों से बात करता हूं तो यही लगता है कि बीजेपी भारी बहुमत से सत्ता में आने वाली है.' कुछ और कुरेदने पर उसने बताया कि मैं कुर्मी जाति का हूं. कुर्मी गैर-यादव ओबीसी वर्ग में है.

बीजेपी को इन मुद्दों से हुआ फायदा

गैर-यादव ओबीसी वर्ग पर बीजेपी ने जोर लगाया और यह तरकीब बीजेपी के फायदे में काम कर रही है.

कब्रिस्तान बनाम शमशान के मुहावरे पर चलकर बीजेपी लोगों में यह संदेश पहुंचाने में कामयाब रही कि अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी की सरकार ने सिर्फ यादवों और मुसलमानों का ख्याल रखा है—सभी पद, नियुक्तियां और मलाईदार पदों पर यादवों की बहाली हुई है और हर कल्याणकारी योजना मुसलमानों को लुभाने के लिए अमल में लायी गई है, यहां तक कि कांग्रेस के साथ गठबंधन भी इसी नीयत से किया गया है.

पिछली बार के चुनावों में गैर-यादव ओबीसी वोटर पूरे राज्य में बीएसपी या एसपी की तरफ खड़ा दिखायी देता था लेकिन इस बार ऐसा नहीं है. गैर-यादव ओबीसी वोटर इस बार खूंटा ठोंक अंदाज में बीजेपी के साथ है. इस वोटर को अपना राजनीतिक मुहावरा मिल गया है और उसे अपने जज्बात के इजहार में अब कोई संकोच नहीं है.

एक वक्त वह भी था जब यूपी चुनावों के पेशनजर मीडिया गैर-यादव ओबीसी वोटर के बारे में बात नहीं करती थी और एक वक्त आज है जब गैर-यादव ओबीसी वोटर ही कह रहा है कि मीडिया हमारी ताकत को पहचानने में चूक गया.

गधे-गधे की लड़ाई

ओम मवी और राकेश कश्यप यूपी के दो अलग-अलग जगहों लंभुआ और इलाहाबाद के गैर-यादव ओबीसी वर्ग से हैं. वे कहते हैं कि जनाब आप अखिलेश यादव के हाव-भाव परखिए, उनकी जबान से निकलते लफ्जों को समझने की कोशिश कीजिए कि वह क्या इशारे कर रहे हैं.

अखिलेश ने तीसरे चरण के चुनाव के बाद ‘गुजरात के गधे’ जैसे मुहावरे का प्रयोग किया था. अगड़ी जाति के रामाश्रय सिंह और सीताराम पांडे के भी ख्याल कुछ इसी से मिलते-जुलते हैं.

यूपी बड़ा राज्य है. यहां से 403 विधायक चुने जाने हैं और हार-जीत का दायरा कितना बड़ा या छोटा साबित होता है, इसका आकलन अभी शेष है लेकिन अभी से एक बात साफ हो गई है कि 11 मार्च के दिन अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी की सरकार को सूबे की जनता सत्ता के सिंहासन से बेदखल कर देगी. और गद्दी पर बीजेपी को बैठाएगी. और अगर, बीजेपी बहुमत का आंकड़ा छू लेती है तो फिर यह कहना मुश्किल होगा कि आगे उसकी जीत की रफ्तार कहां जाकर थमेगी.

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चार चरणों के चुनाव के सम्पन्न हो जाने के बाद साफ-साफ जान पड़ता है कि बीजेपी नंबर वन पार्टी बनकर रेस में काफी आगे निकल गई है, बीएसपी और एसपी के बीच मुकाबला नंबर दो के लिए रह गया है.

यूपी को किसका साथ पसंद है

यूपी के लोगों को अखिलेश यादव और राहुल गांधी की मौकापरस्त दोस्ती रास नहीं आ रही. इस गठबंधन का नारा 'यूपी को ये साथ पसंद है' और दूसरा प्रमुख नारा 'काम बोलता है' बनारस-आजमगढ़, बनारस-मिर्जापुर और बनारस-जौनपुर-सुल्तानपुर की गड्ढेदार और धूल से भरी सड़कों पर हांफ रहा है, यहां की धूल भरी फिजां में आप यह तक नहीं बता सकते कि पेड़ की पत्तियों का रंग हरा है या धूसर.

समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस को 103 सीटें दी और यह बीजेपी के लिए सहूलियत की बात साबित हुई. जमीन पर कांग्रेस कहीं दिखायी नहीं देती. सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी तो रायबरेली में भी नजर नहीं आये और लोग इस बात पर अपनी जबान चलाते रहे.

कांग्रेस की रिटायर्ड मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कह दिया कि 'राहुल अभी चालीस साल की उम्र में पहुंचे हैं सो उनकी समझ को पकने में अभी समय लगेगा.' इस बयान से हालत और पतली हुई.

कुछ विश्लेषक यह मान बैठे हैं कि बीएसपी इन चुनावों में एक बुझता हुआ चिराग है और रेस में वह तीसरे नंबर पर रहेगी. ऐसे विश्लेषकों को चुनाव के नतीजे हैरान करेंगे. कुछ इलाकों में बीएसपी के उम्मीदवार कड़ी टक्कर दे रहे हैं और उन्हें मुस्लिम मतदाताओं के भी वोट मिले हैं.

मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि मुसलमान मतदाता सपा-कांग्रेस गठबंधन की तरफ है क्योंकि वह सिर्फ 2017 की ही बात नहीं सोच रहा बल्कि 2019 के चुनावों में मोदी की ताकत को टक्कर देने की बात भी उसके मन में है. फिर भी, कुछ एक विधानसभा क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाता पसोपेश में है.

उसे समझ नहीं आ रहा कि आखिर बीजेपी को हराने की स्थिति में बीएसपी है या एसपी. याद रहे कि मायावती ने 100 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं और मुस्लिम मतदाता के मन में रत्ती भर संदेह पैदा होता है तो यह बीजेपी के लिए फायदे की स्थिति होगी.

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ठीक इसी वजह से अमित शाह का शुरुआत से ही जोर रहा कि बीजेपी का मुख्य मुकाबला समाजवाजी पार्टी से है न कि बहुजन समाज पार्टी से. साथ ही बीजेपी ने स्वामी प्रसाद मौर्य सरीखे बीएसपी के कद्दावर नेता को अपने पाले में खींच लिया.

अमित शाह की टेक पहले चरण के चुनाव की समाप्ति के बाद बदली. उन्होंने शायद मतदाताओं के मन में शंका पैदा करने के गरज से कहा कि शुरुआती दो चरण के चुनाव में मुख्य मुकाबला बीजेपी और बीएसपी के बीच है.

अगड़ी जाति का वोटर तकरीबन पूरा का पूरा बीजेपी के साथ है. संभव है ब्राह्मण और राजपूत जाति के कुछ मतदाताओं ने 2007 में बीएसपी को या 2012 में एसपी को वोट डाला हो लेकिन 2017 में ऐसे मतदाताओं की पहली पसंद बीजेपी है.इसमें अब कोई शुब्हा नहीं

मोदी का युवा कनेक्शन

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने युवाओं की आशा और उम्मीद में लगातार जोश जगाए रखा है. कन्नौज की उनकी रैली में आये एक नौजवान ने फर्स्टपोस्ट को बताया कि हमने 2014 में मोदी को वोट डाला था और 2017 में भी हमारा वोट मोदी को पड़ेगा.

हरदोई की रैली में शामिल नौजवान ने भी यही कहा. इलाहाबाद के नौजवान किशोर का कहना है कि 'पिछली दफे वे यहां बीजेपी के पीएम प्रत्याशी के तौर पर आये थे लेकिन इस बार वे प्रधानमंत्री के रुप में आये हैं. इससे बहुत फर्क पड़ता है. वे ईमानदार और मेहनती हैं. मुझे उनपर यकीन है. यूपी को बदलने के लिए उन्हें यूपी से समर्थन की जरुरत है.'

महाराष्ट्र के नगर निकाय और जिला-परिषद के चुनाव के नतीजों ने बीजेपी के कार्यकर्ताओं और नेताओं के मनोबल को बढ़ाने का काम किया है. प्रधानमंत्री मोदी का यह कहना शायद सही है कि ‘यूपी में होली का रंग केसरिया होगा ’.