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यूपी चुनाव: अखिलेश के कांग्रेस गठबंधन से कई समाजवादी नाखुश

अखिलेश के समर्थकों को अखिलेश यादव-राहुल गांधी और डिंपल यादव-प्रियंका गांधी के करिश्मे पर यकीन है.

Sanjay Singh

बात 1989 की है. जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह ने कांग्रेस की सियासी बत्ती गुल कर दी थी. तब मुलायम सिंह ने कांग्रेस को उस सूबे से उखाड़ फेंका था, जिसे नेहरू-गांधी परिवार ने राष्ट्रीय राजनीति में रहते हुए सियासी तौर पर सींचा था.

इतना ही नहीं, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की धमाकेदार जीत के साथ साथ कांशीराम-मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी का सियासी कद भी बढ़ने लगा था. मतलब साफ था कि हिंदी पट्टी के सियासी रूप से सबसे अहम सूबे में कांग्रेस तेजी से अपनी राजनीतिक जमीन खो रही थी.


सपा ने किया था कांग्रेस को किनारे

80 के दशक के बाद की मंडल-कमंडल की राजनीति ने उत्तर भारत के सियासी मिजाज को पूरी तरह बदल कर रख दिया. खास कर यूपी की राजनीति में कई बदलाव आए. कांग्रेस के पारंपरिक वोट बैंक बंट गए. कांग्रेस को पारंपरिक रूप से समर्थन देने वाले मुस्लिम, दलित और ब्राह्मण मतदाताओं के सामने नए सियासी विकल्प भी उभर कर सामने आए.

अगर मुस्लिमों के लिए मुलायम सिंह यादव बतौर नए संरक्षक उभर कर सामने आए तो दलितों को कांशीराम-मायावती के नेतृत्व में भरोसा जगा. और ब्राह्मण मतदाता बीजेपी के साथ हो लिए. कांग्रेस इस नए सियासी समीकरण में तालमेल बिठाने में नाकाम रही लिहाजा सूबे में पार्टी हाशिये पर चली गई.

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हालांकि, 27 साल बाद समाजवादी पार्टी में भी एक बदलाव देखा जा रहा है. अखिलेश ने अब अपने पिता को पार्टी में हाशिये पर डालकर मुलायम युग का लगभग अंत कर दिया है. उन्होंने कांग्रेस के साथ अहम सियासी गठजोड़ किया है. लेकिन कांग्रेस की सियासी हैसियत से कहीं ज्यादा अखिलेश ने पार्टी को 105 सीटें दे दी है.

ऐसा कर अखिलेश ने जहां पिता मुलायम सिंह की कांग्रेस को सूबे में हाशिये पर रखने की सियासी रणनीति के उलट काम किया है, वहीं सूबे के सियासी अखाड़े में पहले से चित्त पड़ी कांग्रेस को संजीवनी देने का भी काम किया है. क्योंकि अपने बूते पर कांग्रेस अगर चुनाव लड़ी होती तो उसका क्या हश्र होता ये बात किसी से छिपी नहीं है.

गठबंधन में कांग्रेस का हाथ मजबूत

ऐसे में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर कांग्रेस भले पिछलग्गू कहलाए, लेकिन इससे एक बात तो तय है कि उत्तर प्रदेश के बाहर और अंदर कांग्रेस की चर्चा होने लगेगी. जो पहले नदारद थी.

तय है कि इस गठबंधन से कांग्रेस को तो फायदा होगा. लेकिन अभी ये बता पाना मुश्किल है कि इस गठजोड़ का सियासी लाभ समाजवादी पार्टी को कितना मिलेगा. संगठन से जुड़े पदाधिकारी इस गठजोड़ से खुश नहीं हैं. खास कर उन सीटों के लिए जिन्हें समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के लिए छोड़ा है.

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पार्टी के एक नेता के मुताबिक, ‘गठबंधन कर अखिलेश ने कई जिलों में पार्टी को खत्म कर दिया क्योंकि जिन 105 सीटों को पार्टी ने कांग्रेस को दिया है. वहां अब समाजवादी पार्टी कार्यकर्ताओं से ये उम्मीद की जाएगी कि वे कांग्रेस के लिए काम करें. जबकि पार्टी कार्यकर्ताओं ने जीवनभर कांग्रेस के खिलाफ लड़ाई लड़ी है. मुलायम सिंह यादव ने सूबे में कांग्रेस को पटखनी दी और कभी सिर उठाने का मौका नहीं दिया. लेकिन अखिलेश ने ठीक इसके उलट किया है. यहां तक कि कांग्रेस की सियासी हैसियत के उलट उन्हें सीटें दी गई है. ऐसे में ये समझ पाना कठिन है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया.’

अखिलेश ने नहीं लिए पुराने सबक!

समाजवादी नेताओं के आक्रोश के पीछे जो सियासी तस्वीर है, वह 1996 में उभरी थी. जब बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन की हामी भरी थी. तब उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड अलग नहीं हुआ था.

बीएसपी ने राज्य की 296 सीटों पर चुनाव लड़ा था तो कांग्रेस 126 सीटों पर मैदान में उतरी थी. चुनावी नतीजे जब सामने आए तो कांग्रेस 20.13 फीसदी वोट के साथ महज 33 सीटों पर विजयी रही. जबकि बीएसपी के समर्थन में 27.73 फीसदी वोट पड़े. लेकिन पार्टी महज 67 सीटों पर ही जीत दर्ज कर सकी. इस चुनावी शिकस्त के बाद फिर से मायावती ने कभी कांग्रेस के साथ सियासी गठबंधन करने का जोखिम नहीं उठाया. यहां तक कि 2017 के चुनाव में भी मायावती ने कांग्रेस की तरफ से गठबंधन की कोशिशों को एक सिरे से नजरअंदाज कर दिया.

दरअसल, बीएसपी प्रमुख समेत कई नेताओं का मानना है कि बीएसपी काडर ने तब कांग्रेस के समर्थन में वोट तो डाला था. लेकिन तब कांग्रेस अपने मतदाताओं का समर्थन बीएसपी को दिलवा पाने में सफल नहीं रही थी.

मुस्लिम वोटों पर होगा गठबंधन का असर

इसके अलावा इस गठबंधन से निराश कुछ समाजवादियों का ये भी तर्क है कि राम मंदिर आंदोलन और बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुस्लिम मतदाताओं ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया था. तब मुस्लिम मतदाता मुलायम सिंह के समर्थन में मजबूती से खड़े हुए क्योंकि नेताजी ने उनके हितों की रक्षा करने की बात की थी. लेकिन अब परिस्थिति इसके ठीक उलट है. समाजवादी पार्टी आज उनके साथ गलबहियां कर रही है जो बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए जिम्मेदार है.

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इसी प्रकार पूर्वी उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के बीच बाटला हाउस एनकांटर एक भावनात्मक सियासी मुद्दा है. बाटला हाउस एनकांटर दिल्ली में सितंबर 2008 में हुआ था. तब केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार थी. और तब दिल्ली पुलिस केंद्रीय गृह मंत्रालय को ही रिपोर्ट किया करता था. इस घटना में इंडियन मुजाहिदीन के दो आतंकी मारे गए थे. जबकि दो की गिरफ्तारी हुई थी. इनका ताल्लुक आजमगढ़ से बताया गया था.

गौरतलब है कि 2002 के विधानसभा चुनाव से पहले आजमगढ़ के शिबली कॉलेज में राहुल गांधी की खूब किरकिरी हुई थी. ऐसे में अगर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन की कथित सेक्युलर अपील मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने में नाकामयाब रहती है तो इसका सियासी फायदा बहुजन समाज पार्टी को पहुंच सकता है.

राहुल-अखिलेश के करिश्मे पर भरोसा!

इसमें दो राय नहीं कि अखिलेश ने ऐसे वक्त में राहुल गांधी का हाथ थामा है, जब कांग्रेस पार्टी सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. साल 2013 के शुरुआती छह महीनों के बाद से ही कांग्रेस को अमूमन हर विधानसभा, लोकसभा यहां तक कि नगर पालिका के चुनावों में शर्मनाक हार का सामना करना पड़ रहा है. बावजूद इसके कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर सम्मानजनक डील करने में सफलता हासिल की है. क्योंकि पार्टी 100 से ज्यादा सीटों पर अपनी दावेदारी ठोंक रही है.

इसके अलावा भ्रष्टाचार के कलंक से कांग्रेस अभी भी पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकी है. सवाल उठता है कि क्या इससे अखिलेश के सियासी भविष्य पर कोई असर पड़ेगा? उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के पांच साल की सरकार के दौरान कई ऐसे मौके आए जब सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे. लेकिन अब अखिेलेश अपनी छवि चमकाने में लगे हुए हैं.

बहुजन समाज पार्टी कांग्रेस के कोलगेट और तुलसी प्रजापति (अखिलेश सरकार में मंत्री थे) से जुड़े खनन घोटाले को समाजवादी पार्टी के खिलाफ मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने जा रही है. ये भी तय है कि बीजेपी भी सरकार को इन मुद्दों पर घेरने की तैयारी कर रही है.

हालांकि अखिलेश के समर्थकों को सूबे की वास्तविक सियासी माहौल से ज्यादा अखिलेश यादव-राहुल गांधी के साथ-साथ डिंपल यादव-प्रियंका गांधी वाडरा की करिश्माई छवि पर यकीन है. उन्हें लगता है कि इसका असर मतदाताओं पर यकीनन होगा.