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यूपी चुनाव 2017: चुनावी राजनीति का 'सत्यम...शिवम्...सुन्दरम' हमेशा परोपकारी नहीं होता

सत्य अक्सर सापेक्ष होता है. हम सब का अपना अपना सच होता है. निर्भर करता है हम कहां खड़े हैं.

Alok Kumar Rai

चुनावी मौसम में उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में चाय पर चुनावी चर्चा एक सामान्य गतिविधि है. ऐसी ही एक घटना का साक्षी मैं भी बना जब एक मोदी समर्थक और मोदी विरोधी पत्रकार और प्रोफेसर को बहस करते देखा.

ये दोनों ही व्यक्ति न सिर्फ राजनीतिक रूप से जागरूक बल्कि जानकार भी दिख रहे थे.


मैंने पत्रकार महोदय से पूछा, 'आप सालों से मजीठिया आयोग की सिफारिशों को लागू करने की मांग कर रहे हैं, यदि मोदी सरकार इसे लागू करवा दे तो क्या आप बीजेपी को वोट देंगे?

उन्होंने कहा 'नहीं'. फिर मैंने प्रोफेसर साहब से पूछा, 'आपकी नौकरी कांग्रेस शासनकाल में लगी, आपका प्रमोशन कांग्रेस शासनकाल में हुआ, आपको अत्याधिक लाभकारी छठां वेतन आयोग कांग्रेस शासन में मिला जिसने वेतन व प्रमोशन दोनों में आपको भारी लाभ पहुंचाया, क्या आपने कभी कांग्रेस को वोट दिया?' उन्होंने भी कहा 'नहीं'. उनके दोनों जवाबों से एक स्वाभाविक निष्कर्ष यह निकाला जा सकता है कि मतदाता के मतदान का मंतव्य तर्कसंगत मानकों पर ही आधारित हो ऐसा हमेशा होता नहीं है.

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बीएसपी यानि बिजली...सड़क और पानी कि आकांक्षा भारतीय राजनीति में सुधिजनों द्वारा चुनावी विजय का सर्वाधिक तर्कसंगत कारक मानी जाती रही. लेकिन, बिहार में लालू-राबड़ी का 15 वर्षों का शासन हो या पश्चिम बंगाल में पहले वाम दलों का 35 वर्षों का निर्बाध चुनावी चयन और अब ममता बनर्जी की शासन में दोबारा वापसी, यह इस सर्वाधिक स्वीकार्य तर्कसंगत कारक के चुनावी विजय में अप्रासंगिक होने कि ओर इशारा करता है.

चुनावी निष्कर्ष

इसी सन्दर्भ में यह निष्कर्ष निकालना कि 2009 के लोकसभा का चुनाव कांग्रेस मनरेगा या किसान कर्ज माफ़ी से जीत गयी. 2012 के चुनाव में उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने मुफ्त लैपटॉप के लिए समाजवादी पार्टी को वोट दिया.

2014 के लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने काला धन से मिलने वाले 15 लाख के लिए मोदी सरकार को चुना, 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में मुफ्त बिजली पानी के लिए और बिहार विधानसभा चुनाव में मुफ्त साइकिल के लिए वोट दिया, यह मतदान के स्वार्थपरक व लाभ केंद्रित होने का अत्यधिक सरलीकरण और सुविधाजनक विश्लेषण है.

यदि कारक स्वार्थ मात्र ही होते तो बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार कि मुफ्त साइकिल के मुकाबले भाजपा कि स्कूटी कि रफ़्तार ज्यादा तेज़ होती, पंजाब में लगभग मुफ्त की किसानी कर रहा किसान, मोदी लहर के बावजूद, बादल परिवार की राजनीती को ग्रहण न लगाता.

ओडिशा में नवीन पटनायक लगातार चौथी बार बिना किसी विशेष ब्रांडेड मुफ्त युक्त योजना के सरकार न बनाते और तमिलनाडु में मुफ्त योजना में बराबरी का मुकाबला कर रही करूणानिधि कि द्रविड़ मुनेत्र कणगम स्वर्गीय जयललिता को दो लगातार चुनावी विजय का कीर्तिमान स्थापित न करने देती.

चुनाव आयोग के हालिया आंकणों के अनुसार उत्तरप्रदेश में औसतन एक विधायक 3,43,714 मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि पंजाब में वह 1,64,224 उत्तराखंड में 1,05,442 मणिपुर में 30,130 और गोवा में मात्र 27,131 मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं.70% औसत मतदान की स्थिति में उत्तर प्रदेश में एक प्रत्याशी को 2,40.600 मतदाताओं के मध्य समर्थन प्राप्त करना होता है, वहीं पंजाब में यह संख्या 1,14.957 उत्तराखंड में 73, 809, मणिपुर में 21,091 और गोवा में 18,992 हो जाती हैं.

यदि चुनाव जीतने के लिए 30%- 45% मत की आवश्यकता हो तो उत्तर प्रदेश में औसतन एक निर्वाचित विधायक को 72,180 से 1,08,270 मतों की  दरकार है जबकि पंजाब में यह संख्या 34,487 से 51,730, उत्तराखंड में 22,143 से 33,214, मणिपुर में 6,327 से 9,491 और गोवा में 8,139 से 12, 209 मतों की आवश्यकता है.

निजी संबंध और निजी हित

इसलिए उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में चुनाव लड़ने वाला प्रत्याशी निश्चय ही इतने व्यापक मतदाता समूह से निजी सम्बन्ध का निर्माण तथा मतदाताओं के निजी हितों का संवर्धन नहीं कर सकता है.

इसलिए स्वार्थपरक स्वाभाविक प्रासंगिकता वाले मतदान के कारकों का अप्रासंगिक होना जरूरी है. संभव हो इन्हीं वजहों से जनता से व्यापक और आसान जुड़ाव स्थापित करने वाले कारकों ने अपना स्थान और प्रासंगिकता स्थापित की.

उत्तर प्रदेश, बिहार की राजनीति में जाति, उत्तर-पूर्व की राजनीति में धर्म और पहचान, तमिलनाडु की राजनीति में भाषा, आंध्र-प्रदेश की राजनीति में क्षेत्र जैसे मानकों ने चुनाव परिणामों को व्यापक रूप से प्रभावित किया. क्योंकि, इनके मायने निजी स्वार्थसाधक कम और भावनात्मक ज्यादा थे. भारतीय राजनीति में दिल-दिमाग पर विजयी होता रहा.

मुफ्त-युक्त लोक-लुभावन योजनायें, जिन्हें मतदान के लिए स्वार्थपरक कारक भी माना जाता रहा है, दरअसल स्वयं में कारक न होकर राजनीतिक दल की नीति, नीयत और नेतृत्व को परिभाषित करने का मानक बनते रहे हैं.

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राजनीति में 'चेहरों' का उभार भी इसी विधा का क्रमवार विस्तार रहा. विकास का विचार और व्यवहार व्यापक चर्चा का विषय न होकर विषयों को समाहित और संप्रेषित कर सकने वाले चेहरे में निहित हो जन-मन तक पहुंचा और उनका हो लिया.

मुफ्त-युक्त योजनाएं

जनता जनार्दन द्वारा उस चेहरे कि स्वीकृति मुफ्त-युक्त योजनाओं की न होकर उस छवि की रही जो उसकी अपेक्षा के खांचे में वैसी फिट बैठी जैसी आकांक्षा मतदाता की रही.

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से संतुष्टि, 'अपेक्षा की पूर्ती के मूल्यांकन' की अवस्था है. लेकिन चूंकि अपेक्षा का मानकीकरण संभव नहीं है अतः राजनीति में नेता जनता की निजी अपेक्षाओं की अनुरूपता से बने न कि उनकी स्वार्थपरता से.

इस निर्णय में, 'बिजली देगा कि नहीं, पानी पहुंचवाएगा कि नहीं, सड़क बनवायेगा या नहीं, अस्पताल में डॉक्टर और स्कूल में मास्टर उपलब्ध करवाएगा कि नहीं', से ज्यादा उस नायक रूप का योगदान है जो 'वैसा है जैसा हम चाहते हैं.'

अतः राजनीतिक समर्थन क्रमशः विषय-केन्द्रित से व्यक्ति-केन्द्रित होता गया. जिससे पंथ राजनीति का उदय हुआ और नेता ने मसीहा का रूप ले लिया.

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इस जुड़ाव का कारण तर्क आधारित कम और भावना आधारित ज्यादा रहा. भारी बहुमत से जीते नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार ने जब नोटबंदी और नशाबंदी लागू की तब तात्कालिक असुविधा और निर्णय से अरूचि के बाद भी उसी जनता ने निर्णय का समर्थन किया.

चुनावी राजनीती में,  'सत्यम, शिवम्, सुन्दरम' यानि जो सत्य है वो राजनीतिक रूप से श्रेष्ठ हो, और जो श्रेष्ठ है वो राजनीतिक रूप से कल्याणकारी हो ऐसा हमेशा होता नहीं है.

क्योंकि, सत्य अक्सर सापेक्ष होता है. हम सब का अपना अपना सच होता है. निर्भर करता है हम कहां खड़े हैं.