चाय के ठेलों से लेकर पार्टियों के वॉर रूम तक चुनाव की पहेली लोग अक्सर परंपरागत सोच की चौहद्दी में रहकर सुलझाते हैं. ये तरीका बहुत गलत भी नहीं साबित हुआ है. लेकिन 2017 के यूपी चुनाव पर एक सरसरी नजर भी डालें तो इसमें कोई शुब्हा नहीं रह जाता कि लोकतंत्र के पेड़ के पुराने पत्ते झड़ रहे हैं.
कैसे? क्यों?
दरअसल सोच की बंधी-बंधायी लीक पर चलें तो यही लगेगा कि जो पार्टी महज ढाई साल पहले लोकसभा चुनावों में ताबड़तोड़ जनादेश लाई हो वो फिर ऐसा करेगी. तर्क के चश्मे से देखें तो सूबे में वोटर की सबसे पहली पसंद बीजेपी को होना चाहिए. लेकिन मामला ऐसा है नहीं.
लोकसभा चुनावों से अलग हो सकते हैं यूपी विधानसभा के रुझान
लोकसभा चुनावों का गणित सूबे की विधानसभा के लिए हो रहे चुनाव से बिल्कुल अलग होता है. 2014 के चुनावों में लोग तत्कालीन सरकार से एकदम उकता चुके थे. उन्हें लग रहा था कि इस सरकार की बागडोर अबतक के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री के हाथ में है.
दुखी वोटर नरेंद्र मोदी की तरफ बड़ी उम्मीद लगाकर तक रहा था.लोगों ने जाति के बंधन को तोड़ा और नरेंद्र मोदी को टूट कर वोट डाला.
पर विधानसभा चुनाव मुकामी मुद्दों पर लड़े जाते हैं और इन चुनावों में जातियों की गोलबंदी बड़ी निर्णायक भूमिका निभाती है. ऐसे में बीजेपी बड़े फंदे में फंसी जान पड़ती है क्योंकि पार्टी का मूल कैडर तो बस बनिया जाति का है.
माना यही जाता है कि बीजेपी को अगड़ी जाति के मतदाताओं का समर्थन हासिल होता है लेकिन यह सोच कुछ भ्रामक है क्योंकि अगड़ी जातियां हिंदुत्ववादी ताकतों की परंपरागत जमीन नहीं है.
यह भी पढ़ें: मेरठ में और भी गम हैं हिंदू-मुस्लिम वोट के सिवा
दरअसल, देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की छवि जबसे धूमिल हुई है तबसे अगड़ी जातियों का समर्थन उससे दूर छिटका है. लेकिन चुनने का विकल्प मौजूद हो तो अगड़ी जाति का वोटर अपनी पहली पसंद के तौर पर बीजेपी को नहीं चुनेगा.
भाजपा का वोटर जो गया उससे ज्यादा आया
लोकसभा चुनावों के बाद के वक्त में बीजेपी ने अपनी इस दुविधा से पार पाते हुए गैर-यादव ओबीसी वोटर को हिंदुत्व के खेमे में खींचने में कामयाबी हासिल की है.
1991 के बाद से ऐसा पहली बार होता दिख रहा है कि यूपी के इस चुनाव में गैर-यादव ओबीसी वोटर बीजेपी की तरफ अप्रत्याशित ढंग से लामबंद है. लेकिन गैर-यादव ओबीसी वोटर का बीजेपी की तरफ आना कोई रातों-रात की घटना नहीं है.
बीते तीन सालों से बीजेपी के रणनीतिकार गैर-यादव ओबीसी जातियों पर लगातार नजर टिकाए हुए थे और राजनीतिक हिस्सेदारी के वादे के साथ इन्हें अपने खेमे में खींचने में कामयाबी हासिल की है.
बीजेपी की नैया गैर यादव ओबीसी वोटर के सहारे
गैर-यादव ओबीसी जातियों के वोटर की तादाद सूबे में तकरीबन 35 फीसद है और बीजेपी ने 130 सीटों पर इसी समूह के उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं. अगर अंकों के जोड़-जमा के दायरे से देखें तो बीजेपी के पास समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी की तुलना में गैर-यादव ओबीसी जातियों को देने के लिए कई ज्यादा जगह है.
समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की आपसी होड़ इस बात को लेकर है कि कौन मुस्लिम मतदाताओं को अपने खेमे में खींच लाता है. समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस की चुनावी सियासत मुस्लिम मतदाताओं को अपने पाले में खींचने की होड़ के कारण सीमित है जबकि बीजेपी के आगे ऐसी कोई बाधा नहीं है.
पढ़े: घटना जिसने अलग कर दी एसपी बीएसपी की राहें हमेशा के लिए
दरअसल बीजेपी की सबसे बड़ी कामयाबी तो यह है कि उसने गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव अनुसूचित जनजाति के वोटरों को अपने पाले में खींच लिया है.
नोटबंदी के बाद बीजेपी का बनिया जाति का अपना वोट-बैंक खेमे से खिसक गया है. लेकिन समर्थन के इस सामाजिक आधार में हुए बदलाव से बीजेपी के नुकसान की भरपाई ही नहीं हुई बल्कि उसे कुछ ज्यादा हासिल हुआ है. साथ ही, बीजेपी ने अपने सामाजिक आधार का सूबे में भारी विस्तार किया है. आगे के वक्त के लिए बीजेपी को अपने समर्थन की एक ठोस जमीन हासिल हो गई है.
जहां तक यूपी के मुसलमान वोटर की बात है, सोच की पुरानी लकीर इस मोर्चे पर भी साथ देती नहीं जान पड़ती. मिसाल के तौर पर, सूबे में ज्यादातर जगहों पर यह बात देखी जा सकती है कि मुस्लिम मतदाता आपस में जाति के आधार पर बंटा हुआ है.
सपा की जगह बसपा की तरफ है मुस्लिमों का झुकाव
माना तो यह जा रहा है कि मुस्लिम वोटर बीजेपी को हराने के लिए एकतरफा वोटिंग करेंगे लेकिन बीएसपी के दबदबे वाले पश्चिमी यूपी और पूर्वी यूपी में यह ख्याल जमीन पर उतरता नहीं दिखायी देता.
यूपी के पूर्वी हिस्से में गाजीपुर, आजमगढ़, मऊ और इलाहाबाद में मुख्तार अंसारी और अतिक अहमद के असर के कारण मुस्लिम मतदाता समाजवादी पार्टी की जगह बहुजन समाज पार्टी की ओर खिंच रहे हैं.
यह भी पढ़ें: बंटा हिंदू-मुस्लिम क्यों बीजेपी-एसपी के लिए फायदेमंद नहीं
कुछेक इलाकों में महिला-वोटर का सवाल भी असर डालता दिख रहा है. मुस्लिम महिलाओं में इस बार वोट डालने के मामले में पहले जैसा उत्साह नहीं दिख रहा.
सोचने पर यही लगता है कि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन ने बीजेपी के समर्थक ओबीसी और अगड़ी जाति के वोट की काट में जबर्दस्त चुनौती पेश की है.
सोच की इसी बंधी-बंधायी लकीर पर चलने के कारण मीडिया के कुछ हिस्से में इस अटकल को हवा दी जा रही है कि अखिलेश-राहुल की जोड़ी चुनाव जीतने जा रही है. लेकिन यहां याद रहे कि 2017 का यूपी का चुनाव सबसे अनूठे चुनावों में एक है और इस चुनाव में एक अलग सोच के चलते अनुमान नहीं लगाये जा सकते.