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यूपी चुनाव 2017: प्रियंका गांधी से जुड़े शहरी मिथक को चकनाचूर करते हैं चुनाव नतीजे

प्रियंका को लेकर जो शहरी मिथक अब तक गढ़ा गया है वो यहीं आकर हमेशा के लिए खत्म हो जाता है

Sreemoy Talukdar

भारतीय सियासत के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण राज्य में कांग्रेस दयनीय हालत में पहुंच चुकी है. उत्तरप्रदेश में सीट और प्रदर्शन के लिहाज से कांग्रेस का प्रदर्शन सबसे लचर रहा है.

ऐसे समय में प्रियंका गांधी को लेकर सबसे बड़ा मिथक जिसका अफसाना मीडिया मशीनरी ने गढ़ा है, उसे तोड़ने का अब वक्त आ गया है.


एक के बाद एक चुनावों में इतिहास के पन्नों में सिमटती पार्टी और ब्रांड राहुल की लगातार गिरती साख की समस्या से जूझती कांग्रेस अक्सर याद दिलाती है कि पार्टी के पास एक ब्रह्मास्त्र है.

लेकिन ये आज तक पता नहीं चल पाया है कि इस ब्रह्मास्त्र की सेवा आज तक क्यों नहीं ली गई है. जबकि हालत ये है कि पूरे देश से पार्टी का नामोनिशान मिटने के कगार पर है.

बावजूद इस सच्चाई के हर चुनाव से पहले अखबारों में छपे लेखों और टीवी स्टूडियो में कराई जाने वाली चर्चाओं के जरिए हमें ये बार-बार याद दिलाया जाता है कि प्रियंका गांधी सोने से बनी रथ में सवार होकर आएंगी और सभी राक्षसों का अंत कर देंगी.

इसमें नोटबंदी के सबसे बड़े खलनायक और उसे पैदा करने वाले नरेंद्र दामोदरदास मोदी का भी नाम शामिल है.

ये बात कोई मायने नहीं रखती कि राहुल गांधी की बहन को सिवाय अमेठी और रायबेरली के पारिवारिक सियासी माहौल के बीच चुनाव प्रचार करने के अलावा किसी प्रकार का कोई चुनावी अनुभव नहीं है.

बावजूद इतिहास के उदाहरणों और हर तर्क के जरिए ये बताने की कोशिश होती रही है कि प्रियंका अपनी दादी की तरह ही जब भी साड़ी पहनकर जनता की ओर हाथ हिलाएंगी कांग्रेसी की डूबती नैया पार लग जाएगी.

रायबरेली में चुनाव प्रचार के दौरान प्रियंका और राहुल

महज किस्से

लेकिन इस तरह की कहानियों के लिए भरोसा होना जरूरी है और जब बात कांग्रेस की आती है तो मीडिया के पास ऐसी किस्सागोई की कमी नहीं है. लेकिन हैरानी तो तब होती है कि जब यही मीडिया पार्टी की योजनाओं पर सवाल नहीं उठाता और प्रियंका की छवि को एक मिथक के तौर पर गढ़ने की कोशिश करता है.

जैसे ही यूपी में चुनाव नजदीक आ रहे थे तब भी अखबारों में जमीनी कार्यकर्ताओं की तरफ से प्रियंका को नेतृत्व सौंपने की मांग के बारे में लगातार लिखा जाने लगा था.

लेकिन जो बात समझ से परे है वो ये कि आखिर ये रहस्यमयी जमीनी कार्यकर्ता हैं कौन? खासकर तब जबकि यूपी में कांग्रेस का संगठन बिल्कुल अस्तित्व में है ही नहीं.

यहां तक कि प्रियंका को बेहतर चुनावी रणनीतिकार के तौर पर पार्टी के साथ जुड़ने की मांग होने लगी, जबकि सच्चाई यही थी कि यूपी में राहुल गांधी की खाट सभा में पार्टी की खाट खड़ी होती नजर आने लगी थी.

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बावजूद इसके कहा गया कि प्रियंका गांधी और कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के पास ऐसी योजना है कि वो यूपी में कांग्रेस के 27 साल के सियासी सूखे को खत्म कर देंगे. ऐसा लग रहा था जैसे कि प्रियंका सियासी अखाड़े में कूदेंगी और अपने भाई समेत पार्टी की डूबती कश्ती को बचा लेंगी.

हालांकि, प्रशांत किशोर इस बात को बेहतर समझते हैं कि कांग्रेस में समस्या उपाध्यक्ष के पद से ही शुरू होती है. इसी वजह से उन्होंने यूपी में प्रियंका को केंद्र में रखकर चुनाव प्रचार करने की योजना बनाई थी.

अगर वाकई में प्रियंका ब्रह्मास्त्र होतीं, जैसा कि पार्टी के कुछ दिग्गज और कई पत्रकार बताने में जुटे रहते हैं तब प्रियंका ने इस चुनौती को स्वीकार किया होता और पार्टी का आगे बढ़कर नेतृत्व कर रही होतीं.

प्रियंका गांधी के लिए यह इस सवाल का जवाब पाने का बेहतर मौका होता कि वह चुनाव में महज अपनी दादी इंदिरा गांधी की तरह हावभाव के दम पर मतदाता के मन में कोई भरोसा जगा पाती हैं या नहीं.

प्रियंका को राहुल से बेहतर रणनीतिकार माना जाता है

लेकिन, इसमें कोई हैरानी नहीं है कि प्रियंका गांधी ने ऐसी चुनौती को स्वीकार नहीं किया. पार्टी के अंदर चमचाबाजों ने इसकी भरपूर कोशिश की लेकिन प्रियंका अपने से जुड़ी मिथक की सच्चाई को बेहतर जानती हैं.

लिहाजा, उन्होंने नेपथ्य में अपनी भूमिका सुनिश्चित की और समाजवादी पार्टी के साथ सीटों के तालमेल को कामयाब बनाया. समाजवादी पार्टी के अंदर शक्ति संतुलन के बदलने और शुरुआती झटकों के बाद कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच गठबंधन हो पाया.

इस गठबंधन को कामयाब बनाने और कांग्रेस के लिए 100 सीटों पर उम्मीदवार उतरवाने का पूरा श्रेय प्रियंका गांधी को दिया गया. दोनों खेमों की तमाम पैंतरेबाजी के बीच ये गठबंधन अनोखा था.

अस्तित्व की लड़ाई

कांग्रेस एक तरफ जहां अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी तो समाजवादी पार्टी को मुस्लिम वोट को अपने पाले से खिसकने से बचाना था. इस बेमेल जोड़े के सियासी रिश्ते को सियासी मास्टरस्ट्रोक कहा गया तो इसका पूरा श्रेय प्रियंका गांधी को दिया गया. रणनीति के लिहाज से इसे शानदार तक बताया गया.

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जोड़-तोड़ को दरकिनार कर दें तो प्रियंका की भाषण कला की तब एक झलक मिली जब उन्होंने मोदी को बाहरी करार दिया. ये ठीक उसी तरह का चुनावी प्रचार था जैसा कि नीतीश कुमार ने बिहार चुनाव में ‘बिहारी बनाम बाहरी’ के मुद्दे को हवा दी थी.

लेकिन बिहार न तो यूपी है और ना ही प्रियंका गांधी, नीतीश कुमार हैं. लिहाजा ये बात भी जल्द ही साफ हो गई कि जहां तक जनता के साथ संवाद करने की कला की बात है तो राहुल और प्रियंका के बीच चुनाव का कोई खास विकल्प मौजूद नहीं है.

राहुल के बारे में कहा जाता है कि वे  प्रियंका से हर मसले पर राय-मश्विरा करते हैं : पीटीआई

शानदार खादी साड़ी पहनकर गांवों का दौरा करना और दलित महिला की झोपड़ी में खाना खाने का सियासी करिश्मा उन चीजों का कभी विकल्प नहीं बन सकते जो बीजेपी के कार्यकर्ताओं ने चुनाव के दौरान की.

जनता के बीच संवाद स्थापित करने के लिए बीजेपी के जमीनी कार्यकर्ताओं ने लगातार कोशिशें जारी रखीं.

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सबसे दिलचस्प बात तो ये है कि पहले कहा गया कि प्रियंका गांधी यूपी के कोने-कोने में रैलियां करेंगी. लेकिन अचानक हमें बताया गया कि वो अपनी पारिवारिक सीट की सरहद से बाहर कदम नहीं बढ़ाएंगी.

ऐसा शायद जानबूझ कर किया गया ताकि एक और चुनाव में करारी हार की सूरत में गांधी परिवार के अंतिम ब्रांड की साख को हमेशा के लिए पहुंचने वाले नुकसान से बचाया जा सके.

यूपी चुनाव के अंतिम नतीजे से साफ था कि सूबे के चुनावी इतिहास में कांग्रेस के लिए अब तक की ये सबसे बड़ी हार थी. 114 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली पार्टी को महज 7 सीटें ही मिल पाईं. यहां तक कि अमेठी की चारों सीटों पर जहां प्रियंका गांधी ने जमकर चुनाव प्रचार किया था, कांग्रेस हार गई.

और प्रियंका को लेकर जो मिथक अब तक गढ़ा गया है वो यहीं आकर हमेशा के लिए खत्म हो जाता है.