उत्तर प्रदेश में चुनाव के दौरान कांग्रेस के नेता, समाजवादी पार्टी से अपने गठजोड़ की कामयाबी को एक खास पैमाने से नापते थे. ये पैमाना था 'पीके की खुशी'. पूरे चुनाव के दौरान पीके बहुत खुश दिखते थे.
पीके यानी प्रशांत किशोर
यहां पीके का मतलब है प्रशांत किशोर. चुनावी रणनीति बनाने के उस्ताद प्रशांत किशोर. पीके ने ही राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए यूपी की चुनावी रणनीति बनाई थी.
यूपी में चुनाव अभियान की रिपोर्टिंग के बाद जब मैं दिल्ली लौटा तो मैंने कांग्रेस के कई छोटे बड़े नेताओं से मुलाकात की.
आम तौर पर ये सभी नेता चुनाव के नतीजों पर चर्चा के वक्त बेहद सावधान रहते थे. लेकिन इस बार इन सभी का दावा था कि वो चुनाव जीतने जा रहे हैं.
कांग्रेस के नेता मेरे अनुमान को सिरे से खारिज कर देते थे. उनका कहना था कि समाजवादी पार्टी और उनकी पार्टी का गठजोड़ ही नतीजों में अव्वल रहेगा.
उन्होंने कहा कि पीएम मोदी कितने घबराए हैं, इसकी मिसाल तो उनका तीन दिन तक बनारस में टिकना ही है. पीके का हवाला देकर, कांग्रेस के नेता जीत के लिए आश्वस्त नजर आते थे.
कांग्रेस की नाकामियों पर ध्यान नहीं
उनको इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता था कि चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस की एक महीने तक चली 'खाट सभाएं' बुरी तरह नाकाम रही थीं.
पहले पीके ने शीला दीक्षित जैसी बुजुर्ग नेता को कांग्रेस के ब्राह्मण चेहरे के तौर पर पेश किया. नारा दिया, '27 साल यूपी बेहाल' का. समाजवादी पार्टी से गठजोड़ होना ही पीके और उनकी टीम ने अपनी जीत मान लिया था.
मीडिया में खबरें लीक कराई गईं कि ये समझौता, पीके के अलावा सोनिया, राहुल और प्रियंका की साझा कोशिशों का नतीजा था.
कुछ कांग्रेसी नेताओं ने तो यहां तक कहा कि, 'देखो पीके ने क्या कमाल कर दिखाया. अब तक तो कोई हमें भाव देने को भी नहीं तैयार था. अब सब लोग कांग्रेस की, राहुल गांधी की बातें कर रहे हैं'.
सभी कांग्रेसी नेता ये बात भूल गए कि किसी ब्रांड से ज्यादा उसे ब्रांड बनाने वाले की चर्चा में बहुत जोखिम हैं.
पीके बने तुर्रम खां
बिहार चुनाव में महागठबंधन की जीत के बाद पीके चुनावी रणनीति के तुर्रम खां के तौर पर मशहूर हो गए थे. वो नीतीश कुमार के प्रमुख रणनीतिकार थे. नीतीश-लालू की जोड़ी ने मोदी-अमित शाह की जोड़ी को धूल चटा दी थी.
इससे पहले पीके के मुरीद उन्हें 2014 के चुनाव में मोदी की जीत का चाणक्य बताते थे. 2015 में तो उन्हें नीतीश कैबिनेट के मंत्री चुनने तक का श्रेय दिया गया.
ब्रांड बने पीके
अचानक ही पीके बहुत बड़ा ब्रांड बन गए थे. वो लोगों की चुनावी किस्मत तय करने वाले के तौर पर पेश किए जा रहे थे. वो राहुल गांधी के लिए राजगुरू के तौर पर पेश किए गए. उनकी छवि ऐसे रणनीतिकार के तौर पर पेश की गई, जिसे हराया ही नहीं जा सकता.
भारत के चुनावी इतिहास में पीके जैसे रणनीतिकार की मिसाल भी नहीं मिलती. पीके इतने ताकतवर बन गए कि ऐसा लगा कि वो जमीनी कार्यकर्ताओं की अहमियत ही खत्म कर देंगे.
मेरे पास 'पीके' है
वो बंद कमरों में बैठे युवा रणनीतिकारों के जरिए चुनाव जितवा देंगे. ऐसा जाहिर किया गया मानो पीके ही चुनावी जीत और हार तय करेंगे. तमाम पार्टियों से उनके पास ऑफर्स का ढेर लग गया. सिर्फ बीजेपी और वामपंथी दल ही उन्हें भाव नहीं दे रहे थे.
जैसे दीवार फिल्म में शशि कपूर ने अमिताभ बच्च से वो मशहूर डायलॉग बोला था कि, 'मेरे पास मां है'.
उसी तर्ज पर सियासी दल भी ये कहना चाह रहे थे कि, 'मेरे पास पीके है'. पीके का साथ होना ही चुनावी जीत का फॉर्मूला बताया गया. राहुल गांधी और बाकी कांग्रेसियों को लगा कि पीके से होकर ही कांग्रेस की सत्ता में वापसी का रास्ता निकलता है.
फिर, पीके की टीम ने दो नारे पेश किए. 'काम बोलता है' और 'यूपी को ये साथ पसंद है'. अखिलेश और राहुल को 'यूपी के लड़के' कहकर प्रचारित किया गया.
मोदी और शाह को बाहरी बताने की कोशिश हुई. हालांकि बाद में इस बात पर बहुत जोर नहीं दिया गया. लेकिन जैसा बिहार में नीतीश कुमार के चुनाव अभियान में पीके ने कमाल किया था, वैसा कमाल वो यूपी में नहीं दोहरा सके.
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और भावी प्रधानमंत्री के तौर पर पेश किए जा रहे राहुल गांधी को लड़के कहना भी गलत दांव साबित हुआ.
डूबी कांग्रेस की लुटिया
नतीजे आए तो कांग्रेस पहली बार दहाई के आंकड़े तक भी नहीं पहुंच सकी. वहीं समाजवादी पार्टी की संख्या भी 224 से घटकर 47 रह गई.
वहीं 403 सदस्यों की विधानसभा में बीजेपी और उसके सहयोगी दलों ने 325 सीटें जीत लीं.
ये नतीजे नारे लिखने और रणनीति बनाने वालों के लिए बड़ा सबक हैं. उन्हें बीजेपी के 2004 के शाइनिंग इंडिया कैपेन और 2014 के कांग्रेस के भारत निर्माण के चुनाव अभियानों से भी सबक लेना चाहिए था. अगर वो ऐसा करने तो शायद ऐसी शर्मनाक पराजय से बच सकते थे.
अब ये देखना दिलचस्प होगा कि गुजरात चुनाव के लिए राहुल गांधी, पीके की मदद लेते हैं या नहीं.
गुजरात में इसी साल के आखिर में चुनाव होने हैं. पीके की कामयाबी का सफर वहीं से शुरू हुआ था. तो क्या इस बार गुजरात के चुनाव उनके लिए अलग साबित होंगे? इस बात का जवाब तो राहुल गांधी ही दे सकते हैं.
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