अगर राजनीति क्रिकेट होती तो राहुल गांधी का दर्जा उस एसोसिएट देश के जैसा होता जिसे विश्व कप में खेलने के लिए बुलाया गया हो.
ताजा चुनावों में उन्हें देखकर लगा कि वह इस राजनीति में फिट नहीं बैठते. वो बड़ी टीमों के इस टूर्नामेंट में भर्ती की टीम लगते हैं.
जैसा कि हर बड़े टूर्नामेंट में छोटी टीमों के साथ लगता है, राहुल गांधी कब तक बचे रहेंगे यह इस पर निर्भर करता है कि वो कितना आगे तक जाते हैं. ताजा चुनावों में उनका प्रदर्शन कैसा रहता है.
अगर उनका प्रदर्शन ठीक रहा तो वो बड़े टूर्नामेंट में शामिल हो सकते हैं. अगर नहीं तो वो फिर वहीं चले जाएंगे जो जगह उनके लिए है - बी ग्रेड टीमों की लिस्ट में.
करो या मरो की नौबत
राहुल गांधी के लिए किस्मत की बात ये है कि कई सालों में उन्हें जीतने वाली टीम का हिस्सा बनने का मौका मिल सकता है भले ही उसका नेतृत्व करने का मौका न मिले.
कई वजहों से राजनीतिक पिच उनके लिए बिल्कुल मुफीद है. कम से कम कागज पर कुछ ऊंचे शॉट लगाने वाले बल्लेबाज कांग्रेस के साथ दिखते हैं.
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी से गठबंधन से कांग्रेस को अप्रत्याशित प्रचार मिला है. साथ ही उन्हें कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बहुत बड़े तबके तक पहुंचने का मौका मिला है जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की होगी.
पंजाब में अकाली दल-भाजपा गठबंधन की खराब हालत और अमरिंदर सिंह जैसे स्थानीय नेता की मौजूदगी ने कांग्रेस को आम-आदमी पार्टी की बराबरी पर ला खड़ा किया है.
उत्तराखंड में कांग्रेस के दलबदलुओं को टिकट देने के भाजपा के फैसले ने सत्ताविरोधी रुझान को पलट कर रख दिया. इससे हरीश रावत को न सिर्फ़ सहानुभूति मिल सकती है बल्कि पार्टी बदलने वाले विधायकों के खिलाफ जनता के गुस्से का फायदा भी.
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कांग्रेस के लिए सबसे बढ़िया स्थिति होगी अगर वह पंजाब, मणिपुर और उत्तराखंड जीत जाए. उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी फिर सरकार बना ले और और गोवा में त्रिशंकु विधानसभा बन जाए.
सबसे बुरी स्थिति होगी अगर भाजपा उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा जीत जाए और पंजाब में आम-आदमी पार्टी को साफ बहुमत मिल जाए. कागज पर अलग-अलग वजहों से दोनों ही हालात संभव है.
राहुल के सामने आख़िरी मौका?
मौजूदा हालात में ये राहुल गांधी के लिए सबसे बढ़िया हालात हैं. कई सालों में ये उनके लिए जीत का स्वाद चखने का सबसे अच्छा मौका हो सकता है.
लेकिन, क्योंकि ये कांग्रेस की किस्मत बदलने का उनके पास सबसे अच्छा मौका है. ये आखिरी भी साबित हो सकता है.
अगर कांग्रेस उत्तर प्रदेश में 2012 के मुकाबले अपना प्रदर्शन सुधार लेती है और ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतती है तो उत्तर प्रदेश में हार से शायद उसे ज्यादा फर्क न पड़े.
लेकिन पंजाब और मणिपुर में हार का मतलब होगा कि एक-एक कर के इसके अंतिम गढ़ भी ढह रहे हैं और देश कांग्रेस-मुक्त बनने ही वाला है.
अगर आम आदमी पार्टी ने पंजाब में जीत हासिल की तो उत्तर भारत के बड़े हिस्से में ये प्रमुख विपक्षी दल बन जाएगी. आप की नजरें पहले ही गुजरात, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान पर हैं जहां अगले डेढ़-दो साल में चुनाव होने हैं.
पंजाब में जीत से इसकी रफ्तार में पंख लग जाएंगे और यह कांग्रेस की कीमत पर भाजपा विरोधी जमीन हासिल कर लेगी.
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अगर भाजपा मणिपुर जीतती है तो इसका मतलब होगा कि कांग्रेस को उत्तर-पूर्व में अपने गढ़ से भी खदेड़ा जा चुका है- असम, अरुणाचल पहले ही जा चुके हैं और अगला नंबर मेघालय का हो सकता है.
इन राज्यों में भाजपा क्षेत्रीय ताकतों के मुकाबले कांग्रेस की जगह बड़ी पार्टी बन जाएगी.
कांग्रेस हारी तो सिर्फ दो विकल्प
जब उत्तर प्रदेश में चुनाव अभियान की शुरुआत हुई तब कांग्रेस नेता उम्मीद कर रहे थे कि प्रियंका गांधी आगे आएंगी और धीरे-धीरे अपने भाई की जगह ले लेंगी.
लेकिन, उस उम्मीद ने भी तब दम तोड़ दिया जब प्रियंका और उनकी मां ने पूरा चुनाव राहुल के भरोसे छोड़ दिया और बमुश्किल बाहर निकलीं.
कांग्रेस कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए यह एक साफ संकेत है कि राहुल ही पार्टी चलाएंगे और गांधी-नेहरू खानदान के बाकी सदस्य या तो पृष्ठभूमि में रहेंगे या हाशिए पर.
पार्टी की इबारत यही है कि यह या तो वो राहुल के साथ जीएगी या उनके साथ डूबेगी और 'प्रियंका लाओ, कांग्रेस बचाओ' जैसा कुछ होने वाला नहीं.
अगर कांग्रेस चुनाव हारती है तो कार्यकर्ताओं और नेताओं के पास सिर्फ दो विकल्प होंगे.
पहला ये कि या तो वो पार्टी को अपनी राजनीतिक मौत की ओर जाने दें और खुद भी इसके साथ चले जाएं या पार्टी की मौत के फरमान पर दस्तखत करें और नया नेता या पार्टी ढूंढें.
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