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तुलसीराम प्रजापति एनकाउंटर: कांग्रेस की बेचैनी विपक्ष की दशा-दिशा बताती है

अमित शाह के खिलाफ सबूतों का कानूनी महत्व शून्य है. राहुल गांधी को इससे उत्साहित होने की कोई जरूरत नहीं है

Kartikeya Tanna

इंडियन एक्सप्रेस ने तुलसीराम प्रजापति के फर्जी मुठभेड़ मामले की जांच करने वाले एक अधिकारी संदीप तामगाडगे के बयान का हवाला देते हुए एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी. माना जा रहा है कि तामगाडगे ने उक्त फर्जी मुठभेड़ मामले में एक विशेष अदालत को बताया है कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और गुजरात कैडर के तीन आईपीएस अधिकारी प्रजापति के कथित फर्जी मुठभेड़ के 'प्रमुख षड्यंत्रकारी' थे. तामगाडगे ने कहा है कि यह एक 'राजनेता-आपराधिक' गठजोड़ का मामला था.

आश्चर्य की बात नहीं है कि कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी ने बीजेपी के अपने समकक्ष पर हमला करने के लिए इस रिपोर्ट को लपक लिया.


हमारे आपराधिक न्याय प्रणाली का मकसद अपराध पीड़ितों के लिए न्याय सुनिश्चित करना है. इसमें न केवल अपराधियों की पहचान शामिल है, बल्कि यह सुनिश्चित करना भी है कि इस प्रक्रिया की वजह से किसी निर्दोष की स्वतंत्रता और प्रतिष्ठा का नुकसान न हो. शाह को भले इस कठिन अदालती सुनवाई की प्रक्रिया के दौरान बीजेपी मशीनरी का समर्थन मिला था, लेकिन उन्होंने लंबे समय तक अपनी स्वतंत्रता खो दी थी. पाठकों को याद होगा कि उन्हें गुजरात से निर्वासित कर दिया गया था, जब तक कि वे अपने खिलाफ सभी आरोपों से मुक्त नहीं हो गए थे.

राजनीतिक प्रतिशोध

कांग्रेस पार्टी का मकसद किसी भी तरीके या किसी भी जरिए से इस मामले में शाह पर निशाना साधना न्याय नहीं है. 30 दिसंबर, 2014 को विशेष सीबीआई जज एमबी गोसावी के फैसले से स्पष्ट है, जिसमें उन्होंने शाह के इस बात में तथ्य पाया था कि शाह को सीबीआई द्वारा 'राजनीतिक कारणों' से फर्जी मुठभेड़ मामलों में फंसाया गया था.

अपनी गवाही में तामगाडगे पूरी तरह से सिर्फ शाह और एक अन्य आईपीएस अधिकारी के बीच हुई बातचीत के कॉल रिकॉर्ड पर निर्भर हैं. शाह तब गुजरात के गृह राज्य मंत्री थे. तामगाडगे इसी कॉल रिकार्ड के आधार पर षड्यंत्र की बात कर रहे हैं. विशेष सीबीआई न्यायाधीश एमबी गोसावी ने इस विवाद को खारिज कर दिया था कि सुरक्षा और आतंकवाद के बढ़ते भय के समय में एक गृह मंत्री द्वारा अपने जूनियर अधिकारियों के काम को ट्रैक करने में कुछ भी गलत नहीं है.

जाहिर है, इस आदेश से संतुष्ट नहीं होने की स्थिति में हर्ष मंदर ने विशेष सीबीआई न्यायाधीश के फैसले को चुनौती देते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर की. हर्ष मंदर, सोनिया गांधी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के पूर्व सदस्य हैं.

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बॉम्बे हाईकोर्ट ने मंदर की चुनौती को खारिज कर दिया. अपने आदेश में हाईकोर्ट ने साफ तौर पर इस याचिका में 'नेकनीयती और विश्वसनीयता की कमी' का संकेत दिया था. यह आदेश के पैराग्राफ 42 में देखा जा सकता है, जिसमें लिखा है कि 'आपराधिक कानून को व्यक्तिगत या राजनीतिक द्वेष से बदला लेने के साधन के रूप में इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है या अभियुक्त को बदनाम करने या ऐसे ही अन्य किसी उद्देश्य के लिए भी इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती है.'

किसका और कैसा हित?

मंदर की याचिका को केवल अपने राजनीतिक फायदे में इस्तेमाल करने के लिए ही अस्वीकार नहीं किया गया था बल्कि इसके और भी कई कारण थे. बॉम्बे हाईकोर्ट ने नोट किया कि जहां एक तरफ कई अन्य आरोपियों को विशेष सीबीआई जज द्वारा बरी किया गया था, वहीं मंडर ने सिर्फ अमित शाह को बरी किए जाने को ही चुनौती दी थी. बॉम्बे हाईकोर्ट [पैराग्राफ 42] के अनुसार, मंदर द्वारा अपनी याचिका में घोषित 'सामाजिक हित और जिम्मेदारी' की बात केवल शाह तक ही सीमित थी. यह तर्क अन्य के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया था.

बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला पढ़कर यह समझा जा सकता है कि कैसे कांग्रेस पार्टी और उसके सहयोगी (इको सिस्टम) शाह को फंसाने की कोशिश कर रहे थे.

मंदर ने बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. देश की सर्वोच्च अदालत ने मंदर का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ वकील और कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल द्वारा दिए गए तर्कों को खारिज कर दिया और कहा कि इस याचिका को स्वीकार करने का कोई कारण नहीं है.

मीडिया रिपोर्टों ने तामगाडगे के बयान को इस तरह चित्रित करने का प्रयास किया है जैसे शाह के सिर पर अभी भी आरोपों के बादल मंडरा रहे है. इसके अलावा, यह बयान तीन अन्य आईपीएस अधिकारियों आशीष पांड्या, एनएच डाभी और जीएस राव के खिलाफ चल रहे मुकदमे का एक हिस्सा है.

2012 में यूपीए शासनकाल के दौरान शाह और बरी हुए आईपीएस अधिकारियों के खिलाफ आरोपपत्र दायर करने वाले जांच दल के एक सदस्य के रूप में तामगाडगे, जाहिर तौर पर आज भी अपने उसी पुराने स्टैंड को बनाए रखना चाहेंगे. गौरतलब है कि 2012 का ही समय था, जब सीबीआई को 'पिंजडे का तोता' कहा जाता था.

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कल्पना सबूत नहीं होते

मात्र कल्पना किसी भी अपराध के खिलाफ निर्णायक सबूत नहीं होते है. एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में अदालत अपराध के खिलाफ निर्णय लेने के लिए साक्ष्य के वजह और विश्वसनीयता को देखती है. तथ्य यह है कि शाह और कुछ आईपीएस अधिकारियों को न सिर्फ सीबीआई के विशेष अदालत द्वारा बरी किया गया बल्कि बॉम्बे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट द्वारा केस को फिर से खोलने के प्रयासों को भी रद्द कर दिया गया.

जब सारे आरोप अंतिम तौर पर न्यायिक रूप से आदेश प्राप्त कर चुके हों, रद्द किए जा चुके हों, वैसे आरोपों को पुनर्जीवित करने के प्रयास से कांग्रेस पार्टी की निराशा का ही पता चलता है. इससे पता चलता है कि कांग्रेस कैसे इसके जरिए राजनीतिक शिकार करना चाहती है. वह किसी भी तरह से इस मुद्दे को एक बार फिर न्यायिक प्रक्रिया में लाना चाहती है या कम से कम मतदाताओं के दिमाग में यह मुद्दा घुसाना चाहती है, ताकि चुनावी फायदा उठाया जा सके.

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पूरे भारत में पिछले पांच सालों में बीजेपी के चुनावी प्रभुत्व को देखते हुए, जहां कांग्रेस को एक मजबूत विपक्षी पार्टी के रूप में सामने आना चाहिए था, वहीं कांग्रेस झूठ और फरेब के जरिए अपने प्रतिद्वंदी से लड़ना चाहती है. बेतुके और बेवकूफाना आरोपों के साथ राजनीति करने की कांग्रेस की कोशिश, आज विपक्ष की राजनीतिक स्थिति को साफ कर देती है.