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तीन तलाक: सुधार के लिए आपराधिक प्रावधान जरूरी है, हटाने से कमजोर होगा कानून

ट्रिपल तलाक बिल को लेकर राज्यसभा में बीजेपी का असली इम्तिहान होगा. इस बात की पूरी आशंका है कि विपक्ष, राज्यसभा में एकजुट होकर इस बिल को टालने की कोशिश करेगा

Sreemoy Talukdar

भारत में मुस्लिम महिलाओं को लंबे वक्त से उनके हक से महरूम रखा गया है. इसकी वजह देश की वोट बैंक वाली राजनीति है. अब जबकि हमारे सामने एक ऐतिहासिक मौका है, तब भी देश में बहुत से ऐसे लोग हैं जो मुस्लिम महिलाओं को उनका हक नहीं देना चाहते. वो देश की करीब 9 करोड़ महिलाओं की आवाज को दबाना चाहते हैं. उन्हें सम्मान, उनका अधिकार और कानूनी जरिए से इंसाफ हासिल करने का मौका नहीं देना चाहते. यही लोग गिरोह बनाकर तीन तलाक को गैरकानूनी ठहराने वाले कानून का विरोध कर रहे हैं.

राज्यसभा में विपक्ष एकजुट होकर इस बिल को टालने की कोशिश करेगा


बीजेपी ने मुस्लिम महिला विवाह अधिकार का विधेयक लोकसभा से पास करा लिया है. पार्टी ऐसा सदन में अपने बहुमत की वजह से कर पाई. लेकिन राज्यसभा में बीजेपी का असली इम्तिहान होगा. इस बात की पूरी आशंका है कि विपक्ष, राज्यसभा में एकजुट होकर इस बिल को टालने की कोशिश करेगा. राज्यसभा में बीजेपी के पास बहुमत नहीं है. इसलिए डर इस बात का है कि ट्रिपल तलाक का विधेयक ठंडे बस्ते में डाल दिया जाए.

गुरुवार को ट्रिपल तलाक को लेकर विपक्षी खेमे में एकजुटता दिखी. अगर इस विधेयक को राज्यसभा की कमेटी को भेजा जाता है, तो इसके पास होने में देर होनी तय है. ऐसा हुआ तो विपक्ष बीजेपी पर आंशिक जीत का दावा कर सकता है. विपक्षी दल ये कह सकते हैं कि उन्होंने बीजेपी को ये ऐतिहासिक बिल पास करने से रोकने में कामयाबी हासिल कर ली. हो सकता है कि ट्रिपल तलाक को जुर्म बताने वाला प्रावधान ही विधेयक से हटाने की मांग हो. जबकि यही वो प्रावधान है जिससे ये बिल असरदार बनता है.

कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने लोकसभा में तीन तलाक विधेयक को पेश किया था (फोटो: पीटीआई)

जिस तरह से ट्रिपल तलाक के बिल को टालने की कोशिश की जा रही है, वो इस बात की मिसाल है कि हमारे देश की राजनीति का स्तर किस कदर गिर गया है.

अगर विपक्ष को इस विधेयक की कमियों की फिक्र होती, तो उनका विरोध जायज माना जाता. अगर वो ईमानदारी से इस कानून को और ताकतवर बनाने के सुझाव देते, तो उनकी नीयत पर सवाल नहीं उठते. लेकिन भारत में संसदीय लोकतंत्र घटिया सियासत का अखाड़ा बन गया है. इस अखाड़े में विपक्ष का मकसद किसी कानून को बेहतर बनाना नहीं, बल्कि सरकार को किसी भी तरीके से मात देना है.

जैसे कि ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि ट्रिपल तलाक का बिल मुसलमानों के बुनियादी अधिकारों के खिलाफ है. ओवैसी ने आरोप लगाया कि बीजेपी मुस्लिमों के खिलाफ है.

ज्यादा से ज्यादा मुसलमानों को जेल में रखने का आपका ख्वाब पूरा होगा

ओवैसी ने कहा कि 'इस कानून के लागू होने से ज्यादा से ज्यादा मुसलमानों को जेल में रखने का आपका ख्वाब पूरा होगा. खुदा के वास्ते इस बिल को स्टैंडिंग कमेटी को भेज दीजिए. आप मुस्लिम महिलाओं को अपने शौहरों पर एफआईआर दर्ज कराने को मजबूर कर रहे हैं'. ओवैसी ने ये भी दावा किया कि किसी भी मुस्लिम देश में ऐसा कानून नहीं है जो ट्रिपल तलाक या तलाक-ए-बिद्दत को अपराध कहे.

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सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-बिद्दत पर अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि ये कुरान के खिलाफ है. अदालत ने कहा था कि 19 मुस्लिम देशों ने तलाक-ए-बिद्दत को खत्म कर दिया है. भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी एक झटके में तीन तलाक देने पर रोक है. दोनों ही इस्लामिक देश हैं. वहां प्रावधान है कि मर्दो को अपनी बीवियों को तलाक देने से पहले नोटिस देना होगा. तलाक देने के बाद उन्हें इसके दस्तावेज देने होंगे. अगर ये नियम मानकर तलाक नहीं दिया जाता, तो ऐसा करने वालों को कैद की सजा दी जा सकती है. ये सजा एक साल तक की हो सकती है. साथ ही शौहर को इसके लिए जुर्माना भी भरना पड़ सकता है. ये जुर्माना 5 हजार रुपए से लेकर बांग्लादेश में 10 हजार टका तक है.

एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी ने लोकसभा में तीन तलाक विधेयक का काफी विरोध किया (फोटो: पीटीआई)

राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और समाजवादी पार्टी जैसे दलों का आरोप है कि बीजेपी इस विधेयक के जरिए वोटरों को बांटने की कोशिश कर रही है. वहीं कुछ और दलों का आरोप है कि बीजेपी मुस्लिम कानूनों में दखल देकर सियासी रोटियां सेक रही है. इन दलों को ये बात याद नहीं रह गई है कि तलाक-ए-बिद्दत पर रोक की मांग मुस्लिम महिलाओं ने ही की थी. खास तौर पर उन महिलाओं ने जिन्होंने तलाक-ए-बिद्दत का दर्द झेला है. मुस्लिम समाज अभी भी 1937 के शरीयत एक्ट से चलता है. इसमें पिछले करीब 80 सालों से कोई बदलाव नहीं हुआ है. मजबूरी में मुस्लिम महिलाओं को इसके खिलाफ आवाज उठानी पड़ी.

तीन तलाक कानून को लेकर कांग्रेस मुश्किल में फंस गई है

एआईएमआईएम, आरजेडी और बीजेडी ने तो सीधे तौर पर बीजेपी पर हमला बोला. लेकिन कांग्रेस मुश्किल में फंस गई है. पार्टी को डर है कि अगर वो खुलकर इस विधेयक का विरोध करती है, तो कहीं उस पर फिर से मुस्लिम परस्त पार्टी होने का ठप्पा न लग जाए. साथ ही कांग्रेस को ये डर भी है कि विधेयक पास हो गया, तो इसका पूरा क्रेडिट बीजेपी लूट लेगी. इसीलिए कांग्रेस इस बिल का विरोध भी कर रही है और समर्थन भी.

अपने जनेऊधारी अध्यक्ष की अगुवाई में कांग्रेस खुद को हिंदुओं की करीबी साबित करने में जुटी हुई है. राहुल गांधी की ये नई कांग्रेस है, जो खुलकर मुस्लिम तुष्टिकरण की बातें नहीं कह सकती. जबकि पहले ऐसा नहीं था. इसी वजह से कांग्रेस ने इस विधेयक को लोकसभा मे पेश करने का विरोध नहीं किया. पार्टी ने लोकसभा में इसके हक में वोट दिया. लेकिन बिल के पास होते ही कांग्रेस के प्रवक्ता विधेयक में खामियां गिनाने लगे.

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कांग्रेस की अगुवाई में विपक्ष का सबसे बड़ा विरोध इस विधेयक में ट्रिपल तलाक को जुर्म ठहराने के प्रावधान पर है. बिल में एक बार में तीन तलाक यानी तलाक-ए-बिद्दत को गैरकानूनी और जुर्म ठहराते हुए 3 साल की सजा का प्रावधान है. इसे संज्ञेय और गैरजमानती अपराध बताया गया है.

कांग्रेस की सांसद सुष्मिता देव ने कहा कि तलाक-ए-बिद्दत को जुर्म बताकर सरकार इसे रोकने की कोशिश नहीं कर रही है. बहुत से अनसुलझे सवाल हैं. जैसे कि जब पति जेल में होगा तो महिलाओं को गुजारा भत्ता कैसे मिलेगा? कांग्रेस का ये भी कहना है कि इस कानून में मियां-बीवी के बीच समझौते की गुंजाइश नहीं छोड़ी गई है.

ओवैसी ने भी इस बात को उठाया था. ओवैसी ने आरोप लगाया था कि कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद एक सिविल और क्रिमिनल विधेयक में फर्क नहीं कर पाए.

इस कानून का मकसद सिर्फ तलाक रोकना नहीं, बल्कि इसकी धमकी को हथियार बनाने से भी रोकना है

ट्रिपल तलाक से जुड़े कानून में इसे जुर्म बताने का प्रावधान बहुत अहम है. अगर ये प्रावधान हटाया जाता है तो ये कानून बहुत कमजोर हो जाएगा. इस कानून का मकसद सिर्फ तलाक-ए-बिद्दत को रोकना नहीं, बल्कि इसकी धमकी को हथियार बनाने से भी रोकना है. असल में तलाक-ए-बिद्दत मर्दों को बीवियों के मुकाबले ज्यादा अधिकार देता है. ये मुस्लिम महिलाओं को उनके इंसानी हक से महरूम करता है. मुस्लिम समाज में महिलाएं पहले से ही दबी-कुचली और आर्थिक रूप से कमजोर हैं. ऐसे में तलाक-ए-बिद्दत की वजह से उनकी स्थिति और कमजोर हो जाती है.

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सवाल ये भी उठता है कि जब सुप्रीम कोर्ट पहले ही तलाक-ए-बिद्दत को अवैध ठहरा चुका है, तो फिर इसके लिए कानून लाने की क्या जरूरत है? लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी तलाक-ए-बिद्दत के कई मामले सामने आए हैं. जिस दिन तीन तलाक का बिल लोकसभा में पेश किया गया उसी दिन सुबह यूपी के अजीमनगर में कासिम नाम के एक शख्स ने अपनी बीवी को पहले तो बुरी तरह पीटा. फिर सुबह देर से उठने पर उसे तलाक-ए-बिद्दत यानी एक बार में तीन तलाक दे दिया.

लोकसभा में अपने बयान में कानून मंत्री ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी तलाक-ए-बिद्दत के कई मामले सामने आए हैं. उन्होंने कहा कि 'हम ये सोचते थे कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एक बार में तीन तलाक पर रोक लगेगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. 2017 में एक बार में ट्रिपल तलाक के 300 नए मामले सामने आए हैं. इनमें से 100 केस तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आए हैं'. कई महिलाओं की शिकायत के बावजूद पुलिस कुछ नहीं कर पाई, क्योंकि इस बारे में कोई कानून नहीं. पुलिस के पास तलाक-ए-बिद्दत देने वालों के खिलाफ कार्रवाई का कोई कानूनी जरिया नहीं.

तलाक-ए-बिद्दत को जुर्म कहने का प्रावधान इससे जुड़े विधेयक से हटाने की बात करना ही बेमानी है. कुछ लोग कहते हैं कि निकाह एक सिविल इकरारनामा है. इसलिए इसे तोड़ने को जुर्म कैसे कहा जा सकता है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट की सीनियर वकील माधवी गोराडिया दीवान कहती हैं कि 'जब तलाक-ए-बिद्दत को गैरकानूनी करार दे दिया गया है, तो ये सिविल इकरारनामे के दायरे से बाहर हो गया है. अब इसे जुर्म कहकर इसकी सजा देने में कुछ भी गलत नहीं'. गोराडिया मिस्र और ट्यूनिशिया का हवाला देती हैं, जहां कानूनी तरीके के अलावा दूसरे तरीके से तलाक देने पर कैद की सजा होती है.

अदालती फैसले से किसी कुप्रथा पर रोक नहीं लग पाती

किसी अदालती फैसले से किसी कुप्रथा पर रोक नहीं लग पाती. इसे रोकने के लिए कानून बनाना जरूरी होता है. इसमें सजा का प्रावधान भी होना चाहिए. जैसे कि 1961 के दहेज विरोधी कानून को ताकतवर बनाने के लिए आईपीसी में धारा 498A जोड़ी गई थी. इस धारा में प्रावधान है कि अगर कोई शादीशुदा महिला शिकायत करती है तो उसके पति और ससुरालवालों को कैद की सजा दी जा सकती है.

(प्रतीकात्मक तस्वीर)

महिला अधिकार कार्यकर्ता और तलाक-ए-बिद्दत के खिलाफ काम करने वाली जकिया सोमन कहती हैं कि 'भारतीय दंड संहिता में दूसरी शादी के लिए 7 साल कैद की सजा का प्रावधान है. ऐसा ही प्रावधान दहेज और घरेलू हिंसा को लेकर भी है. फिर तलाक-ए-बिद्दत को लेकर सजा की व्यवस्था क्यों न हो? ये भी तो महिलाओं पर जुल्म ही है. किसी भी महिला को अपने पति की गलतियों की शिकायत का हक होना चाहिए.'

तलाक-ए-बिद्दत को जुर्म ठहराने से इस पर पूरी तरह रोक शायद न लगे, मगर इसका डर दिखाने का सिलसिला जरूर कम होगा. इससे मुस्लिमों की शादी में महिलाओं को बराबरी का अधिकार मिलेगा.