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क्या 2019 में 1999 की कहानी दोहराएंगी सुषमा स्वराज?

क्या 2019 में उनकी 1999 की कहानी दोहराई जाएगी या क्या यह अलग तरह का मामला होगा?

Sanjay Singh

विदेश मंत्री और बीजेपी की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने तकरीबन एक साल पहले एक असामान्य अनुरोध के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मुलाकात की थी. उनकी तरफ से गुजारिश की गई थी कि उन्हें 2019 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने की इजाजत दी जाए.

दरअसल, दिसंबर 2017 में स्वराज का किडनी ट्रांसप्लांट हुआ था. अपनी इस बीमारी के सिलसिले में उन्हें करीब एक महीना ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) में भर्ती रहना पड़ा था.


पिछले चार साल में विदेश मंत्री के तौर पर स्वराज ने अपने शानदार प्रदर्शन के जरिए प्रधानमंत्री का भरोसा और साख हासिल किया है. गौरतलब है कि प्रधानमंत्री ने कुछ मौकों पर सार्वजनिक रूप से सुषमा स्वराज के काम की तारीफ की थी. विशेष तौर पर विदेशी मुल्कों में मुश्किल स्थितियों का सामना कर रहे और वहां फंसे भारतीय लोगों को वहां से निकालने और उनकी मदद करने के मामले में उन्हें काफी तारीफ मिली है. अगला चुनाव नहीं लड़ने के स्वराज के फैसले ने निश्चित तौर पर उन्हें हैरान किया होगा.

स्वराज ने अमित शाह से भी की मुलाकात, चुनाव नहीं लड़ने की बात कही

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने विचार से अवगत कराने के बाद उन्होंने अपनी पार्टी- भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के अध्यक्ष अमित शाह से मुलाकात की और उन्हें अपने फैसले के बारे में बताया. स्वराज ने अपने फैसले के पक्ष में दो तरह के तर्क दिए. पहला, विदेश मंत्री का कहना था कि उनकी मौजूदा सेहत उन्हें अपने लोकसभा क्षेत्र में उस तरह से काम करने की इजाजत नहीं देती, जिस तरह से किसी सांसद को आदर्श तौर पर करना चाहिए.

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किसी भी लोकसभा सांसद की उसके निर्वाचन क्षेत्र के लोगों को लेकर कई तरह की प्रतिबद्धताएं होती हैं. यह प्रतिबद्धता न सिर्फ उसके इलाके में विकास कार्यों से संबंधित होती है, बल्कि इसके लिए संबंधित क्षेत्र के लोगों के साथ बड़े पैमाने पर निजी जुड़ाव की भी जरूरत होती है. अपनी स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों के कारण स्वराज उस तरह से सांसद के तौर पर अपना काम करने में सक्षम नहीं थीं, जिस तरह से पिछले वर्षों में उन्होंने दक्षिणी दिल्ली संसदीय क्षेत्र और मध्य प्रदेश स्थित विदिशा का प्रतिनिधित्व किया था. वह दो बार दक्षिणी दिल्ली से सांसद रहीं और फिलहाल विदिशा लोकसभा क्षेत्र से बीजेपी की सांसद हैं.

दूसरा, अगर वह 2019 में चुनाव लड़ती हैं, तो उन्हें 5 साल के एक और कार्यकाल के लिए उस निर्वाचन क्षेत्र को लेकर प्रतिबद्धता के साथ पूरी तरह से सक्रिय रहना पड़ेगा. उनका तर्क था कि अगर उनका स्वास्थ्य लोगों के साथ नियमित रूप से संपर्क में रहने (निर्वाचन क्षेत्र का दौरा समेत) की इजाजत नहीं देता है , तो वह सीधे तौर पर निर्वाचन प्रतिनिधि के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूरी करने में नाकाम रहेंगी.

पार्टी नेतृत्व ने चुनाव प्रबंधन को लेकर भी दिया आश्वासन

सूत्रों ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया कि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व ने स्वराज से कहा कि उन्हें इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है. पार्टी उनके चुनाव और संबंधित लोकसभा क्षेत्र को लेकर उनकी चिंताओं का पूरी तरह से ध्यान रखेगी. हालांकि, वह अपना यह फैसला मंजूर करवाने के लिए पार्टी नेतृत्व को राजी करने में सफल रहीं.

सुषमा स्वराज ने इस पूरी प्रक्रिया से मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भी पूरी तरह अवगत रखा. दरअसल, चौहान के मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने से पहले तक विदिशा शिवराज सिंह चौहान का संसदीय क्षेत्र हुआ करता था यानी वह इसी सीट से लोकसभा चुनाव लड़ते थे. स्वराज ने 2009 और 2014 के लोकसभा चुनावों में विदिशा से बीजेपी के टिकट पर जीत हासिल की थी.

यहां इस बात का भी उल्लेख करना भी दिलचस्प होगा कि 2009 में जब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने सभी वरिष्ठ नेताओं को लोकसभा चुनाव लड़ने की सलाह दी थी, तो संसदीय चुनाव लड़ने के लिए स्वराज की पहली पसंद भोपाल सीट थी. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को भी ऐसा लगता था कि भोपाल उनके लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए बेहतर सीट हो सकती है. स्वराज उस वक्त राज्यसभा में भारतीय जनता पार्टी की उपनेता थीं. हालांकि, भोपाल संसदीय क्षेत्र के तत्कालीन सांसद और बीजेपी नेता कैलाश जोशी ने उनके (स्वराज के सामने) सामने काफी कड़ी शर्तें रख दीं और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पेशकश पर वह चुनाव लड़ने के लिए विदिशा पहुंच गईं.

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स्वराज ने इंदौर में आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में ऐलान किया था कि वह अगला संसदीय चुनाव नहीं लड़ेंगी. इसके बाद राजनीतिक हलकों में कई तरह की अटकलों का बाजार गर्म रहा. अगले संसदीय चुनाव अगले 5 महीनों में होने हैं.

राज्यसभा में भी भेजा जा सकता है स्वराज को

यहां यह बताना अहम है कि स्वराज ने लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने के अपने फैसले के बारे में ऐलान किया था. उन्होंने इस तरह का ऐलान नहीं किया था कि वह राजनीति छोड़ रही हैं. कुल मिलाकर कहें तो दोनों तरह की बातों में काफी अंतर है और ऐसे में दूसरे तरह की अटकलों को बढ़ावा मिलता है.

एक केंद्रीय मंत्री ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया, 'उन्होंने सिर्फ इतना कहा है कि वह लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगी. उन्होंने यह नहीं कहा है कि वह राज्यसभा में नहीं जाएंगी. आप सभी को यह बात पता है कि वह तीन कार्यकाल के दौरान राज्यसभा में पार्टी का प्रतिनिधित्व किया है. कौन जानता है कि अगले साल वह एक और कार्रकाल के लिए पार्टी की तरफ से राज्यसभा में पहुंच सकती हैं.'

इसका मतलब यह है कि अगर भारतीय जनता पार्टी 2019 में सत्ता में लौटती है, तो वह फिर से अहम विभाग में मंत्री पद संभाल सकती हैं. उनके लिए कुछ अन्य जिम्मेदारियां भी उपलब्ध हो सकती हैं, लेकिन वे सभी अनिश्चितता और अगर-मगर (ऐसा होने पर ऐसा हो सकता है) के दायरे में हैं.

स्वराज ने इस अहम ऐलान के लिए सही समय का चुनाव किया. वह भारतीय जनता पार्टी के लिए विधानसभा चुनावों के प्रचार की खातिर मध्य प्रदेश में थीं. अपने खराब स्वास्थ्य के कारण उन्होंने लंबे समय से अपने संसदीय क्षेत्र और संबंधित राज्य का दौरा नहीं किया था. अगर उनकी उपलब्धता सुनिश्चित नहीं होती, तो मुमकिन था कि यह नाराजगी की वजह बन जाती. उन्होंने एक झटके में अपनी पोजीशन को पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया. जाहिर तौर पर इस ऐलान के बाद इस संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ने की इच्छा रखने वाले अन्य नेता-कार्यकर्ता को भी इस क्षेत्र पर ध्यान देने का मौका मिल सकेगा.

सुषमा स्वराज की 2003 की तस्वीर. (फोटो- रॉयटर्स)

एक बार पहले भी चुनाव नहीं लड़ने का ऐलान कर चुकी हैं स्वराज

दिलचस्त बात यह है कि ऐसा पहली बार नहीं है, जब स्वराज ने इस तरह का ऐलान किया है कि वह लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगी. तकरीबन 20 साल पहले यानी 1998 में वह दक्षिणी दिल्ली संसदीय क्षेत्र से चुनी गई थीं और एक नारे के लिए उनके खिलाफ 'दुष्प्रचार अभियान' चलाया गया था, जो उनके कुछ उत्साही समर्थकों ने लगाया था. यह नारा था, 'अबकी बारी अटल बिहारी, अगली बारी बहन हमारी.' जब उनके एक सहकर्मी ने (जो उस वक्त पार्टी के महासचिव हुआ करते थे) बंद दरवाजे में हुई बैठक में इस नारे के बारे में अजीबोगरीब तरीके से टिप्पणी की, तो वह इससे काफी आहत हो गई थीं.

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दरअसल, स्वराज भी उस वक्त भारतीय जनता पार्टी की महासचिव हुआ करती थीं. इन तमाम घटनाक्रम को लेकर वह इस कदर दुखी हो गई थीं कि उन्होंने दोबारा लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने का ऐलान तक कर दिया था. इसके बाद उन्होंने इस संसदीय क्षेत्र के लिए पार्टी उम्मीदवार के तौर पर विजय कुमार मल्होत्रा के नाम का प्रस्ताव किया.

13वीं लोकसभा के उस चुनाव में कांग्रेस ने दक्षिणी दिल्ली संसदीय क्षेत्र ने मनमोहन सिंह को चुनाव मैदान में उतारा था, जबकि भारतीय जनता पार्टी ने मल्होत्रा को नामांकित किया था. इस मुकाबले में विजय कुमार मल्होत्रा को जीत मिली और जाहिर तौर पर मनमोहन सिंह को हार का मुंह देखना पड़ा. मनमोहन सिंह ने अपने पूरे राजनीतिक जीवन में एकमात्र यही चुनाव लड़ा और वह भी हार गए.

उस दौर में जब लोकसभा चुनावों के सिलसिले में नामांकन पत्र दाखिल किए जा रहे थे, तो कांग्रेस ने दूसरी सीट के तौर पर कर्नाटक की बेल्लारी लोकसभा सीट से सोनिया गांधी का नामांकन पत्र भरवाकर सबको हैरान कर दिया. साथ ही, सोनिया गांधी रायबरेली से भी चुनाव लड़ रही थीं. अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने स्वराज को अपना पिछला प्रण (चुनाव नहीं लड़ने के बारे में) भूल जाने का निर्देश दिया और वह सोनिया के खिलाफ लोकसभा चुनाव लड़ने की खातिर पर्चा भरने के लिए बेल्लारी पहुंच गईं. हालांकि, सुषमा स्वराज बेल्लारी में सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव हार गईं, लेकिन उन्होंने बहादुरी और उत्साह के साथ चुनाव लड़ा और उन्हें वैसे संसदीय क्षेत्र में 3.5 लाख वोट मिले जो कांग्रेस का गढ़ रहा था.

क्या 2019 में उनकी 1999 की कहानी दोहराई जाएगी या क्या यह अलग तरह का मामला होगा? अभी इसका जवाब किसी के पास नहीं है.