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फिर से क्यों खुलना चाहिए बोफोर्स घोटाले का बंद मुकदमा 

2005 में दिल्ली हाईकोर्ट ने बोफोर्स से संबंधित केस को समाप्त कर देने का आदेश दे दिया था

Surendra Kishore

संसद की लोक लेखा समिति की उप समिति ने इसी महीने सीबीआई से कहा है कि वह बोफोर्स तोप सौदा घोटाले से संबधित मुकदमे को फिर से शुरू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील करे.

याद रहे कि 2005 में दिल्ली हाईकोर्ट ने बोफोर्स से संबंधित केस को समाप्त कर देने का आदेश दे दिया था.


हाई कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में अपील तक नहीं की क्योंकि 4 फरवरी 2004 के उस अदालती निर्णय के खिलाफ अपील का फैसला करने में ही अटल बिहारी सरकार ने करीब ढाई महीने लगा दिए. उसके बाद 22 मई 2004 को केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार बन गई.

सिंह सरकार ने अपील के उस मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया. हालांकि पिछली सरकार के कार्यकाल के आखिरी दिनों संबंधित अफसरों ने अपील के पक्ष में अपनी राय दी थी. पर सरकार बदलते ही उन अफसरों की राय बदल गयी.

हालांकि पिछले साल सीबीआई ने इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट में अपील जरूर की है. पर उस अपील का अब तक कोई नतीजा सामने नहीं आया था.

क्यों खुलना चाहिए बोफोर्स मामला?

इस बीच राजनीतिक हलकों में इस बात की चर्चा शुरू हो गई कि जब सुप्रीम कोर्ट बाबरी मस्जिद विध्वंस मुकदमे को फिर से शुरू करवा सकती है तो बोफोर्स केस को क्यों नहीं?

गत साल 18 अगस्त को मुलायम सिंह यादव ने कहा था कि ‘जब मैं रक्षा मंत्री था तो मैंने बोफोर्स से संबंधित फाइल को गायब करवा दिया था क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि किसी को कोई परेशानी हो.’

याद रहे कि मुलायम सिंह यादव उस संयुक्त मोर्चा सरकार के रक्षा मंत्री थे जिस सरकार को कांग्रेस बाहर से समर्थन कर रही थी. दरअसल गायब तो वही फाइल करवाई जाती है जिससे किसी के कानून की गिरफ्त आ जाने का खतरा होता है.

मुलायम सिंह ही नहीं, बल्कि इस देश के अनेक नेताओं के बीच बोफोर्स को लेकर भारी मतभेद रहे हैं.

इटेलियन बिजनेसमेन ओतावियो क्वात्रोची

26 मई 2015 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने यह कह दिया कि ‘चूंकि किसी अदालत ने इसे घोटाला नहीं कहा है इसलिए इसे आधिकारिक तौर पर घोटाला नहीं कहा जा सकता है.’ उन्होंने तकनीकी तौर पर तो ठीक ही कहा. पर सवाल है कि क्या इससे संबंधित मुकदमे को उसकी तार्किक परिणति तक कभी पहुंचने भी दिया गया?

कांग्रेसी सरकार और उसके नेतागण लगातार यह कहते रहे कि बोफोर्स में कोई दलाली नहीं ली गई पर भारत सरकार के ही आयकर न्यायाधिकरण ने 2010 में यह कह दिया कि ‘क्वात्रोच्चि और बिन चड्ढा को बोफोर्स की दलाली के 41 करोड़ रुपए मिले थे. ऐसी आय पर भारत में उन पर टैक्स की देनदारी बनती है.’

बोफोर्स तोप सौदे की कहानी 

बोफोर्स सौदे की संक्षिप्त कहानी कुछ इस प्रकार है. तत्कालीन सेनाध्यक्ष सुंदरजी ने फ्रांस की सोफ्मा कंपनी की तोपों की खरीद की सिफारिश की थी. सुंदरजी के अनुसार वे तोपें बोफोर्स तोपों से भी बढ़िया थीं.

याद रहे कि सोफ्मा दलाली देने को तैयार नहीं था. रक्षा राज्य मंत्री अरूण सिंह ने तब सुंदरजी को यह समझाया था कि ऊपरी इशारा है कि बोफर्स तोपें ही खरीदी जाएं. हमेशा ऊपर की बात ही मानी जानी चाहिए. इसके बाद तो सुंदरजी ने अपनी राय बदल दी थी.

इधर बोफोर्स कंपनी ने कुल मिलाकर दलाली पर करीब  64 करोड़ रुपए खर्च किए. जबकि सौदा तय करते समय बोफोर्स ने भारत सरकार के साथ यह लिखित समझौता किया था कि इस में किसी तरह की दलाली नहीं दी जाएगी.

किस तरह कांग्रेसी सरकारों से जुड़ी बड़ी-बड़ी शक्तियों ने समय-समय पर इन दलालों और अन्य आरोपियों को बचाया. इसका बड़ा सबूत संसदीय समिति की रपट थी. समिति कांग्रेस के बी. शंकरानंद के नेतृत्व में बनाई गई थी.

उस समिति का प्रतिपक्ष ने बहिष्कार कर दिया था. समिति ने कथित जांच के बाद यह पाया कि बोफोर्स सौदे में कोई दलाली नहीं दी गई है. जबकि स्वीडन की नेशनल आॅडिट ब्यूरो ने 4 जून 1987 को कह दिया था कि बोफोर्स सौदे में दलाली खाई गई है.

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इसके बाद तो बचाने के काम में लगे कांग्रेसी नेताओं और अफसरों में होड़ सी मच गई. इस बात के सबूत मिले थे कि क्वात्रोच्चि ने  दलाली के पैसे स्विस बैंक की लंदन शाखा में जमा करवाए थे. पटना की एक सभा में वी.पी. सिंह ने उस खाते का नंबर भी बताया था.

वी.पी. सिंह की सरकार ने दर्ज करवाई थी एफआईआर

1989 में जब वी.पी. सिंह की सरकार बनी तो उस सरकार ने इस मामले में प्राथमिकी दर्ज करवाई. पर कांग्रेस सरकार ने पहले क्वात्रोच्चि को भारत से भगाया और बाद में लंदन के स्विस बैंक के बंद खाते को खुलवा कर क्वोत्रोचि को पैसे निकाल लेने की सुविधा प्रदान कर दी.

स्वीडन के पूर्व पुलिस प्रमुख स्टेन लिंडस्टाॅर्म ने जरूर यह कहा था कि राजीव गांधी ने बोफर्स दलाली के पैसे लिए इसके सबूत नहीं मिले. दूसरी ओर उन्होंने यह भी कहा कि आक्टोवियो क्वात्रोचि के खिलाफ पुख्ता सबूत मिले हैं. इसके बावजूद राजीव गांधी की सरकार और बाद की कांग्रेसी सरकारों ने बोफोर्स केस को दबाने की कोशिश क्यों की? एक बार फिर से जांच हो तो सारे राज खुल सकते हैं.

बोफोर्स घोटाला 1987 में उजागर हुआ.उसको लेकर राजीव सरकार के कदमों और कांग्रेसी नेताओं के बयानों से आम लोगों को यह लग गया था कि सरकार दोषियों को बचाने की कोशिश में है. इसीलिए लोगों ने 1989 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस को केंद्र की सत्ता से हटा दिया. चुनाव का मुख्य मुद्दा ही बोफर्स था.

वी.पी.सिंह की सरकार के कार्यकाल में जनवरी, 1990 में इस मामले में प्राथमिकी दर्ज की गई. उसी महीने स्विस खाते फ्रीज करवा दिए गए. वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में 1999 में बोफोर्स  मामले में अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया गया.

कांग्रेस और कांग्रेस समर्थित सरकारों ने दबाया इस घोटाले को 

पर इस बीच जब-जब कांग्रेसी या कांग्रेस समर्थित सरकार बनी, उसने इस मामले को दबाने की कोशिश की. कांग्रेस के समर्थन से बनी चंद्रशेखर सरकार ने कोर्ट में कह दिया कि ‘कोई केस नहीं बन रहा  है.’

नरसिंह राव सरकार के विदेश मंत्री माधव सिंह सोलंकी ने दावोस में स्विस विदेश मंत्री को कह दिया कि बोफोर्स केस राजनीति से प्रेरित है. इस पर इस देश में जब भारी हंगामा हुआ तो सोलंकी को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा.

मनमोहन सरकार के कार्यकाल में  2005 में सीबीआई ने प्रयास करके क्वात्रोच्चि के लंदन स्थित बंद बैंक खाते को चालू करवा दिया.

सबसे बड़ा सवाल यही रहा है कि यदि राजीव गांधी ने बोफर्स की दलाली के पैसे खुद नहीं लिए तो भी तब की उनकी सरकार और बाद की अन्य कांग्रेसी सरकारों ने क्वात्रोच्चि को बचाने के लिए एड़ी चोटी का पसीना एक क्यों किया ?

सीबीआई ने  दिल्ली की एक अदालत में जनवरी, 2011 में बोफोर्स मामले में आयकर अपीली न्यायाधीकरण के आदेश को पूरी तरह अप्रासंगिक बताया और कहा कि इतालवी व्यापारी क्वात्रोच्चि के खिलाफ मामला वापस लेने के सरकार के रुख में कोई बदलाव नहीं आया है.

देश की रक्षा से जुड़ा है यह मामला 

बोफोर्स सौदे में दलाली की राशि हेलीकाॅप्टर खरीद घोटाले, स्पैक्ट्रम घोटाले या फिर कामनवेल्थ गेम्स घोटाले की राशि के मुकाबले में कुछ भी नहीं है. इस बीच इस देश में हुए अन्य कई घोटालों की अपेक्षा भी उसे छोटी रकम वाला घोटाला ही माना जाएगा. पर बोफर्स घोटाले ने 1989 में भी मतदाताओं के मानस को इसलिए अधिक झकझोरा था क्योंकि यह सीधे देश की सुरक्षा से जुड़ा मामला था.

21 अक्तूबर 1989 के इंडिया टूडे को दिए गए इंटरव्यू में हिंदू अखबार के एसोसिएट एडीटर एन.राम ने तो यहां तक कह दिया था कि ‘राजीव गांधी एक भ्रष्ट सौदे में और उसका भेद नहीं जाहिर होने देने  की कोशिश में शामिल हैं.’

बोफोर्स घोटाले को उजागर करने में ‘द हिंदू’ की सबसे बड़ी भूमिका थी. यदि बोफर्स घोटाले में दोषियों को सजा मिल गई होती तो न तो मनमोहन सरकार में महाघोटाले होते और न ही कांग्रेस लोकसभा में 44 सीटों तक सिमटती.

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