2001 में जब बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण को पैसे लेते हुए कैमरे पर पकड़ा गया था, तब पार्टी के प्रवक्ता ने कहा था कि पार्टी अध्यक्ष ने वह पैसे पार्टी फंड के लिए थे. बाद में जब वो पैसे रिश्वत साबित हो गए और कोर्ट ने बंगारू को चार साल की सजा सुना दी तो बीजेपी ने कह दिया कि ‘यह बंगारू का निजी मामला है. वह खुद इस केस को लड़ेंगे.
यदि रामनाथ कोेविंद तब बंगारू के पक्ष में गवाह बने थे, तो उसमें आश्चर्य की कौन सी बात है? पूरी पार्टी की भी तो वही लाइन थी. न्यूज पोर्टल तहलका डाॅट काम ने 13 मार्च, 2001 को फर्जी रक्षा सौदे के स्टिंग ऑपरेशन का वीडियो जारी किया था.
रक्षात्मक होकर नहीं आक्रामक रूप से निपटें
इसके एक दिन बाद, 14 मार्च को तहलका कांड पर बीजेपी संसदीय दल की बैठक हुई. बैठक के बाद पार्टी के प्रवक्ता विजय कुमार मल्होत्रा ने मीडिया से कहा था कि ‘बैठक में पार्टी के सांसदों और घटक दलों से कहा गया कि उन्हें इस मामले में रक्षात्मक होने की जरूरत नहीं है. उन्हें इससे आक्रामक रूप से निपटना होगा. क्योंकि न तो कोई रक्षा सौदा हुआ है और न ही किसी मंत्री पर इसमें शामिल होने का आरोप लगा है.
कुछ दिन में जब सच्चाई सामने आ जाएगी तब पता चल जाएगा कि इसके पीछे कौन सी ताकत है. ’मल्होत्रा से जब यह कहा गया कि बंगारू लक्ष्मण ने तो खुद धन लेने की बात स्वीकार की है तो उस पर मल्होत्रा का जवाब था कि ‘वह धन पार्टी कोष के लिए लिया गया था.’
लेकिन जब 28 अप्रैल, 2012 को अदालत ने उस केस में पूर्व बीजेपी अध्यक्ष बंगारू को 4 साल की सजा दे दी तो बीजेपी के प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन ने कहा कि यह मामला सामने आते ही पार्टी ने बंगारू को अध्यक्ष पद से हटा दिया था. मुख्य प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने कहा कि यह बंगारू की व्यक्तिगत जवाबदेही का मामला है. इससे पार्टी का कोई लेना देना नहीं है.
हालांकि बीजेपी ने 2004 के लोकसभा चुनाव में बंगारू की पत्नी सुशीला को राजस्थान के जालौर से चुनाव लड़वाया और जितवाया था. यदि बीजेपी यह मानती थी कि वह बंगारू की व्यक्तिगत जिम्मेदारी थी तो पार्टी ने उनकी पत्नी को चुनाव का टिकट क्यों दिया ?
बंगारू को सजा होने पर बीजेपी का रूख बदल गया
हां, बीजेपी ने अपने शासनकाल में बंगारू पर एफआईआर जरूर दर्ज नहीं होने दी थी. यह काम मनमोहन सिंह की सरकार ने कई साल बाद किया. यानी जब बीजेपी केंद्र की सत्ता में थी तब तक तो वह मानती थी कि बंगारू ने चंदा लिया है न कि रिश्वत. पर सजा होते ही बीजेपी का रूख बदल गया.
आज कांग्रेस नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच हो रही है तो कांग्रेस कह रही है कि राजनीतिक बदले की भावना से बीजेपी की केंद्र और राज्य सरकारें कांग्रेसजन को फंसा रही हैं. पर बंगारू के साथ कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार ने क्या किया था ?
बंगारू-तहलका प्रकरण पर बाद की कांग्रेस सरकार ने एफआईआर दर्ज करवाया जबकि यह रिश्वतकांड बीजेपी के शासनकाल में हुआ था. दूसरी ओर कांग्रेस के शासनकाल में हुए बोफर्स घोटाले पर एफआईआर दर्ज कराने का काम जनता दल के शासनकाल में ही संभव हो पाया था. इस तरह बोफर्स घोटाला और बंगारू प्रकरण ने भ्रष्टाचार पर दोनों राष्ट्रीय दलों कांग्रेस और बीजेपी के दोहरे चरित्र को उजागर कर दिया.
अपने लोगों पर भ्रष्टाचार के आरोप पर इन दलों के बार-बार बचाव भरे रूख समय-समय पर सामने आते रहे हैं. जब केस चल रहा होता है तब बचाव करो और जब सजा हो जाए तो पल्ला झाड़ लो. जबकि उपलब्धियों या गलतियों की जिम्मेदारी सामूहिक होनी चाहिए.
उधर जो राजनीतिक पंडित यह कह रहे हैं कि रामनाथ कोविंद ने बंगारू के पक्ष में गवाही दी थी, वो इस बात की याद नहीं दिला रहे हैं कि तब तो बीजेपी भी बंगारू के बचाव में ही थी.
भ्रष्टाचार का खेल यूं ही चलता रहेगा
कुछ क्षेत्रीय दलों की तो यह खुली राय भी है कि जब तक इस देश के सारे लोगों की संपत्ति का राष्ट्रीयकरण कर के उसका जनता में बराबर बंटवारा नहीं हो जाता तब तक भ्रष्टाचार थम नहीं सकता. यानी न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी और भ्रष्टाचार यूं ही चलता रहेगा.
कुछ क्षेत्रीय दलों द्वारा जनता के एक हिस्से को यह भी बताया जाता है कि राष्ट्रीय दल यानी कांग्रेस और बीजेपी सवर्ण वर्चस्व वाले दल हैं जहां पिछड़ों के लिए गुंजाइश काफी कम है.
तहलका कांड में सेना के जो अफसर फंसे थे उन पर सेना ने सख्त कार्रवाई जल्दी ही कर दी थी. लेकिन बंगारू के मामले में 11 साल लग गए.
इसी तरह बोफर्स घोटाले से संबंधित एफआईआर वीपी सिंह के कार्यकाल में दर्ज की गई. इसपर कोर्ट में आरोपपत्र अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में दायर किया गया. राजीव गांधी, नरसिंहा राव और मनमोहन सिंह की सरकारों पर आरोप लगा कि उसने बारी- बारी से बोफर्स सौदे में दलाली खाने वालों को बचाया ही
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