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SP-BSP Alliance: 25 साल पुराना इतिहास दोहराने के लिए माया-अखिलेश का महायज्ञ

बीजेपी के अंदरखाने में चल रही सरगर्मियों से साफ ज़ाहिर है कि इस गठबंधन का डर अच्छा खासा है

Utpal Pathak

आखिरकार देश के सबसे बड़े सूबे ने आगामी लोकसभा चुनावों की सबसे बड़ी राजनैतिक खबर को जन्म देकर एक बार फिर राजनैतिक गलियारों में हलचल मचा दी है. पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार, शनिवार दोपहर ठीक 12 बजे लखनऊ के एक पांच सितारा होटल में जब बीएसपी प्रमुख सुश्री मायावती और एसपी अध्यक्ष अखिलेश यादव एक मंच पर आए तो गठबंधन के औपचारिक ऐलान के बाबत उपस्थित मीडियाकर्मियों की सरगर्मी देखने लायक थी.

बहरहाल, इस गठबंधन की पटकथा 2017 में हुए विधानसभा चुनावों में हार के बावजूद बीसपी के स्थिर वोटबैंक के प्रतिशत को देखने के बाद अखिलेश के बीएसपी के प्रति लचीले रुख से साफ जाहिर होने लगी थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को मात देने लिए 23 साल पुरानी दुश्मनी भुलाकर एसपी-बीएसपी ने सूबे में एक बार फिर गठबंधन किया है, और आज की संयुक्त पत्रकार वार्ता के बाद राजनैतिक विश्लेषकों ने भी मान लिया है कि उत्तर प्रदेश की सियासत में नई इबारत लिखी जा रही है.


इतिहास के आईने में गठबंधन

बहरहाल, वर्तमान गठबंधन की तुलना अगर पिछले गठबंधन से करें तो अब शायद कमोबेश स्थितियां भी बिलकुल एक जैसी नहीं रही. नब्बे के दशक की शुरुआत में चली राम लहर के बाद बीजेपी को मिले ऐतिहासिक लाभ के बाद 1993 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के ठीक पहले एसपी-बीएसपी का गठबंधन हुआ था. वो दौर मंडल और कमंडल का था जहां एक तरफ हिंदूवादी विचारधारा थी और दूसरी तरफ मंडल के नाम पर देश भर की पिछड़ी जातियां एक छतरी के नीचे आकर खड़ी थीं. मुलायम सिंह यादव पिछड़ा वर्ग के जाति समूहों के बड़े नेता बनकर उभरे थे और राम मंदिर आंदोलन के कारण मुस्लिम मतदाता भी उनके साथ खड़े थे. दूसरी तरफ कांशीराम भी दलित और गैर यादव पिछड़ी जातियों के नेता बनकर उभरे थे. ऐसे में जब दोनों ने हाथ मिलाया तो एक मजबूत समीकरण तैयार हुआ और राम मंदिर की खुमारी में बैठी बीजेपी सत्ता में वापसी नहीं कर पाई थी.

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तत्कालीन बीएसपी प्रमुख मान्यवर कांशीराम और तत्कालीन एसपी प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने आपसी समझौते के बाद सीटों का बंटवारा किया और एसपी 256 और बीएसपी 164 विधानभा सीटों पर चुनाव लड़ी थी. नतीजे आने के बाद एसपी को 109 और बीएसपी को 67 सीटें मिलीं थीं. बीजेपी 177 सीटें ही जीत पाई थी और एसपी-बीएसपी ने मुलायम के नेतृत्व में सरकार बनाई थी. दोनों दलों के गठबंधन ने पिछड़ा, अति पिछड़ा व मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण अपने पक्ष में करके हिंदुत्व की लहर को खत्म कर दिया था. लेकिन 2 जून, 1995 को गेस्ट हाउस कांड के बाद एसपी-बीसपी के रिश्ते खराब हो गए और गठबंधन टूट गया और साथ ही यादव और दलितों के बीच एक गहरी खाई पैदा हो गई थी.

राम लहर बनाम मोदी लहर

2014 के लोकसभा चुनावों में मोदी लहर ने काम को बखूबी अंजाम दिया था और प्रदेश की 80 संसदीय सीटों में से बीजेपी गठबंधन 73 सीटें जीतने में सफल रही थी और शेष 7 सीटें विपक्ष को मिली थीं. नतीजे आने के बाद बीजेपी को 71, अपना दल को 2, कांग्रेस को 2 और एसपी को 5 सीटें मिली थीं, और बीएसपी को कोई सीट नहीं मिल पाई थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को उत्तर प्रदेश में 42.63% वोट मिले थे. एसपी को 22.35%, और बीएसपी को 19.77% वोट मिले थे, कांग्रेस को 7.53 % वोट मिले थे.

मोदी लहर ने 2017 के विधानसभा चुनावों में भी विपक्ष का खासा नुकसान किया और एसपी-बीएसपी समेत कांग्रेस को भी खासा नुकसान उठाना पड़ा था. लेकिन नोटबंदी के दूरगामी नुकसान और प्रदेश सरकार की नीतियों से खफा जनमानस ने एक साल बाद हुए उपचुनावों में ही गठबंधन के प्रत्याशियों के पक्ष में वोट देकर अपनी मंशा साफ कर दी और 3 लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में 2 पर एसपी और एक पर आरएलडी को जीत मिली और बीजेपी के पास सिर्फ 68 सीटें बची रह गई. बीजेपी अपने वर्तमान मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री की लोकसभा सीटें भी नहीं बचा पाई थी और इस लिटमस टेस्ट के बाद गठबंधन की तस्वीर स्पष्ट हो गई थी.

नपा-तुला गठबंधन और कांग्रेस का सिकुड़ना

अखिलेश यादव और मायावती ने कांग्रेस को अलग रखकर सूबे में गठबंधन का ऐलान कर दिया है. सीटों के बंटवारे भी हो गए हैं और दोनों दलों ने 38-38 सीटों पर चुनाव लड़ने की सहमति देते हुए 2-2 सीटें कांग्रेस और सहयोगी दल राष्ट्रीय लोक दल के लिए रिक्त छोड़ी हैं.

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शीर्ष पदस्थ सूत्रों की मानें तो शायद अखिलेश यादव आगामी दो महीनों में कुछ अन्य स्थानीय दलों से गठबंधन करके कुछ चुनिंदा सीटों पर उनके प्रत्याशियों को अपने चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ने का मौका दे सकते हैं. इसके साथ ही यह भी माना जा रहा है कि भले ही अमेठी और रायबरेली सीट पर गठबंधन अपने उम्मीदवार नहीं उतारेगा, लेकिन कुछ सीटों पर कांग्रेस के मजबूत प्रत्याशियों के समक्ष कुछ गैर नामचीन उम्मीदवार भी गठबंधन की ओर से उतारे जा सकते हैं.

ऐसा बड़ी ही सफाई के साथ किए जाने की उम्मीद है ताकि कांग्रेस से भीतरखाने में रिश्ते माकूल रहें और नतीजों के बाद साझा निर्णय लेने में आसानी हो. मायावती समेत अखिलेश यादव को भी इस बात का पूरा अंदाजा है कि मौजूदा सियासी माहौल और बदलते राजनीतिक और जातीय समीकरण के मद्देनजर 25 साल पहले जैसे हालात आज नहीं हैं. ऐसे में एक नपा-तुला गठबन्धन और जिताऊ प्रत्याशियों के माध्यम से ही बीजेपी को मात दी जा सकती है और शायद यही वजह है कि आने वाले हफ्तों में कुछ और अप्रत्याशित ऐलान होने भी संभव हैं.

हालिया जातिगत गणित और गठबंधन की उम्मीदें

मौजूदा आंकड़ों के हिसाब से उत्तर प्रदेश में 22 प्रतिशत दलित मतदाता हैं, जिनमें 14 फीसदी जाटव और चमार समुदाय के मतदाता शामिल हैं, शेष 8 प्रतिशत दलित मतदाताओं में पासी, धोबी, खटीक मुसहर, कोली, वाल्मीकि, गोंड, खरवार सहित 60 अन्य जातियां हैं. प्रदेश में 45 प्रतिशत के करीब अन्य पिछड़ा वर्ग के मतदाता हैं, जिनमें 10 प्रतिशत यादव, 5 प्रतिशत कुर्मी, 5 प्रतिशत मौर्य, 4 प्रतिशत लोधी और 2 प्रतिशत जाट मतदाता हैं. बाकी 19 प्रतिशत में गुर्जर, राजभर, बिंद, बियार, मल्लाह, निषाद, चौरसिया, प्रजापति, लोहार, कहार, कुम्हार सहित अन्य कई उपजातियां हैं. इसके अलावा लगभग 19 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता भी हैं जो अब गठबंधन की घोषणा के बाद स्थिर होकर किसी एक प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करने के लिए सक्षम होंगे.

बीजेपी 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनावों में गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों को अपने साथ मिलाने में कामयाब रही थी. बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद सरकार में इन दलित व ओबीसी जातियों के नेताओं को महत्वपूर्ण पद दिए हैं और ओबीसी समूहों को मिलने वाले 27 प्रतिशत आरक्षण को भी बीजेपी तीन संवर्गों में बांटने की रणनीति पर काम कर रही है. ऐसे में एसपी-बीएसपी गठबंधन के लिए सबसे बड़ी चुनौती गैर जाटव दलित और गैर यादव ओबीसी जातियों को अपने साथ जोड़ने की होगी. 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 39.6% वोट मिले तो एसपी और बीएसपी को 22 प्रतिशत वोट मिले थे कांग्रेस को मात्र 6 प्रतिशत वोट ही मिले थे. एसपी-बसपा के वोटों को मिला दें तो 44 फीसदी हो जाता है और इसी जादुई आंकड़े ने अखिलेश और मायावती दोनों ही के जेहन में उम्मीदें जगा रखी हैं.

बीते वर्षों में एसपी-बीएसपी पर आरोप लगता रहा है कि वे यादव, मुस्लिम और जाटवों को अधिक समर्थन देने वाली पार्टियां हैं. मौजूदा डिजिटल क्रांति और पलायनवाद के बीच बदलती राजनीति में गैर-यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों की भी राजनीतिक चेतना में पुनर्जागरण हुआ है. भीम आर्मी और ऐसे ही अन्य दल इस बात के साक्षी हैं, ऐसे में इन जाति समूहों को साधे बिना बीजेपी को मात देना अखिलेश और मायावती के लिए मुश्किल है और शायद इसी वजह से आने वाले हफ्तों में कुछ स्थानीय दलों को भी गठबंधन में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जोड़ने की कवायद होने की पूरी उम्मीद है.

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लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र गठबंधन के दावों कुछ हद तक सही मानते हुए बताते हैं कि 'बीजेपी की तरफ से 2014 वाले नतीजे दोहराए जाने की बातें अब गठबंधन की औपचारिक घोषणा के बाद बेमानी हो चली है. लोकसभा उपचुनावों में गठबंधन बने बगैर ही नतीजे बीजेपी के हाथ से निकल गए थे. दूसरी तरफ अखिलेश और मायावती दोनों ही इस समय राजनैतिक अस्तित्व को बचाए रखने की कवायद में पिछले कटु अनुभवों को भुलाकर अपने-अपने वोट एक दूसरे को ट्रांसफर करने के लिये एकमत हैं. ऐसे में 2019 के नतीजे आने के बाद बीजेपी अगर सिमटकर आधी सीटों पर आ जाए तो उसे हम चौंकाने वाले परिणाम के रूप में नहीं मान सकते क्योंकि इस बार गठबंधन का आधार मजबूत और माकूल दिखाई दे रहा है.'

कहना गलत नहीं होगा कि 25 साल बाद अखिलेश और मायावती के लिए पहले जैसे नतीजों को दोहराना एक बड़ी चुनौती है. 1993 में राम मंदिर आंदोलन से लाभ पाने वाली बीजेपी को हराने वाली मुलायम-कांशीराम की जोड़ी की तरह अखिलेश-मायावती की जोड़ी भी वैसा ही कमाल दिखा पाएगी या नहीं इसमें अभी संशय है, लेकिन बीजेपी के अंदरखाने में चल रही सरगर्मियों से साफ ज़ाहिर है कि इस गठबंधन का डर अच्छा खासा है.

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लखनऊ में इस बात की चर्चा इन दिनों आम है कि बीजेपी के कुछ मौजूदा सांसदों ने पिछले दिनों अखिलेश यादव से कई बार भेंट मुलाकात की है और उनमे से कई अब पाला बदलने की राह पर हैं. ऐसे में उत्तर प्रदेश के राजनैतिक खेमों में पेशबंदी और गुटबाजी का सीधा फायदा गठबंधन को मिलने की पूरी उम्मीद है.