view all

छत्तीसगढ़: लाल आतंक के साए वाले संवेदनशील इलाकों में क्यों कम हुआ मतदान

छत्तीसगढ़ विधानसभा के लिए चुनाव के पहले चरण में जिन 18 सीटों पर मतदान हुआ उनमें मतदाताओं की तादाद पहले के मुकाबले 18 फीसदी से ज्यादा कम रही.

Saurabh Sharma

छत्तीसगढ़ विधानसभा के लिए चुनाव के पहले चरण में जिन 18 सीटों पर मतदान हुआ उनमें मतदाताओं की तादाद पहले के मुकाबले 18 फीसदी से ज्यादा कम रही. हालांकि सूबे और केंद्र की सरकार ने छत्तीसगढ़ के रेड-कॉरिडोर कहे जाने वाले इलाके में खूब कोशिश की थी कि आदिवासी मतदाता प्रेरित हों और ज्यादा से ज्यादा तादाद में वोट डालने के लिए मतदान केंद्रों पर पहुंचे.

छत्तीसगढ़ के मुख्य चुनाव आयुक्त सुब्रत साहू की ओर से सोमवार की शाम एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई. इस विज्ञप्ति में मतदान वाले 10 अत्यंत संवेदनशील विधानसभा क्षेत्रों में वोट डालने आए मतदाताओं की संख्या का जायजा दिया गया है. विज्ञप्ति के मुताबिक सुबह सात बजे से दोपहर 3 बजे तक इन दस मतदान केंद्रों पर लगभग 52 फीसद मतदाता वोट डालने पहुंचे थे. बाकी आठ विधानसभा क्षेत्रों में मतदाताओं की तादाद 70.08 प्रतिशत रही. राज्य में 2018 की विधानसभा के लिए हुए पहले चरण के चुनाव में मतदान का औसत 60.49 प्रतिशत रहा जबकि 2013 के विधानसभा चुनाव में इन 18 विधानसभाई क्षेत्रों में 78.8 फीसद मतदाताओं ने वोट डाले थे.


मतदाताओं की संख्या में कमी आने की कई वजहें रहीं. एक तो माओवादियों ने चुनाव के बहिष्कार की धमकी जारी की थी. दूसरे, लोगों के मन में कांग्रेस तथा बीजेपी के विधायकों से नाराजगी भी थी. चुनाव करा रहे अधिकारियों की बड़ी चिंता ये थी कि मतदान-प्रक्रिया के दौरान किसी व्यक्ति की जान ना जाए क्योंकि पहले चरण के चुनाव से तुरंत पहले माओवादियों ने लगातार हमला बोला था.

माओवादियों ने बाधा पहुंचाने के लिए बहुत जोर लगाया था और इसी का सबूत है कि मतदान के दिन भी मुठभेड़ की दो घटनाएं पेश आईं. मुठभेड़ बीजापुर के पदीमा इलाके तथा सुकमा में हुई. इसमें छह माओवादी मारे गए तथा छह सुरक्षाकर्मी घायल हुए. घायल सुरक्षाकर्मियों को एयरलिफ्ट कर जगदलपुर पहुंचाया गया.

कातेकल्याण इलाके के तुम्कापाल-नयनार रोड के पास बने मतदान-केंद्र के नजदीक सुरक्षाबलों को निशाना बनाते हुए एक आइईडी विस्फोट भी हुआ था लेकिन इस हादसे में कोई घायल नहीं हुआ. बीजापुर तथा कांकेड़ के भानुप्रतापपुर में दो जगहों पर मतदान केंद्रों के नजदीक आइईडी विस्फोट के औजार मिले हैं. इन्हें बम-निरोधी दस्ते ने निष्क्रिय (डिफ्यूज) किया.

कुछ इलाकों में पूर्ण बहिष्कार

प्रतीकात्मक तस्वीर

चुनाव आयोग के अधिकारियों का कहना है कि कांकेड़ तथा सुकमा जिले में दूर-दराज के कुछ इलाकों में मतदाताओं ने चुनाव का बहिष्कार किया. चुनावी ड्यूटी के लिए लखनऊ से कांकेड़ आए एक चुनाव-पर्यवेक्षक ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया, 'सूची तैयार की जा रही है और हमलोग पोलिंग पार्टी (मतदान कराने वाली टोली) के लौटने का इंतजार कर रहे हैं. मतदाताओं ने जिन जगहों पर मतदान का बहिष्कार किया है उनमें एक गांव कांकेड़ का आमापानी है. गांववाले इस बात से नाराज थे कि उनका मतदान केंद्र बदलकर थीमा कर दिया गया था. शुरुआती सूचनाओं के मुताबिक, अधिकारियों ने उन लोगों को समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन गांव से कोई भी व्यक्ति वोट करने के लिए नहीं आया.

सूबे के मुख्यमंत्री रमन सिंह को उनके घरेलू निर्वाचन क्षेत्र में चुनौती दे रही, राजनांदगांव से कांग्रेस की उम्मीदवार करुणा शुक्ला ने कहा कि मतदाताओं का कम संख्या में आना सूबे की मशीनरी की नाकामी की दलील है. उन्होंने बताया, 'मतदान के शुरुआती घंटों (सोमवार) में कई जगहों से ईवीएम के खराब होने की खबरों आयीं और ऐसी जगहों पर टीवी चैनल पहुंच सकते थे लेकिन दूर-दराज के उन इलाकों के बारे में क्या कहिएगा जहां मीडिया नहीं पहुंच सकी? हमें जानकारी मिली है कि कई जगहों पर मतदान दिन में 10 बजे के बाद शुरू हुआ. सो, ये सारी बातें मतदाताओं के कम संख्या में आने के लिए जिम्मेदार हैं.'

ये भी पढ़ें: छत्तीसगढ़ चुनाव: यहां नोटा नेताओं का सबसे बड़ा राजनीतिक दुश्मन है

बहरहाल, जगदलपुर से बीजेपी के उम्मीदवार संतोष बाफना ने यह मानने से इनकार किया मतदाताओं की संख्या कम रही. उनका दावा था कि ‘वास्तविक’ मतदान ज्यादा रहा होगा. बाफना ने कहा, 'पोलिंग पार्टी अभी जंगलों से लौट रही है, उनके वापस आने के बाद ही चुनाव आयोग डेटा का सही-सही आकलन कर पायेगा. अभी कोई टिप्पणी करना जल्दबाजी होगी.'

सूबे में हुए पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले जिन निर्वाचन-क्षेत्रों में मतदाताओं की संख्या में सबसे ज्यादा कमी आई हैं उनमें अनतागढ़ (यहां 2013 के मुकाबले 33.75 प्रतिशत कम मतदान हुआ), नारायणपुर (30.38 प्रतिशत), कोंडागांव (22.44 प्रतिशत), भानुप्रतापपुर (22.26 प्रतिशत) तथा केशकल (20.19 प्रतिशत) का नाम शामिल है. विडंबना देखिए कि चुनाव के पहले चरण में जिन 18 निर्वाचन-क्षेत्रों में वोट पड़े उनमें किसी में मतदान का प्रतिशत 2013 के चुनावों के मुकाबले ज्यादा नहीं रहा. इस तरह सरकार की यह दलील बेबुनियाद साबित हुई कि आदिवासियों को लोकतांत्रिक ढांचे में शामिल करने के लिए रेड-कॉरिडोर में अर्द्धसैनिक बलों की मौजूदगी बढ़ाना मददगार होगा.

बहरहाल, सुरक्षाबल सुकमा जिले के भेज्जी, किस्ताराम और कोंटा एसी के बांदा में मतदान करवाने में सफल रहे. इन जगहों पर 2013 में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान एक भी वोट नहीं पड़ा था साल 2013 में बस्तर संभाग के सुकमा, बीजापुर तथा दंतेवाड़ा में कुल मिलाकर 53 मतदान-केंद्र ऐसे रहे जिनपर पर एक भी व्यक्ति वोट डालने नहीं आया.

पिछली बार की तुलना में मतदान का सबसे कम अंतर (2.19 प्रतिशत) कोंटा निर्वाचन क्षेत्र में रहा. यहां 46.19 प्रतिशत वोटिंग हुई. अन्य निर्वाचन क्षेत्रों जैसे कांकेड़ (17.14 प्रतिशत), डोंगरागांव (14.27%), बस्तर (13.95%),खैरागढ़ (14.26%),दंतेवाड़ा (13.03%), खुज्जी (13.01%) तथा मोहला मानपुर (13.52%) में भी पिछले बार के मुकाबले वोटिंग में गिरावट आई है.

'लोगों को मतदान केंद्र तक लाना बहुत मुश्किल'

चित्रकूट में तैनात कोबरा यूनिट के एक सीआरपीएफ कमांडेंट ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया कि सुरक्षाबलों की मुख्य चिन्ता थी कि चुनाव-प्रक्रिया के दौरान लोगों की जान ना जाय. कमांडेन्ट ने कहा, 'चाहे कोई आम नागरिक हो या फिर फौजी-उसकी जान की हिफाजत करते हुए शांतिपूर्ण तरीके से वोट डलवाना बहुत ही मुश्किल काम था. हमने अपनी तरफ से काम को बेहतर तरीके से कर दिखाने की हरचंद कोशिश की और हमारे कुछ जवान घायल भी हुए हैं लेकिन सुरक्षाबलों को अपने काम के नतीजे से खुशी हो रही है क्योंकि इस बार उन जगहों पर भी मतदान हुआ है जहां पिछली बार नहीं हो पाया था.'

सीआरपीएफ के अधिकारी ने बताया कि लोगों को मतदान केंद्रों तक लाना बहुत मुश्किल काम था. उसने कहा, 'हमें लोगों को समझाना पड़ रहा था कि उनकी हिफाजत के लिए मौके पर पर्याप्त संख्या में जवान तैनात किये गये हैं लेकिन समझाने के बावजूद लोग घर से कदम आगे बढ़ाने में हिचकिचा रहे थे. कोई दूसरा घर से बाहर निकले तो उसे ऐसा करता देखकर ही वो अपने घर से बाहर निकल रहे थे.'

कम वोटिंग वाले निर्वाचन क्षेत्रों के रिटर्निंग ऑफिसर तथा जिला कलेक्टरों ने इस साल मतदान केंद्रों पर वोट डालने पहुंचे मतदाताओं की संख्या में आई कमी पर किसी किस्म की टिप्पणी करने से इनकार कर दिया. इन लोगों का कहना था कि चुनाव आयोग ऐसे सवालों का उत्तर दे सकेगा.

ये भी पढ़ें: रमन सिंह का गढ़ सुरक्षित, लेकिन बाकी छत्तीसगढ़ में BJP के लिए कड़ी चुनौती

हिन्दी भाषा में बनी फिल्म न्यूटन में पत्रकार की भूमिका निभाने वाले मंगल कुंजम भी नक्सलियों के भय से अपना वोट नहीं डाल सके. न्यूटन फिल्म में दिखाया गया है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने में कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. नक्सल-प्रभावित दंतेवाड़ा जिले के किरान्डुल इलाके के किरोली गांव के निवासी मंगल कुंजम ने कहा कि उनके गांव के कुछ ही लोग वोट डालने का साहस दिखा सके क्योंकि नक्सलियों ने बायकाट का ऐलान किया था.

सत्ताईस साल के कुंजम ने कहा, 'पोलिंग पार्टी भारी सुरक्षा बंदोबस्त के बीच कुछ लोगों को मतदान केंद्र तक ले आयी. ऐसा करने के पीछे कारण रहा कि कहीं जीरो वोटिंग ना हो. पिछले चुनाव में ऐसा हो चुका था और इस बार इससे बचना था.'

पूर्व नक्सल 40 वर्षीय मैनूराम ने पांच साल पहले आत्म-समर्पण किया था. अब वो मिस्त्री का काम करते हैं और अपना जाति-सूचक सरनेम नहीं लिखते. उन्होंने अपनी पत्नी राजबती के साथ नरायणपुर में वोट डाला. मैनूराम का कहना है कि मतदान करना हर किसी का अधिकार है और हर किसी को वोट डालना चाहिए ताकि बेहतर सरकार बने. मैनूराम ने वोट डालने के बाद मीडिया से बात करते हुए कहा, 'नक्सलियों से हमारी हिफाजत के लिए भारी संख्या में सुरक्षाबल तैनात किये गए हैं. पुलिस और सुरक्षाबलों की मौजूदगी के कारण मुझे किसी भी नक्सल या देशविरोधी तत्व से भय नहीं लग रहा. बाकी लोगों को भी चाहिए कि वो बाहर निकलें और वोट डालें.'

चित्रकूट एसी के गांव लोहानडिगुडा के एक मतदाता 45 वर्षीय राम चंद्र बघेल ने जान बचाने के गरज से वोट नहीं डाला. उनका कहना है कि उनके के गांव के 400 लोगों में सिर्फ पांच ने ही वोट डाला है. राम चंद्र बघेल ने बताया, 'वोट डालने गये ये पांच लोग स्कूल के शिक्षक या फिर ऐसे ही पदों पर काम करने वाले सरकारी कर्मचारी हैं. इन पर वोट डालने के लिए दवाब था और मुझे पता है कि ये लोग भी डरे हुए थे.' बघेल का कहना था कि मतदान से एक दिन पहले रात के वक्त नक्सलियों ने उनके गांव में परचा डाला था और चेतावनी दी थी कि मतदान-प्रक्रिया में भाग ना लें.

बघेल ने कहा, 'मैं जिन्दा रहना चाहता हूं, इसलिए मैंने वोट नहीं डाला. नक्सलियों ने हमें गंभीर नतीजे भुगतने की चेतावनी दी थी और मैं अपने परिवार के साथ जिन्दा रहना चाहता हूं. जोखिम क्यों लेना, जान है तो जहान है.'

लोहानिगुडा के जिन लोगों ने वोट डाले हैं वे भी भयभीत हैं. वोट डालने वाले पांच लोगों में से एक कमल मेडिया ने कहा कि ‘मैं कुछ दिनों के लिए गांव छोड़ रहा हूं क्योंकि वामपंथी चरमपंथी मुझे दंड दे सकते हैं. मैं नहीं चाहता कि मेरी अंगुलियां काटी जायें. मैं वोट डालकर अफसोस में हूं. मैं नहीं जानता कि मैंने ऐसा क्यों किया. मैं कुछ दिनों तक लिए बस्तर चला जाता हूं और जबतक कि अंगुली पर लगा स्याही का दाग मिट नहीं जाता मैं वहीं रहूंगा.” मेडिया इस बात से नाराज हो रहे थे कि मीडिया उनकी स्याही लगी अंगुली की तस्वीरें ले रही है.

कम मतदाता मतलब निष्पक्ष मतदान?

इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया

चुनाव आयोग ने कहा है कि चुनाव के पहले चरण की वोटिंग के लिए 18 निर्वाचन-क्षेत्रों में मतदाताओं की कुल संख्या 31,80,014 थी. इनमें 16,22,492 की तादाद में महिला हैं, पुरुष मतदाताओं की संख्या 15,57,435 है जबकि थर्ड जेंडर के मतदाताओं की संख्या 87 है. मतदान कुल 4341 केंद्रों पर हुआ.

मोहला मानपुर, अनतागढ़, भानुप्रतापपुर, कांकेड़, केशकल, कोंडागांव, नरायणपुर, दंतेवाड़ा, बीजापुर तथा कोंडागांव सबसे संवेदनशील निर्वाचन क्षेत्र हैं. इन 10 निर्वाचन क्षेत्रों में मतदान सुबह सात बजे से शुरू हुआ और दोपहर के 3 बजे तक जारी रहा. बाकी के आठ निर्वाचन क्षेत्रों में मतदान सबेरे 8 बजे शुरू हुआ और शाम के 5 बजे तक चला. इन आठ निर्वाचन क्षेत्रों के नाम हैं – खैरागढ़. डोंगरगढ़, राजनांदगांव, खुज्जी, बस्तर, जगदलपुर तथा चित्रकूट.

छत्तीसगढ़ के सियासी मामलों के विशेषज्ञ डॉ. विक्रम सिंह का कहना है कि 2013 में बस्तर संभाग में ज्यादा संख्या मतदाता वोट डालने के लिए पहुंचे तो इसकी एक वजह थी कि झिरम घाटी हमले के कारण लोगों में कांग्रेस के प्रति सहानुभूति की लहर उमड़ी थी. इस हमले में कांग्रेस के 12 नेता मारे गए थे. डॉ. सिंह के मुताबिक, 'साल 2013 में वोटिंग का प्रतिशत ऊंचा था क्योंकि उस वक्त झिरम(घाटी) वाला वाकया पेश आया था जिसमें कांग्रेस के नेताओं समेत बहुत से लोग मारे गये. यह घटना लोगों को लामबंद करने में मददगार रही लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ.'

उन्होंने यह भी कहा कि मतदाताओं के मतदान केंद्रों से दूर रहने के पीछे एक कारण नक्सलियों का प्रचार-अभियान भी है. नक्सलियों ने चुनाव के खिलाफ जोर-शोर से अभियान चलाया और मतदान से तुरंत पहले के दिनों में छोटे-बड़े 15 हमले किए.

25 मई 2013 को हुआ झिरम घाटी का हमला माओवादियों के हाल के सबसे घातक हमलों में शुमार है. इस हमले में 27 लोगों की जान गई जिसमें कांग्रेस के नेता नंदकुमार पटेल, विद्याचरण शुक्ल तथा महेन्द्र कर्मा शामिल हैं.महेन्द्र कर्मा को माओवादियों ने बुरी तरफ मारा-पीटा, चाकू घोंपा और उनके पूरे शरीर को गोलियों से छलनी कर बेरहमी से हत्या की थी. डा. सिंह का कहना है कि पहले चरण के चुनाव में 18 निर्वाचन क्षेत्रों में ज्यादातर पर राजनीतिक दलों ने पुराने उम्मीदवार ही खड़े किये थे. इस कारण लोगों में प्रत्याशियों को लेकर उत्साह जरा कम था और यह भी मतदान-प्रतिशत के कम होने का एक कारण रहा.

रायपुर के निवासी राजनीतिक विश्लेषक अशोक तोमर का कहना है कि मतदाताओं का कम तादाद में पहुंचना मतदान के निष्पक्ष होने का एक संकेत हो सकता है. उन्होंने कहा कि “ मतदाताओं की तादाद ज्यादा रहने पर फर्जी मतदान की आशंका बढ़ जाती है लेकिन इस बार यह बात एकदम साफ है कि मतदान निष्पक्ष तरीके से हुआ है.” उन्होंने बताया कि नक्सलियों ने धमकी जारी की थी कि जो लोग वोट डालने जायेंगे उनकी अंगुलियां काट दी जायेंगी, सो यह भी मतदाताओं के कम तादाद में पहुंचने की एक वजह हो सकता है.

(लेखक स्वतंत्र लेखन करते हैं और ग्राउंड रिपोर्टर्स के अखिल भारतीय नेटवर्क 101reporters.com, के सदस्य हैं.)