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SC/ST एक्ट: मायावती ने भी कभी दलित एक्ट को कमजोर करने वाला फैसला लिया था

शायद मायावती को यह ध्यान नहीं रहा कि आज से 11 साल पहले स्वयं उन्होंने इस कानून के कार्यान्वयन के बारे में दो आदेश जारी किए थे

Naveen Joshi

सन 1989 के अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) कानून के संदर्भ में, जिसे संक्षेप में एसटी-एसटी एक्ट के नाम से जाना जाता है, सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नए दिशा-निर्देश जारी किए तो उसके विरोध में हुए उग्र दलित आंदोलन का मायावती ने फौरन समर्थन किया. उन्होंने आरोप लगाया कि मोदी सरकार अदालत के माध्यम से इस कानून को कमजोर करके दलितों की हकमारी कर रही है. यह भी कि दलितों को एससी-एसटी कानून की सुरक्षा बाबा साहेब अंबेडकर के प्रयासों और लंबे आंदोलन के बाद मिली है. मायावती ने यह चेतावनी भी दी कि एनडीए सरकार की यह साजिश बर्दाश्त नहीं की जाएगी.

कानून के कतिपय प्रावधानों पर सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के संदर्भ में यह बयान देते हुए शायद मायावती को यह ध्यान नहीं रहा कि आज से 11 साल पहले स्वयं उन्होंने इस कानून के कार्यान्वयन के बारे में दो आदेश जारी किए थे. ये आदेश भी लगभग ऐसे ही थे जैसे बीती 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने जारी किए हैं.


आज सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को एस-एसटी एक्ट को कमजोर करने वाला मानने वाली मायावती को सन 2007 में अपने फैसले इस एक्ट को नरम करने वाले नहीं लगे थे. राजनीति भी नेताओं से कैसे-कैसे विरोधाभासी काम कराती है.

सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च के निर्देशों में यह कहा है कि इस एक्ट का दुरुपयोग भी होता है. इसलिए ऐसे उपाय जरूरी हैं कि निर्दोष व्यक्ति प्रताड़ित नहीं किए जाएं. 20 मई 2007 को उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मायावती सरकार ने भी अपने आदेश में यही कहा था कि एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग हो रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने आदेश में यही कहा है कि चूंकि यह एक्ट बहुत सख्त है इसलिए निर्दोष को इसमें फंसाए जाने से बचाना जरूरी है.

मायावती ने खुद लिया था ऐसा ही फैसला

तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती के निर्देश पर तत्कालीन मुख्य सचिव शम्भू नाथ ने 20 मई 2007 को एससी-एसटी एक्ट के बारे में पहला आदेश जारी किया था. उस लंबे आदेश के एक बिंदु का सारांश यह था कि (दलितों-आदिवासियों की) हत्या और बलात्कार जैसे संगीन अपराध ही एससी-एसटी एक्ट में दर्ज किए जाएं. इससे कमतर अपराध इस एक्ट की बजाय भारतीय दण्ड संहिता यानी आईपीसी के अंतर्गत लिखे जाएं. यह फैसला उन्होंने सत्ता में आने के चंद रोज बाद ही किया था.

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अगर यह यह एससी-एसटी एक्ट को कमजोर करना था तो उसे और भी कमजोर बनाने वाला अगला आदेश मायावती ने करीब पांच महीने बाद,  29 अक्टूबर 2007 को जारी करवाया. तब के मुख्य सचिव प्रशांत कुमार ने पुलिस महानिदेशक तथा सभी वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के नाम जारी आदेश में कहा था कि यदि किसी (दलित) ने निर्दोष व्यक्ति को एससी-एसटी में झूठे आरोप में फंसाया है तो शिकायतकर्ता के खिलाफ धारा 182 में रिपोर्ट दर्ज की जाए.

गैर-बीएसपी दलित नेताओं ने उस वक्त इन आदेशों के लिए मायावती सरकार की निंदा की थी. इसे एससी-एसटी एक्ट को निष्प्रभावी बनाने वाला बताया था. यह भी आरोप लगाया था कि मायावती सरकार सवर्णों के इशारे पर नाच रही हैं.

मायावती तब सवर्ण नेताओं के इशारे पर चल रही थीं या नहीं, लेकिन 2007 का चुनाव उन्होंने अपनी उस कथित ‘सोशल इंजीनयरिंग’ के कारण जीता था जिसमें सवर्णों, विशेष रूप से ब्राह्मणों को बहुत महत्त्व दिया गया था. माना यही गया था कि मायावती की इसी सोशल इंजीनियरिंग के कारण बीएसपी को विधानसभा में पूर्ण बहुमत मिला. उन्होंने दलितों से ज्यादा टिकट सवर्णों को दिए थे, जिनमें सबसे बड़ी संख्या ब्राह्मणों की थी. मायावती के मंत्रिमण्डल में तब ब्राह्मण-ठाकुर अच्छी संख्या में थे. निगमों में भी कई सवर्णों को राज्यमंत्री का दर्जा देकर महत्त्व दिया गया.

सवर्णों को फायदा पहुंचाने का आरोप लगा था

यह वही समय था जब दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद ने मायावती को आगाह किया था कि वे बहुजन आंदोलन के रास्ते से भटक रही हैं. इसी दौर में कांशीराम के समय से बीएसपी को मजबूत करने में लगे कई दलित नेताओं का मायावती से मोहभंग शुरू हुआ. उन्होंने सत्ता के लाभ सवर्णों को पहुंचाने पर भीतर-भीतर नाराजगी व्यक्त की थी. कालान्तर में उनमें से कई जमीनी दलित नेता बीएसपी छोड़ गए या मायावती ही ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया. 2012 के विधानसभा चुनाव में मायावती को पराजय का मुंह देखना पड़ा.

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सन 2007 की चुनावी सफलता से पहले मायावती एससी-एसटी एक्ट के बारे में बहुत सख्त थीं. उसे किसी भी तरह कमजोर करना उन्हें मंजूर न था. 1995 में गेस्टहाउस कांड के बाद समाजवादी पार्टी से उनका गठबंधन टूटा और मायावती भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से मुख्यमंत्री बनीं तब दलित अत्याचार के मामलों में एससी-एसटी एक्ट लगाने पर उनका जोर रहता था. बीजेपी में इस पर बेचैनी फैली थी और उसने विरोध भी दर्ज कराया था. जल्दी ही बीजेपी से उनके रिश्ते बिगड़ गए थे. उसका एक कारण यह एक्ट भी था.

आज फिर स्थितियां बदल गई हैं. 2012 के विधानसभा और 2014 के लोकसभा चुनाव ने उन्हें हाशिए पर धकेल दिया. बीजेपी ने उनके दलित वोट में सेंध लगाई. आज उन्हें अपने दलित आधार को वापस पाने की सख्त जरूरत है. इसीलिए वे सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बहाने बीजेपी पर खूब हमलावर हैं.