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अंबेडकर और कांशीराम होते तो इस भारत-बंद का जरूर विरोध करते

2 अप्रैल को हुआ भारत बंद एक बार फिर ये साबित करता है कि कैसे इस देश का संपन्न एवं बुद्धिजीवी वर्ग पिछड़े तबके की राजनीति के मुद्दे तय कर देता है और फिर इस पिछड़े वर्ग को ही दोषी भी बना देता है.

Updated On: Apr 04, 2018 09:38 PM IST

Saqib Salim

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अंबेडकर और कांशीराम होते तो इस भारत-बंद का जरूर विरोध करते

2 अप्रैल को हुआ भारत बंद एक बार फिर ये साबित करता है कि कैसे इस देश का संपन्न एवं बुद्धिजीवी वर्ग पिछड़े तबके की राजनीति के मुद्दे तय कर देता है और फिर इस पिछड़े वर्ग को ही दोषी भी बना देता है.

शायद किसी को इस पर शक नहीं होगा कि भीमराव अंबेडकर और कांशीराम से अधिक किसी ने इस सदी में दलितों के उत्थान के लिए काम नहीं किया. दोनों के बीच वैचारिक असमानताएं होने के बावजूद दोनों ने देश के पिछड़े वर्ग के लिए जो किया उसको कोई नकार नहीं सकता.

जहां एक ओर अंबेडकर का मानना था की जाति को खत्म कर देना ही दलित उत्थान का एकमात्र रास्ता है, कांशीराम का कहना था कि भारतीय समाज में जाति का खात्मा एक सपने जैसा ही है. इस कारण जाति को खत्म करने के बजाए दलित और पिछड़ों को चाहिए कि वे अपनी जाति को मजबूत करें. वे मानते थे की जिस जाति व्यवस्था से पिछड़ों को सदियों से शोषित किया गया है उस ही जाति का इस्तेमाल उनको मुख्यधारा में बराबरी का दर्जा दिला सकता है. कांशीराम का अंबेडकर के बारे में कहना था कि उन्होंने किताबों से भारतीय समाज को जाना था, जबकि उन्होंने उसी समाज में रहकर सच्चाई समझी थी.

इन सब के बावजूद ये एक तथ्य है कि ये अंबेडकर के प्रयासों का ही नतीजा था कि दलितों को इस देश में बराबर संवैधानिक एवं राजनीतिक अधिकार मिले जिसकी नींव पर कांशीराम ने भारत में पहली बार दलितों को सत्ता के गलियारे तक पहुंचाया था.

ऐसा नहीं कि इस से पहले किसी दलित ने राजनीतिक पद ग्रहण नहीं किया था. खुद अंबेडकर भारत के कानून मंत्री रहे और जगजीवन राम गृहमंत्री लेकिन ये दोनों खुद दलित नेता के रूप में सत्ता पर काबिज नहीं हुए थे बल्कि कांग्रेस की सरकारों के मंत्री थे. दूसरी ओर जब 1995 में मायावती ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली तो वे भारत के सबसे बड़े राज्य में एक ऐसी पार्टी से कुर्सी पर बैठी जिसका चुनावी नारा ही ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’था. तब के भारत के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने इसको 'लोकतंत्र का करिश्मा' कहा था.

शुरुआती दिनों में सायकिल पर यूपी में यात्रा करते थे कांसीराम

शुरुआती दिनों में सायकिल पर यूपी में यात्रा करते थे कांसीराम

बात निकली है तो दूर तलक आई है. यहां उद्देश्य अंबेडकर या कांशीराम के राजनीतिक जीवन के बारे में बताना कतई नहीं था. दरअसल भारत बंद को इन दो बड़े दलित विचारकों के प्रकाश में देखने की आवश्यकता है.

सबसे पहले सवाल ये है कि ये बंद का आह्वान किसने किया था? भारत की सबसे बड़ी दलित पार्टी बहुजन समाज पार्टी ने बंद से पहले इस के बारे में कोई औपचारिक या अनौपचारिक बयान नहीं दिया था. मैं खुद बंद के दिन और उससे पहले मुजफ्फरनगर में था जहां हिंसा में एक युवक की मौत भी हुई. इस शहर में बीएसपी के नेता बंद की सुबह तक भी बंद को लेकर चुप ही थे और कहीं बाहर नहीं निकले थे. तो आखिर बंद कराया किसने?

आधुनिक समय में सोशल मीडिया कई बार बहुत कुछ करा देता है. बंद का आह्वान फेसबुक से चला था जिसको विभिन्न दलित बुद्धिजीवियों ने साझा किया. रातों रात दलित युवा साथ हो लिए. आज मजरूह सुल्तानपुरी जिंदा होते तो शायद कहते:

'मैंने एक ही पोस्ट किया था फेसबुक पर मगर,

लोग साझा करते गए बंद होता गया'

खैर ये मजाक की बात नहीं है. ये जानना जरूरी है की ऐसा आखिर क्या था की मंझे हुए दलित नेता, खुद मायावती, ये बंद नहीं करा रहे थे. जबकि कुछ बुद्धिजीवी जो ए.सी कमरों में बैठते हैं वो ये बंद चाहते थे.

सबसे पहले ये जानना जरूरी है कि अंबेडकर हड़ताल को कैसे देखते थे. जब अंबेडकर थे तब देश में अधिकतर हड़ताल ट्रेड यूनियन कराती थीं जो लेफ्ट विचारधारा से प्रभावित थीं. अंबेडकर इन हड़तालों के विरोधी थे. उनका मानना था कि दलित क्योंकि रोज कमाने और खाने वाले मजदूर हैं इस कारण एक भी दिन का काम बंद होना उनके लिए आजीविका की समस्या बन जाएगा.

हड़ताल ऊंची जाति के लोग कर सकते हैं जिनके पास कुछ दिन घर चलाने की बचत हो या जो खुद मालिक हों. उनका नुकसान तो होता है परंतु उनके सामने भूख से मरने का सवाल नहीं खड़ा हो जाता. आपको क्या लगता है आज अगर अंबेडकर होते तो उन दिहाड़ी के मजदूरों की न सोचते? जिसकी गाड़ी बंद में जली है वो भूखा नहीं है पर जो दलित रोज सामान उठा कर दो सौ रुपए घर ले जाता है ताकि खाना बने उसको तो खाना नहीं मिला. और यकीन जानिए ये मजदूर अधिकतर दलित और पिछड़ी जाति के हैं.

कांशीराम भी अधिकतर इस सिद्धांत में विश्वास रखते थे. अगर किसी को 90 का दशक याद हो जब आए दिन बीजेपी भारत बंद कराती थी और समाजवादी पार्टी जेल भरो आंदोलन करती थी तब बीएसपी ने ऐसा कभी नहीं किया. ऐसा न करने का एक कारण तो वही था जो अंबेडकर देते थे कि एक भी दिन बाजार के बंद होने से दलित मजदूर भूख से मरने लगेगा. दूसरा कारण ये भी था कि वो मानते थे की जबकि पुलिस और बाकी सरकार बहुजन विरोधी है तो उनके खिलाफ अनुचित बल का प्रयोग भी होगा जिस से नुकसान बहुजनों का ही होगा. इसका प्रमाण इस से मिल जाता है कि दंगे के दौरान भड़की हिंसा में दलित ही मारे गए.

ऐसे में बीएसपी का बंद का आह्वान न करना पुरानी रणनीति का हिस्सा ही था. तो ये कौन लोग थे जो बंद कराना चाहते थे? ज्यादातर बुद्धिजीवी जो बंद का समर्थन कर रहे थे वे कभी न कभी या तो लेफ्ट के साथ थे या आज भी हैं. भले ही वे आज लेफ्ट के साथ न हों लेकिन उनके ‘बौद्धिजैविक विकास' में लेफ्ट विचारधारा का प्रभाव है. ये विचारधारा हड़ताल, बंद आदि में विश्वास रखती आई है जिसको बाद में कांग्रेस और फिर संघ परिवार ने भी बखूबी अपनाया है. ये लोकतंत्र से अधिक भीड़ को इकठ्ठा करने में भरोसा रखते हैं. यही कारण हैं कि ये लोकसभा जीतने पर कम और आंदोलन पर अधिक जोर देते हैं.

दूसरी ओर कांशीराम लोकतंत्र और राजनीतिक ताकत पर जोर देते थे. ये जान कर आपको हैरानी होगी कि वे यहां तक कह चुके थे कि हमसे आरक्षण ले लो और सत्ता हमें दे दो. वो लोगों को रोज-रोज सड़क पर उतरने को नहीं कहते थे बल्कि समाज को अंदर से जागरूक कर एक जगह मताधिकार का प्रयोग करने को कहते थे. उनकी नजर में सत्ता ‘गुरु किल्ली' थी जिसको प्राप्त करना ही एकमात्र लक्ष्य था. वे जानते थे सड़क पर उतरे पिछड़े वर्ग को पुलिस की गोली का सामना करना पड़ता है. ये ऊंची जाति का प्रदर्शन नहीं था जहां आंसू गैस चलाई जाती है. उन्हें पाता था कि भारत लोकतंत्र है और जब तक दलित वोट एक जगह देगा उसके अधिकार सुरक्षित हैं.

Ambedkar

सत्ता ही वो कुंजी है जिस से बहुजन उत्थान हो सकता है. अभी इस बंद से क्या हुआ? एसपी, बीएसपी, कांग्रेस, राष्ट्रीय लोकदल आदि में जो गठजोड़ की बात चल रही है उस पर खतरा मंडराने लगा है. जो बुद्धिजीवी सुबह शाम ब्राह्मणों पर सारा दोष मढ़ते हैं वो शायद ये भूल जाते हैं कि दलित विरोधी अपराध अधिकतर ग्रामीण इलाकों में होते हैं. ये अपराध वो किसान ज्यादा करते हैं जिनकी जमीन दलित जोतता है. इस कारण जमीन पर देखा जाए तो इस लिहाज़ से ओबीसी और दलित आमने सामने होता है. अब क्या क़ानून को बचाने के लिए ये सब पार्टी बोल पाएंगी?

ध्यान रखिए दलितों के साथ वही हो रहा है जो मुसलामानों के साथ सैंकड़ों बार हो चुका है. इनको सड़क पर उतरने पर मजबूर किया गया, फिर कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा झडपें कराई गईं और फिर पुलिस ने कार्रवाई कर दी. इन सब में सब से मजेदार बात ये होती है कि जिनको दंगाई कहा जाता है वे ही बेचारे अपनी जान से जाते हैं. काश अंबेडकर और कांशीराम की बात ये बुद्धिजीवी सुनते और ये बंद न बुलाते तो बहुत से दलितों की जान बच जाती, सैंकड़ों जेल न जाते और दलित अगले चुनाव में बेहतर रणनीति के साथ सत्ता पर काबिज होकर ये कानून बनवा सकते थे. आखिर ‘गुरु किल्ली' सत्ता है.

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