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राजस्थान: कांग्रेस में पायलट के युवा ओज पर गहलोत का अनुभव क्यों पड़ा भारी?

सचिन पायलट अपनी परिपक्वता का परिचय कांग्रेस को राज्य में सरकार बनाने का बहुमत दिलाकर सिद्ध कर चुके हैं. फिर उनके सिर पगड़ी रखने में राहुल को गुरेज क्यों हुई?

Anant Mittal

राजस्थान और मध्य प्रदेश में राहुल गांधी क्या प्रदेश के युवा नेताओं से डर गए अथवा बुजुर्गों को कमान सौंपकर उन्होंने अभी अपनी जड़ें कांग्रेस संगठन में और मजबूत होने तक अपनी राय दो टूक मनवाने के इंतजार का फैसला किया है? युवा ओज के मुकाबले निस्तेज अनुभव को तरजीह देने की तीसरी वजह राहुल का भी अपनी मां और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की तरह नेताओं को अपनी योग्यता साबित करने का मौका देने और उनके प्रदत्त नतीजों के आधार पर उनकी तरक्की या पदावनति के फैसले की रणनीति अपनाना है.

इस तरह ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट के बजाए कमलनाथ और अशोक गहलोत के सिर पर ताज रखकर काग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने राजनीतिक कयासों का पिटारा खोल दिया है. इनमें सबसे पहला अनुमान यह लग रहा है कि राहुल भी अपने पूर्वजों राजीव गांधी और इंदिरा गांधी की कार्यशैली के अनुरूप किसी भी युवा नेता की जड़ें कांग्रेस में मजबूत नहीं होने देना चाहते ताकि वो कल को उनका प्रतिद्वंद्वी न बन पाएं.


राजेश पायलट और माधवराव सिंधिया से सबक ले रहे हैं राहुल?

गौरतलब है कि सचिन पायलट के पिता राजेश पायलट ने सोनिया गांधी के मुकाबले कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ने का माद्दा दिखाया था. इसी तरह बोफोर्स तोप दलाली कांड में राजीव गांधी पर उंगली उठने के दौरान और उनकी जघन्य हत्या के बाद भी ज्योतिरादित्य सिंधिया के मरहूम पिता और तत्कालीन केंद्रीय मंत्री माधवराव सिंधिया को कमान सौंपने की आवाजें उठी थीं. ऐसे में यह कयास लगना अस्वाभाविक नहीं है कि राहुल गांधी ने अपनी गद्दी सबसे उंची बनाए रखने के लिए युवा के बजाए बुजुर्ग नेतृत्व को मध्यप्रदेश और राजस्थान की कमान सौंपी है.

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कांग्रेस के इन भीतरी निर्णयों के बारे में दूसरी धारणा यह बन रही है कि राहुल गांधी की अपनी मां सोनिया गांधी और उनके पूर्व राजनीतिक सलाहकार और कांग्रेस के कोषाध्यक्ष अहमद पटेल के आगे दाल नहीं गल रही. इसीलिए उन्हें मजबूरन बुजुर्ग नेताओं की हां में अपनी हां भी मिलानी पड़ी और सचिन और ज्योतिरादित्य टापते रह गए. कयास तो यहां तक है कि अहमद पटेल 2019 की रणनीति के नाम पर सोनिया गांधी की मार्फत कांग्रेस में अपना और अपने पुराने साथियों का ही पउवा भारी रखे हुए हैं.

अपनी हैसियत मजबूत होने तक हां में हां मिला रहे हैं राहुल?

पटेल अपने रसूख की मार्फत राहुल गांधी को इस बिनाह पर कमलनाथ और गहलोत को मुख्यमंत्री बनाने के लिए सहमत कर पाए कि यह दोनों ही नेता 2019 के चुनाव में कांग्रेस के वास्ते फंड जुटाने में कामयाब रहेंगे जो शायद पायलट और सिंधिया उतनी दक्षता से नहीं कर पाएंगे. राजनीतिक पंडितों के अनुसार अपने पर दबाव बनता देख राहुल ने भी इससे सहमति जताने में तब तक अपनी भलाई समझी जब तक पार्टी में उनकी हैसियत और मजबूत नहीं हो जाती. वैसे भी राहुल गांधी के नेतृत्व में प्रदेशों में हुए चुनाव में कांग्रेस की यह पहली कामयाबी है. यह बात दीगर है कि इस कामयाबी को बीजेपी के कुराज से अघाई जनता ने एकसाथ तीन राज्यों में जीत का लड्डू कांग्रेस को थमाकर पार्टी के भीतर राहुल गांधी का सिक्का जमा दिया. साथ ही उनके विरोधियों को उन्हीं की भाषा में उनके आगे पप्पू साबित कर दिया.

इसके पीछे तीसरी वजह आजमाओ और उपकृत करो कि सोनिया गांधी की कसौटी का ही राहुल गांधी की ओर से भी कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में अनुसरण करने का रूझान हो सकता है. सोनिया गांधी ने बतौर कांग्रेस अध्यक्ष पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता प्रणब मुखर्जी तक को पश्चिम बंगाल में प्रदेश कांग्रेस की कमान संभालने को मजबूर कर दिया था. इसी तरह गुलाम नबी आजाद को उन्होंने जम्मू-कश्मीर का प्रदेश अध्यक्ष बनाकर भेजा और जब वे 2003 में मुफ्ती मुहम्मद सईद की पीडीपी के साथ सरकार बनाने में कामयाब रहे तो वहां का मुख्यमंत्री और फिर केंद्रीय मंत्री बनाकर उन्हें नवाजा. प्रणब मुखर्जी ने भी ममता बनर्जी से गठबंधन करके पहले विधानसभा और फिर 2009 का लोकसभा चुनाव जीतने में कामयाबी पाई थी.

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पायलट और सिंधिया के करिश्माई नेतृत्व की बदौलत बदली है कांग्रेस की किस्मत

बहरहाल वक्ती सच यह है कि युवा अध्यक्ष के नेतृत्व में भी कांग्रेस फिलहाल अपनी घिसी-पिटी लकीर पर ही चलती नजर आ रही है. हालांकि सच यह भी है कि राजस्थान हो या मध्यप्रदेश कांग्रेस ने सत्ता की चाबी अधिकतर पायलट और सिंधिया जैसे युवा और करिश्माई नेतृत्व की मेहनत की बदौलत ही पाई है. इसमें भी खासकर राजस्थान में कांग्रेस की जड़ें दोबारा जमाने के लिए सचिन पायलट का अप्रतिम योगदान है.

राजस्थान का संघर्ष तीनों राज्यों में सबसे अधिक कड़ा इसलिए रहा कि उसे 2013 में मिली महज 21 सीटों का फासला पाटने में ही नहीं बल्कि बहुमत के जुगाड़ के लिए भी चार गुना मेहनत करनी पड़ी. इस प्रकार 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती राजस्थान में ही थी. मध्यप्रदेश में यूं तो चुनौती कांग्रेस के लिए अपनी सीटें दुगुनी करने की ही थी मगर शिवराज मामा की अन्य नेताओं से अधिक लोकप्रिय छवि से पार पाना भी आसान नहीं था. चाहे व्यापमं हो या मंदसौर गोलीकांड या युवाओं का सरेआम एनकाउंटर या फिर भावांतर योजना में धांधली इन सबके बावजूद शिवराज की निजी छवि की बदौलत ही बीजेपी को कांग्रेस से अधिक वोट पाने में कामयाबी मिली है.

यह बात दीगर है कि 2013 में छत्तीसगढ़ में बीजेपी की तरह कांग्रेस अपने उम्मीदवारों को खास पैटर्न के तहत पड़े वोटों की बदौलत बीजेपी को पछाड़ने में कामयाब रही है. साल 2013 में बीजेपी छत्तीसगढ़ में तत्कालीन कांग्रेस नेता अजीत जोगी की भीतरघात के कारण कांग्रेस से महज आधा फीसद मत अधिक लेकर भी ऐसे ही वोटिंग पैटर्न के बूते उससे 10 सीट अधिक जीतकर सरकार बनाने में कामयाब रही थी. इसीलिए छत्तीसगढ़ की जनता ने जोगी के दल छत्तीसगढ़ और बीएसपी गठबंधन का खोखलापन उजागर करके डॉ रमन सिंह और जोगी को उनकी कुनबापरस्ती और अवाम से विश्वासघात की कड़ी सजा देकर कांग्रेस को दोनों हाथों से सत्ता सौंपी है.

राजस्थान में चुनौतियों के पहाड़ से लड़ चुके हैं पायलट

राजस्थान में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट के सामने चुनौतियों का अंबार लगा हुआ था. सचिन को 2013 में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की सदारत में कांग्रेस को राज्य विधानसभा चुनाव में ही नहीं बल्कि 2014 के आम चुनाव में भी मिली सबसे बुरी हार से टूटे कार्यकताओं का मनोबल बहाल करने में ही सबसे अधिक मेहनत करनी पड़ी. उन्हें कार्यकर्ताओं को कांग्रेस के लिए नारे लगाने और भीड़ जुटाने के लिए तैयार करने के साथ ही अपूर्व कामयाबी के नशे में चूर बीजेपी की निरंकुश सत्ता के सामने कार्यकर्ताओं के साथ डटकर खड़े होने का हौसला भी दिखाना था.

इस लिहाज से सचिन अपने पिता राजेश पायलट और मां रमा पायलट से भी अधिक तेजस्वी और जुझारू साबित हुए. सचिन पायलट ने बतौर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पिछले पांच साल में पार्टी को खड़ा करने की राह में आई हरेक चुनौती का मुकाबला न सिर्फ दिलेरी से किया बल्कि अपनी लगन से अशोक गहलोत और सीपी जोशी जैसे वरिष्ठ नेताओं को भी अपने कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होने को मजबूर कर दिया. सचिन ने प्रदेश के हरेक अंचल में दिन-रात मेहनत की और कांग्रेस को अप्रासंगिक हाने से न सिर्फ बचाया बल्कि स्थानीय निकायों, पंचायतों और फिर लोकसभा और विधानसभा के उपचुनावों में पार्टी को कामयाब करके अंतत: 2018 में जनता के दरबार में सत्ता की दावेदारी करने लायक मजबूत स्थिति में ला खड़ा किया.

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सचिन की सबसे बड़ी कामयाबी पिछले पांच साल में कांग्रेस के साथ युवाओं को जोड़ने में रही. उन्होंने बीजेपी की ओर से राजस्थान में वसुंधरा और केंद्र में नरेंद्र मोदी की ओर से किए गए बेसिर-पैर के वायदों से युवाओं के तेजी से हुए मोह भंग को अपनी युवा कमान से कांग्रेस के प्रति समर्थन में बदलने में जादुई कमाल दिखाया. वे बेरोजगारी दूर करने में महारानी और मोदी की नाकामी को लगातार युवाओं के बीच उठाते रहे ओर उन्हें कांग्रेस से जोड़ते चले गए. इसके अलावा महिलाओं पर पिछले पांच साल में राजस्थान में अपूर्व संख्या में हुए अपराधों को भी उन्होंने बखूबी प्रचारित किया जिससे वसुंधरा के महिला शासक होने के बावजूद राज्य की महिला मतदाता हाथ को फिर से अपनाने के लिए प्रेरित हुईं.

राज्य के सरकारी कर्मचारियों से महारानी और मोदी के विश्वासघात को भी सचिन ने डटकर भुनाया और कांग्रेस के लिए उनका मत सुनिश्चित किया. इसी तरह राजपूतों के वसुंधरा से मोहभंग को भी उन्होंने बिना कोई मुंगेरीलाल टाइप वायदे किए कांग्रेस के पक्ष में भुना लिया. दलितों, जाटों और गूजरों को भी वे कांग्रेस के पक्ष में खड़ा करने में कामयाब रहे. इस तरह राजस्थान में बीजेपी सरकार की हरेक चूक को सचिन ने अपनी सूझबूझ से कांग्रेस के पक्ष में अवाम को मोड़ने के लिए प्रयुक्त किया.

सचिन को चुनने में राहुल को गुरेज क्यों?

इसमें कोई शक नहीं कि राजस्थान जैसे क्षेत्रफल में देश के सबसे बड़े और सीमाई राज्य को चलाने के लिए अनुभव और प्रशासनिक दक्षता बहुत जरूरी है मगर सचिन तो अपनी परिपक्वता का परिचय कांग्रेस को राज्य में सरकार बनाने का बहुमत दिलाकर सिद्ध कर ही चुके हैं. फिर उनके सिर पगड़ी रखने में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को गुरेज क्यों हुई? राजस्थान में साल 2018 का विधानसभा चुनाव हर लिहाज से सचिन पायलट का चुनाव था जिसमें वे अव्वल रहे. वे राज्य के इस समय सबसे अधिक लोकप्रिय राजनेता हैं. कई मायनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चमक भी प्रदेश में उनके सामने फीकी है. इसीलिए कांग्रेस ने 2018 की सफलता को 2019 के आम चुनाव में भी दोहराने के लिए 36 घंटे लंबी मान मनौवल के बाद उन्हें उपमुख्यमंत्री बनने के लिए राजी कर लिया है.

ऐसे में क्या यह माना जाए कि राहुल गांधी ने गहलोत को मुख्यमंत्री भले ही आंतरिक समीकरणों के चलते बना दिया हो मगर उनका वरदहस्त पायलट के सिर पर ही रहेगा. हालांकि गहलोत के भी राजनीति का मंझा खिलाड़ी होने के कारण तब आशंका कांग्रेस के भी गुटबाजी के उसी गर्त में गिर जाने की है जिसने बीजेपी को 163 सीट के बहुमत से आधी सीटों पर पहुंचा दिया. यह बात दीगर है कि बीजेपी को अपना सूपड़ा साफ होने की आशंका के बीच अपनी इज्जत बचाने लायक यह आंकड़ा भी कांग्रेस में भीतरघात की वजह से ही हासिल हो पाया है.

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कांग्रेस के भीतर जिस गुट ने यह कारगुजारी की उसने पूर्व उपराष्ट्रपति और राज्य में बीजेपी की जड़ जमाने वाले मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत की शैली अपनाई है. शेखावत भी पार्टी में अपने विरोधियों को चुनाव अपने ही कुछ खांटी समर्थक निर्दलीय उम्मीदवारों से हरवाकर पार्टी को बहुमत का आंकड़ा पार करने यानी सैकड़ा नहीं मारने देते थे. चुनाव बाद नेतृत्व के सवाल पर वही निर्दलीय शेखावत को अपने बिना शर्त समर्थन जताकर मुख्यमंत्री बनवाने में मददगार हो जाते थे. इस तरह भैंरोंसिंह जी एक तीर से दो शिकार कर लेते थे. खुद मुख्यमंत्री बनने के साथ ही अपने समर्थकों को भी सत्ता की मलाई चटवा देते थे.

कांग्रेस में सचिन पायलट की तमाम मेहनत और पब्लिक की महारानी से नाराजगी के बावजूद उसके निर्वाचित विधायकों के सैकड़ा भी पार नहीं कर पाने की यही वजह बताई जा रही हे. इतना ही उसी शैली में कुछ निर्दलीय विधायकों की ओर से नेता विशेष को मुख्यमंत्री बनाने की मांग भी सरेआम हुई. जाहिर है कि फिलहाल परिस्थिति से समझौते के बावजूद सचिन और राहुल की निगाहों से यह कुटिलता छिप तो नहीं ही पाई होगी!