ये शब्द अशोक जी के लिए लिखूं या पायलट जी के लिए, मन में दुविधा व्याप्त है,
या फिर ये कि जो मन मस्तिष्क में चल रहा है, उसे वहीं रखना सही रहेगा,
एक पुराने वफ़ादार के द्वारा चलाये जा रहा बाण और गुलेल,
या फिर सैंकड़ों युवाओं और गुर्जरों से विश्वासघात,
और उनके विरोध कर, 2019 में सीटें गंवाना ?
आखिर किसे बनाया जाए मुख्यमंत्री, पायलट जी को या अशोक जी को ?
मैंने अपनी बहन की भी राय ले ली है, और सोनिया जी भी मदद के लिए आ गईं हैं,
लेकिन, फिर भी तय नहीं कर पा रहा हूं, कि हां या ना....
राहुल की कमजोरी राजनीति के लिए जानलेवा
विधानसभा चुनावों में जिन तीन राज्यों में कांग्रेस पार्टी ने जीत का पताका फहराया है, वहां के मुख्यमंत्री का नाम तय करने में राहुल गांधी जिस तरह से अनिश्चय की स्थिति में हैं, उसे देखते हुए शेक्सपियर को भी हंसी आ जाती. उनकी लेटलतीफी, संदेह और दुविधा के कारण हो सकता है कि एक और त्रासदी की कहानी लिख दी जाए. एक ऐसी कहानी जिसका नायक एक ऐसा व्यक्ति था जिसके अंदर हर वो कमजोरी थी जो किसी भी आम आदमी में होता है, लेकिन जो राजनीति में जानलेवा साबित हो सकता है.
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यहां सवाल अशोक गहलोत या सचिन पायलट का नहीं है. हमें कांग्रेस पार्टी के युवराज राहुल जी से ये पूछने की जरूरत है कि- अगर आप एक मुख्यमंत्री चुन नहीं सकते, ऐसे साधारण राजनीतिक निर्णय नहीं ले सकते हैं, तो फिर भावी प्रधानमंत्री के तौर पर आप देश चलाने की दावेदारी कैसे कर सकते हैं? कांग्रेस पार्टी के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि, नेता चुने जाने की लड़ाई सड़कों पर आ गई है. सचिन पायलट के समर्थक हाईवे जाम कर रहे हैं, पार्टी और पद छोड़ने की बात कर रहे हैं जिससे ये पूरी लड़ाई काफी गंदी नज़र आ रही है. जयपुर में पार्टी हेडक्वार्टर के बाहर, गहलोत और पायलट के समर्थक आपस में भिड़ भी चुके हैं, जिस कारण ऐसा लगने लगा है कि ये कोई चीखने-चिल्लाने की प्रतिस्पर्धा है.
इस खींचतान से पार्टी को पहले ही काफी नुकसान हो चुका है, उसके कार्यकर्ता दो गुट में बंट गए हैं, एक पायलट गुट और दूसरा गहलोत गुट. अगर ये दोनों नेता खुद जनता के सामने शांति से बिना किसी गुस्से या नाराजगी का प्रदर्शन किए नजर आते भी हैं तो भी अंदर-अंदर विद्वेष की आग सुलगती ही रहेगी. जमीनी स्तर पर से जो प्रतिक्रिया हमें मिल रही है उससे ये पता चलता है कि जिस जाति-गणित का फायदा कांग्रेस को इन चुनावों में मिला है, वो कहीं न कहीं गड़बड़ा गई है, जिसका खामियाजा उसे लोकसभा चुनावों में उठाना पड़ सकता है.
डर के बगैर इज्जत हासिल नहीं की जा सकती
इन हालातों के लिए सिर्फ राहुल गांधी दोषी हैं. उन्होंने राज्य में नेतृत्व का मुद्दा देर तक लटका कर रखा, जिससे हुआ ये कि दोनों ही गुट न सिर्फ़ अपनी उम्मीद बनाए हुए थे, बल्कि वे लगातार अटकलें भी लगा रहे थे. कांग्रेस पार्टी अब अपने दो बड़े नेताओं के साथ ‘टू-टाईमिंग’ या उन्हें धोखे में रखने की कीमत चुका रही है, जिससे पार्टी की छवि दो लोगों के निजी महत्वकांक्षाओं के कारण कलंकित होकर, बिखर गई है.
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जब किसी पार्टी का काडर बदतमीज़ हो जाता है, जब उसके वफ़ादार सेनापति मोलभाव और ब्लैकमेल करने लगते हैं, तब ये साफ हो जाता है कि उसका नेतृत्व या नेता कमजोर है. उसका वक़ार यानी इज्जत, बुलंद नहीं है. पता चलता है कि उनका नेता, आगे से नेतृत्व नहीं कर रहा है, बल्कि उसके कुनबे के लोग उसे अपने हिसाब से चला रहे हैं. ऐसा लगता है कि कांग्रेस अध्यक्ष ने राजनीति की वो पुरानी रीत नहीं सीखी है, जिसके मुताबिक बगैर डर के इज्जत नहीं हासिल की सकती है.
नेतृत्व के मुद्दे पर जिस तरह से राहुल गांधी अपनी मां और बहन से सलाह मशविरा कर रहे हैं उससे वो देश और दुनिया को क्या संदेश भेजना चाहते हैं? ऐसा करते हुए वो पार्टी के अंदरूनी मामले को एक पारिवारिक मुद्दा बना रहे हैं, जिसका निपटारा सिर्फ उनकी बहन और मां के हस्तक्षेप से ही हो सकता है. जिस तरह से टीवी कैमरों के सामने सोनिया और प्रियंका गांधी की तस्वीरें, राहुल के घर जाते हुए आईं वो आंखों के लिए अरुचिकर तो हैं ही, राजनीति के हिसाब से भी बहुत बुरा है. अगर कोई इस स्थिति का विश्लेषण करने लग जाए तो उसे एक दूसरा पहलू नजर आएगा. वो ये कि- इन तस्वीरों के पीछे एक मध्युगीन राजशाही की छाप नजर आती है, जहां राजशाही के सभी महत्वपूर्ण फैसले या तो रात के खाने के टेबल पर या फिर ‘दीवान-ए-खास’ में ली जाती है. अब तो मजाक मजाक में ये भी कहा जाने लगा है कि जल्द ही ऐसे मामलों में राहुल गांधी के भांजे और भांजी भी हिस्सा लेने लग जाएंगे, बस उनके पढ़ाई पूरा करने की देर है.
आसानी ने सीएम चुन सकते थे राहुल
ऐसा बिल्कुल नहीं है कि राहुल गांधी के पास विकल्पों की कमी है. वो चाहते तो बड़ी आसानी से चुने गए विधायकों को ये अधिकार दे देते कि वे लोग अपनी पसंद के नेता को अगला मुख्यमंत्री चुन लें. उसके लिए उन्हें बस कुछ प्रेक्षकों को नियुक्त करना था, ताकि सब कुछ बिना गड़बड़ी या भेदभाव हो जाए. या फिर- वो वही करते जो हाईकमान करता है- अपनी मर्जी से जिसे चाहे उसे मुख्यमंत्री बना देते और पार्टी को उनका आदेश मानना पड़ता. लेकिन, उन्होंने दोनों ही रास्ता नहीं चुना और तीसरे रास्ते पर चल निकले और दो महत्वाकांक्षी नेताओं के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए उनका झगड़ा निपटाने लगे.
ताकत या सत्ता उनके पास ही रहती है जो उसका इस्तेमाल करना जानते हों, जैसे पीएम मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह. राहुल गांधी की दादी इंदिरा गांधी भी साज-सज्जा के सामान की तरह मुख्यमंत्री बदलने के लिए प्रख्यात थीं. उनके पिता राजीव गांधी तो इस मामले में और भी ज्यादा बेसब्र और तानाशाह थे- वे तो खाने की प्लेट की तरह मुख्यमंत्री बदल दिया करते थे. उदाहरण के लिए राजस्थान में राजीव गांधी ने 1995-1989 के बीच हरिदेव जोशी, शिवचरण माथुर, जगन्नाथ पहाड़िया और हीरालाल को बारी-बारी से मुख्यमंत्री बनाकर उनको अपने इशारे पर नाचने के लिए मजबूर कर दिया था. ऐसा लग रहा था कि वहां कोई म्यूजिकल चेयर खेला जा रहा है, जो बिल्कुल भी सही नहीं था और काफी हद तक सनकीपना भी लेकिन, उन्होंने कम से कम उन नेताओं को ये तो बता ही दिया कि बॉस कौन है. उसके विपरीत राहुल गांधी दूसरों को अपना बॉस बनने के मौके दिए जा रहे हैं.
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नेताओं के डर से हाईकमान का डर बिल्कुल खत्म
80 के दशक में, कांग्रेस पार्टी के बड़े और विश्वासपात्र सिपहसालार भी काफी ताकतवर हुआ करते थे. ऐसे ही एक उदाहरण अरुण नेहरू हैं. वे उस समय इतने ताकतवर और भयानक रुतबा रखते थे कि- कांग्रेस के अच्छे-अच्छे बड़े नेताओं जिनमें कई मुख्यमंत्री भी थे- उनके पांव अरुण नेहरू के सामने खड़े होने में कांपने लगते थे. यहां मुख्य बात ये है कि- उस समय के नेताओं के मन में हाईकमान के गुस्से का डर था. राहुल के समय ये बिल्कुल भी खत्म हो गया है.
इसकी एक वजह राहुल गांधी का नम्रदिल होना हो सकता है, वे कठोर नहीं हैं. वो बहुत ही विनम्र और शालीन हैं, ऐसे निर्णय लेने में हिचकिचाते हैं जिससे किसी को तकलीफ हो जाए. वो सभी को खुश कर देना चाहते हैं. वो सबसे उत्कृष्ट व्यक्ति बने रहना चाहते हैं, लेकिन ऐसा करते हुए वो निर्णय लेने में सबसे पीछे रह जाते हैं. लेकिन, राजनीति में ऐसा करने वाला कठोर निर्णय लेने भी होते हैं और उन्हें लागू भी करना होता है, उसके फलस्वरूप जो नतीजे सामने आते हैं, उन्हें संभालना भी पड़ता है, नुकसान की भरपाई भी करनी पड़ती है, लोगों के अहं को कई बार तोड़ना भी पड़ता है और उन्हें अनुशासित भी करना पड़ता है.
ऐसा न करने पर होता ये है कि नेता न सिर्फ नफरत और मजाक का पात्र बन जाता है बल्कि उसे लगातार ब्लैकमेल भी किया जाता है. वो चालाक दरबारियों के हाथ की एक कठपुतली बन जाता है. राजस्थान में ऐसे नेतृत्व के लिए एक बहुत ही लुभावने शब्द का इस्तेमाल होता है, जिसे ‘पोपा बाई का राज’ कहते हैं. एक शांत और नरमदिल इंसान कभी भी महान नेता नहीं बन सकता है, वो सिर्फ एक कवि हो सकता है, एक हताश प्रेमी या फिर हैमलेट जैसा कोई इंसान जो हमेशा खुद पर संदेह करता रहे और खुद से ही बातचीत भी करे. राहुल गांधी को अभी से सावधान होने की जरूरत है, कहीं ऐसा न हो कि वो हमारे समय के हैमलेट बन जाएं.
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