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गहलोत की किस्मत का राज गांधी परिवार की तीन पीढ़ियों की वफादारी है

जो लोग उन्हें जानते हैं, उनका कहना है कि गहलोत मुख्यमंत्री के पद पर रहते हुए रिटायर होना और अपने बेटे वैभव को सांसद बनता देखना चाहते हैं.

Updated On: Dec 14, 2018 08:22 PM IST

Sandipan Sharma Sandipan Sharma

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गहलोत की किस्मत का राज गांधी परिवार की तीन पीढ़ियों की वफादारी है

नेपोलियन बोनापार्ट को हमेशा ही यकीन रहा कि कुछ जनरल भाग्यशाली साबित होते हैं. नेपोलियन आज जिन्दा होता तो राजस्थान के संभावित मुख्यमंत्री अशोक गहलोत उसकी पहली पसंद होते.

कहते हैं कि कामयाबी कुछ और नहीं बल्कि सही वक्त से सही मुकाम पर मौजूद होने का नाम है और गहलोत पर यह कहावत ठीक बैठती है. गहलोत के लिए वो सही वक्त था 1977 और सही मुकाम साबित हुआ एक लम्ब्रेटा स्कूटर.

कहानी कुछ यों है कि गहलोत एक रेस्त्रां के बाहर लम्ब्रेटा स्कूटर पर बैठे थे. यह रेस्त्रां उनके एक रिश्तेदार का था और इसके ऊपरी तल्ले पर कांग्रेस के नेताओं की एक बैठक चल रही था. कांग्रेस के सयाने नेता इस बात पर माथापच्ची कर रहे थे कि विधानसभा के चुनाव में जोधपुर की सीट से किस उम्मीदवार को खड़ा किया जाय लेकिन पार्टी से जुड़े ज्यादातर सदस्य इस सीट से चुनाव लड़ने में संकोच कर रहे थे- दरअसल प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई थी, माहौल पर इसका असर अभी हावी था और ऐसे माहौल में पार्टी के सदस्यों को भय सता रहा था कि कहीं हार का सामना ना करना पड़े.

बरसों पहले जिन लोगों ने यह कहानी मुझे सुनाई थी, उन्हीं मे से एक ने सुझाव दिया कि जाने-पहचाने नेता अगर उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरने में संकोच कर रहे हैं तो क्यों न किसी ऐसे को इस सीट से लड़ाया जाए जिसके पास गंवाने को कुछ नहीं मगर पाने को सबकुछ हो.

सुझाव देने वाले इस शख्स ने बाहर स्कूटर पर बैठे एक लंबे-दुबले व्यक्ति की तरफ इशारा किया. दरअसल, उस वक्त गहलोत के पास गंवाने के लिए कुछ था भी नहीं. तब तक वे दो चुनाव लड़े थे- एक ‘क्लास परफेक्ट’ का चुनाव जिसमें जीतने वाला प्रत्याशी अपने से निचली कक्षा के विद्यार्थियों की देखरेख और रहबरी किया करता है और दूसरा जोधपुर यूनिवर्सिटी के छात्र-संघ का चुनाव- दोनों ही चुनावों में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था. मौके की नजाकत को भांपते हुए गहलोत एकदम सही पसंद जान पड़ रहे थे.

Sachin Pilot and Ashok Gehlot at AICC

गहलोत को लोग तब अशोक कुमार कहकर बुलाते थे और वही अशोक कुमार 1977 में सरदारपुरा से चुनाव में खड़े हुए और जैसी कि उम्मीद थी, 4000 मतों के अन्तर से मुकाबला हार गए. लेकिन जैसा कि शाहरुख ने अपने उस मशहूर डायलॉग में कहा है: हार कर जीतने वाले को जादूगर कहते हैं (गहलोत एक प्रशिक्षित जादूगर भी हैं)- गहलोत की कामयाबी का सफर अब शुरू हो चुका था. वक्त 1980 का आया और इंदिरा गांधी ने सोचा कि जिन लोगों ने कठिन समय में साथ निभाया उन्हें इनाम दिया जाय. उन्होंने अपने साथ दगा करने वाले पुराने नेताओं को सबक सिखाने के खयाल से नई पीढ़ी के लोगों को प्रत्याशी के रूप में चुना. गहलोत को उन्होंने जोधपुर की सीट से लोकसभा का प्रत्याशी बनाया और गहलोत वोटों के बड़े अंतर से इस सीट पर विजयी हुए.

इंदिरा गांधी की सरकार में गहलोत के मंत्री बनने की भी एक बड़ी दिलचस्प कहानी है. गहलोत जीत गए तो माली समुदाय के उनके समर्थक उनके स्वागत के लिए अपनी ट्रक चलाते हुए दिल्ली पहुंचे. कहा जाता है कि उसी वक्त इंदिरा गांधी की कार गुजरी और उन्होंने देखा कि गहलोत के आवास के बाहर ट्रकों की लंबी कतार लगी है. ये सोचकर कि जीतकर आया नौजवान सांसद जरूर ही बड़े जनाधार वाला नेता है-उन्होंने गहलोत को जूनियर मंत्री का पद सौंप दिया.

अब तक आपकी नजर में यह बात आ चुकी होगी कि गहलोत ने गांधी-परिवार की तीन पीढ़ियों के साथ काम किया है. उन्हें इंदिरा गांधी ने चुना था, संजय गांधी ने सियासत की राह पर उनकी सरपरस्ती की और राजीव गांधी ने उन्हें सियासत में ऊंचाई के ओहदे पर बैठाया. राजीव गांधी ने एकबारगी उन्हें राजस्थान का गृहमंत्री बना दिया था. गहलोत सोनिया गांधी के विश्वस्त हैं और फिलहाल यह भी कहा जाता है कि वे अपने चंद्रगुप्त राहुल के लिए चाणक्य की भूमिका निभा रहे हैं. इस लंबे अरसे में उन्होंने नरसिम्हाराव और सीताराम केसरी के साथ भी अच्छे कामकाजी रिश्ते बनाए. जाहिर है, गहलोत में कुछ तो है कि वे गांधी परिवार या फिर कांग्रेस में कोई और जिसका कहा कांग्रेस में चलता हो- के लिए जरूरी हो चले हैं.

गहलोत को क्या खूबियां खास बनाती हैं? एक तो गहलोत गजब के निष्ठावान हैं, बहुत कुछ वैसे ही जैसे कि बाहुबली फिल्म में कटप्पा का किरदार था. यह निष्ठा ही उनकी सबसे बड़ी दौलत है और इसके बगैर पांच दशक तक कांग्रेस में टिक पाना उनके लिए मुमकिन न था. इसके अलावा, उनमें सियासी चतुराई भी जबरदस्त है- बहुत दिखावा नहीं करते, सादगी ओढ़े रहते हैं और जब भी बोलते हैं वो एकदम नपा-तुला होता है- वक्त की जरूरत के हिसाब से एकदम सही संदेश देता प्रतीत होता है.

हाव-भाव और बरताव से गांधीवादी लगो, महात्मा का चोला ठीक से ओढ़े रहो और व्यवहार में दस जनपथ में जमे रहो. गहलोत ने इस कला को बड़ी खूबी से साधा है. गहलोत में धैर्य भी कमाल का हैं. आस-पास के हर किसी के पांव भले उखड़ जाएं और बाकी लोग चाहे धराशायी हो जाएं लेकिन गहलोत आखिर तक टिके रहते हैं और यह गुण भी उन्हें कामयाब बनाता है.

ये गुण उन्हें ऊंचाई के ओहदे तक लाते जरुर लेकिन सोने पर सुहागा जैसी एक बात यह भी है कि किस्मत ने उनका कभी साथ ना छोड़ा- कभी ना रूठने वाला सौभाग्य पाया है गहलोत ने जो वे सही वक्त से सही मुकाम पर होते हैं और भाग्य कुछ इस तरह साथ देता है कि उनकी राह मे रोड़े अटकाने वाले या फिर उनके दुश्मन धूल चाटते नजर आते हैं जबकि गहलोत को इसके लिए कभी अपने हाथ मैले नहीं करने पड़ते.

मोहन लाल सुखाड़िया

मोहन लाल सुखाड़िया

साल 1977 और 1980 में मोहनलाल सुखाड़िया राजस्थान में कांग्रेस के सबसे कद्दावर नेता थे. उन्होंने 1977 में इंदिरा गांधी का साथ देने से इनकार कर दिया था और इंदिरा गांधी उन्हें सबक सिखाना चाहती थीं. जब इंदिरा गांधी 1980 में चुनाव जीतीं तो माहौल गर्म हुआ कि सुखाड़िया को गृहमंत्री बनाया जाएगा. सुखाड़िया बुलावे के इंतजार में बैठे थे लेकिन ऐसा कोई बुलावा नहीं आया. मोहनलाल सुखाड़िया अपने इस अपमान में ही गर्क हो गए और कांग्रेस में जगह अशोक गहलोत जैसे नौजवानों के लिए निकल आई.

साल 2008 में सुखाड़िया के शिष्य सी.पी. जोशी के मुख्यमंत्री बनने के आसार थे- संभावना कुछ ऐसी ही जताई जा रही थी लेकिन किस्मत गहलोत के साथ थी. सीपी जोशी एक वोट से चुनाव हार गए और गहलोत के लिए रास्ता खुद ही तैयार हो गया. 2018 में कांग्रेस को उम्मीद थी कि राजस्थान में पार्टी को भारी बहुमत मिलेगा. लेकिन पार्टी बहुमत के आंकड़े से एक सीट दूर रह गई.

ऐसे में इस दलील ने जोर पकड़ा कि सरकार को टिकाऊ बनाए रखने के लिए जरूरत गहलोत जैसे अनुभवी नेता की है और इस दलील के दायरे में जो कहानी बनी वो सचिन पायलट के खिलाफ गई. उन्हें कम अनुभव वाला नेता मान लिया गया. सो, किस्मत ने हमेशा ही गहलोत का साथ दिया है.

लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू भी होता है. और, इसी तर्ज पर अशोक गहलोत के साथ एक बात यह भी है कि कामकाज का मोर्चा हमेशा उनके लिए परेशानी का सबब साबित हुआ है. केंद्र में मंत्री बने तो एक न एक कारण से उनका कार्यकाल चंद अरसे का सफर साबित हुआ. राजस्थान के मुख्यमंत्री बने तो हमेशा ही उनकी सरकार को सत्ता से बाहर का रास्ता देखना पड़ा.

आप कह सकते हैं कि राजस्थान में तो कांग्रेस को हमेशा ही सत्ता से बाहर होना पड़ा है लेकिन गहलोत की सरकार का हारना कांग्रेस में गहरे असंतोष की सूचना साबित हुआ. साल 2003 में कांग्रेस 50 सीटों पर सिमटकर रह गई थी और 2013 में उसे बस 21 सीटों से संतोष करना पड़ा था. जरा इसकी तुलना करें वसुंधरा राजे की हार से 200 सीटों वाली विधानसभा में बीजेपी एक सम्मानजनक मुकाम पर है, उसकी झोली में 70 सीटें हैं.

गहलोत को पुरातनपंथी, कमजोर और करिश्माहीन भी माना जाता है- इन कमियों की वजह से वे बड़े जनाधार का नेता बनकर नहीं उभर पाते और उनकी सरकार सुस्त रफ्तारी का शिकार दिखती है. राजस्थान की बीजेपी में भैरोंसिंह शेखावत और वसुंधरा राजे सिंधिया जैसे बड़े जनाधार वाले नेता हुए हैं और इनकी तुलना में गहलोत कांग्रेस की तरफ से मजबूरी में थामे गए किसी सहारे जैसे जान पड़ते हैं.

बहरहाल, गहलोत के अंदाज और तेवर में अगर कोई कमी है तो अपनी नेतृत्व कुशलता से वे इसकी भरपाई कर देते हैं. गहलोत के भीतर अपने दुश्मनों को साध लेने की क्षमता है. उन्होंने 2008 में अल्पमत की सरकार चलाई. पहले बीएसपी के विधायकों को अपने साथ लिया और बाद में उन्हें अपनी पार्टी के भीतर ही समेट लिया. वे ठीक-ठीक भांप लेते हैं कि चुनाव में मतदाता का रुझान किस ओर है इसी के हिसाब से पार्टी के लिए समीकरण भी तैयार करते हैं. इन खूबियों ने उनके इर्द-गिर्द एक आभामंडल तैयार किया है और वे एक बड़े रणनीतिकार होकर उभरे हैं.

Ashok Gehlot

कर्नाटक में कांग्रेस को कामयाबी दिलाने में भूमिका निभाई, गुजरात में भी एक हद तक कांग्रेस को सफलता मिली और इसमें गहलोत का योगदान रहा और अब सचिन पायलट को साथ लेकर उन्होंने राजस्थान की जीत कांग्रेस की झोली में डाली है. सो, इस दलील को खारिज नहीं किया जा सकता कि राहुल गांधी के लिए गहलोत बहुत जरूरी बन चले हैं. राजस्थान की सरहदों से बाहर अपनी काबिलियत की धाक जमाकर गहलोत अनचाहे ही राहुल गांधी के लिए राष्ट्रीय स्तर के नेता और रणनीतिकार के रूप में अहम बन चले हैं.

कांग्रेस के अध्यक्ष निश्चित ही चाहेंगे कि अटूट निष्ठा, प्रबंध-कौशल, राजनीतिक चतुराई, संसाधन जुटाने में दक्ष, शब्दों को एकदम नाप-तौलकर एकदम अर्जुन की तरह ठीक निशाने पर मारने वाले अशोक गहलोत का साथ उन्हें 2019 की मई तक हासिल हो. और, नेपोलियन की तरह अब राहुल गांधी को भी लग रहा होगा कि जंग में किस्मत के धनी सिपहसालार को साथ लेना ठीक होता है.

लेकिन कांग्रेस यह भी जानती है कि लोकसभा के चुनाव अब बस चंद महीने ही शेष है, राजस्थान में जरूरत के तपे-तपाए अनुभवी नेता की है जो सबको साथ लेकर चल सके. सो, कांग्रेस आखिर को उसी को साथ लेकर चलेगी जो वक्त की जरूरत पर ठीक उतरता हो.

जो लोग उन्हें जानते हैं, उनका कहना है कि गहलोत मुख्यमंत्री के पद पर रहते हुए रिटायर होना और अपने बेटे वैभव को सांसद बनता देखना चाहते हैं. जैसा कि रोंडा बर्न ने अपनी मशहूर किताब में लिखा है: किस्मत के धनी गहलोत जैसा व्यक्ति जब कुछ पाना चाहता है तो उसे हासिल कर ही लेता है.

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