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राहुल की ताजपोशी: कांग्रेस के हौसले और राहुल के जज्बे की तारीफ करनी होगी

इस बुरे दौर में राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान मिलने वाली है तो कांग्रेस के हौसले की तारीफ करनी होगी और राहुल गांधी के जज्बे को भी

Vivek Anand

इधर राहुल गांधी कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के लिए नामांकन दाखिल करने की प्रक्रिया पूरी कर रहे थे. उधर गुजरात के धरमपुर में प्रधानमंत्री मोदी राहुल गांधी की ताजपोशी को कांग्रेस का औरंगजेब राज बता रहे थे. प्रधानमंत्री मोदी ने रैली को संबोधित करते हुए कहा, ‘मैं कांग्रेस को उनके औरंगजेब राज के लिए बधाई देता हूं. हमारे लिए लोगों की भलाई मायने रखती है. मणिशंकर अय्यर ने कहा था कि क्या मुगल राज में चुनाव होते थे? जहांगीर के बाद शाहजहां आए क्या चुनाव हुआ? शाहजहां के बाद यह तय था कि औरंगजेब नेता बनेंगे. तो कांग्रेस स्वीकार करती है कि यह एक परिवार की पार्टी है. हम ऐसा औरंगजेब रूल नहीं चाहते हैं.’

कांग्रेस पार्टी पर परिवारवाद के आरोप लगते रहे हैं. लेकिन आमतौर पर प्रधानमंत्री मोदी राहुल गांधी पर राजनीतिक हमलों से बचते रहे हैं. इसकी वजह शायद ये रही है कि वो अपने बयानों के जरिए राहुल गांधी का राजनीतिक कद बड़ा नहीं करना चाहते. अब अगर वो राहुल गांधी की ताजपोशी को लेकर बयान दे रहे हैं तो इसका मतलब ये भी निकाला जा सकता है कि गुजरात चुनावों में राहुल गांधी ने थोड़ी हलचल तो पैदा कर दी है.


बीजेपी लाख दावे कर ले लेकिन इस हलचल को बीजेपी भी महसूस कर रही है. राजनीतिक आकलन के तौर पर ऐसा कहा जा रहा है कि गुजरात चुनाव के नतीजे चाहे जो रहें लेकिन कांग्रेस अपने पिछले प्रदर्शन की तुलना में सुधार करेगी. अगर ऐसा भी हो जाता है तो राहुल गांधी की ताजपोशी के लिए ये सही वक्त है.

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हां ऐसे मौके पर ये सवाल जरूर उठेगा कि राहुल की आज तक की राजनीति में कांग्रेस ने ऐसा क्या हासिल कर लिया है कि उन्हें अध्यक्ष पद की कुर्सी सौंपी जा रही है? राहुल के 13 साल के राजनीतिक करियर में उपलब्धियों का टोटा हो सकता है. लेकिन उन्हें जिस तरह से राजनीतिक नौसिखिया साबित करने पर सारा जोर लगाया गया है, वो भी किसी ज्यादती से कम नहीं है. आलू की फैक्ट्री से लेकर आलू डालो और सोना निकालो के जुमले गढ़े गए और इन्हीं के इर्द गिर्द राहुल गांधी की छवि बना दी गई. शायद ये स्थितियां अब बदले.

राजनीति में आने से पहले के दिनों में राहुल को शर्मीले स्वभाव का माना जाता था. उनके बारे में ये बातें प्रचारित थीं कि वो राजनीति से ज्यादा क्रिकेट और पार्टी-वार्टी में दिलचस्पी रखते हैं. राजनीतिक तौर पर प्रियंका गांधी को राहुल से हर वक्त ज्यादा परिपक्व माना गया. यहां तक कि 2004 में लोकसभा चुनाव लड़ने का उनका फैसला कई लोगों को हैरान कर गया.

ऐसा कहा जाता है कि जिस तरह से राहुल गांधी के पिता राजीव गांधी परिस्थितिवश अनमने भाव से राजनीति में आ गए, राहुल गांधी के साथ ठीक वैसा ही हुआ. शायद इसलिए बिना चस्का लगे राजनीति में आ जाने और फिर पार्टी में एक के बाद एक बड़ा ओहदा मिल जाने के बाद भी उनकी राजनीति में निरंतरता नहीं आ पाई.

राहुल गांधी 2004 में लोकसभा के चुनाव में उतरे. गांधी परिवार के गढ़ अमेठी ने उन्हें अपना सांसद बनाकर लोकसभा में भेजा. 2009 के लोकसभा चुनाव में वो अमेठी से दोबारा चुने गए. इस बार जीत का अंतर पहले से भी ज्यादा रहा. बीजेपी के अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी को उन्होंने दोगुने के अंतर से हराया.

2009 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी ने सिर्फ यूपी में 100 से ज्यादा रैलियां कीं. राहुल की रैलियों से कांग्रेस को फायदा भी पहुंचा. यूपी की 80 सीट में से कांग्रेस को 21 पर जीत मिली जो 2004 के लोकसभा चुनावों से 12 सीटें ज्यादा थी.

2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों तक राहुल गांधी अपने संसदीय क्षेत्र अमेठी तक ही सिमटे रहे. हालांकि पार्टी के भीतर इस दौरान उन्होंने जरूर कुछ सक्रियता दिखाई. सितंबर 2007 में राहुल गांधी कांग्रेस के महासचिव बनाए गए. सोनिया गांधी पार्टी की अध्यक्ष बनी रही. 2007 में ही उन्होंने युवा कांग्रेस और नेशनल स्टूडेंट यूनियन ऑफ इंडिया (एनएसयूआई) के प्रभार को संभाला.

इस दौरान उन्होंने युवा कांग्रेस में कुछ अहम सुधार भी करवाए. आंतरिक चुनाव को पारदर्शी बनाया. उम्मीदवारों के चयन के लिए कॉरपोरेट स्टाइल में इंटरव्यू लिए. क्रिमिनल बैकग्राउंड वाले युवा नेताओं को पार्टी में शामिल करने से रोका गया. पार्टी के भीतर आंतरिक लोकतंत्र में मजबूती लाई गई.

ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी ने अपनी मजबूत राजनीतिक छवि बनाने की कोशिश नहीं की है. दरअसल उनकी कोशिश में निरंतरता नहीं रही है. जिसकी वजह से उन्हें बार-बार आलोचनाओं का शिकार भी होना पड़ा है. राहुल गांधी ने 2008 में डिस्कवरी ऑफ इंडिया के नाम से कैंपेन चलाया. इस कैंपेन का मकसद उन्हें भविष्य के नेता के तौर पर स्थापित करना था. लेकिन कैंपेन ज्यादा चला नहीं.

2011 में नोएडा में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ चलने वाले किसान आंदोलन में राहुल गांधी के शामिल होने की खूब चर्चा हुई. मोटरसाइकिल पर नोएडा के भट्टा पारसौल इलाके में किसानों के बीच पहुंचे राहुल गांधी को मीडिया ने हाथोंहाथ लिया. भूमि अधिग्रहण के मामले में पुलिस और किसानों के बीच भिड़ंत में दो किसानों और दो पुलिसवालों की मौत हो गई थी.

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गांव की कुछ महिलाओं ने पुलिस पर रेप के आरोप भी लगाए थे. जिसके बाद मामला ज्यादा बिगड़ गया था. धरने पर बैठे किसानों से मिलने गए राहुल गांधी को लोकल पुलिस ने हिरासत में ले लिया था. हालांकि शाम होते ही उन्हें छोड़ दिया गया था. इस एक दिन की राहुल गांधी की राजनीतिक सक्रियता ने उन्हें अच्छी खासी चर्चा दिलाई.

2012 के यूपी विधानसभा चुनावों के दौरान राहुल गांधी की जबरदस्त सक्रियता दिखी. उन्होंने करीब 200 सभाएं कीं. गांवों में जाकर सोए, ग्रामीणों के घर जाकर खाना खाया. उनके करीब जाकर राहुल ने अपनी आम लोगों के बीच अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने की कोशिश की. यूपी में सारा जोर लगा देने के बाद भी राहुल गांधी कुछ कर नहीं पाए. 2007, 2012 और 2017 के विधानसभा चुनावों में पार्टी की वापसी की कोई संभावना नहीं बन पाई. 2007 में पार्टी को 32 सीटें मिलीं. 2012 में घटकर 28 रह गईं और 2017 में सबसे बुरी हालत रही. कांग्रेस पार्टी को सिर्फ 7 सीटें मिलीं.

गुजरात विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी के सोमनाथ मंदिर दर्शन की तस्वीर

बुरी गत सिर्फ यूपी चुनाव में ही नहीं हुई. 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी की सलाह थी कि पार्टी को बिहार में अकेले दम पर चुनाव लड़ना चाहिए. लेकिन ये सलाह आत्मघाती साबित हुई. नतीजों ने कांग्रेस की लुटिया डुबो दी. विधानसभा की 243 सीटों में कांग्रेस के खाते में सिर्फ 4 सीटें आईं.

उस वक्त बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने उनका मजाक बनाते हुए कहा था कि वो प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं, पहले वो कम से कम किसी राज्य का मुख्यमंत्री बनकर दिखाएं. राजकाज चलाना सीख लें. हालांकि इसके अगले चुनाव में नीतीश कुमार के जनतादल यूनाटेड वाले महागठबंधन में शामिल होकर कांग्रेस पार्टी ने चुनाव लड़ा. पार्टी ने खाते में मिले 41 सीटों में से 27 पर जीत दर्ज की.

जनवरी 2013 में उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया. हालांकि उनके नंबर टू बनने के बाद कांग्रेस पार्टी का प्रदर्शन निराशाजनक ही रहा. 2004 से लेकर 2014 के यूपीए के शासनकाल के दौरान ऐसे कई मौके आए जब राहुल गांधी के बारे में कहा गया कि वो सरकार में शामिल हो सकते हैं. सरकार में ऊंचा ओहदा पाने की खबर अफवाह ही साबित हुई. लेकिन इस त्याग का उन्हें कोई फायदा नहीं मिला.

2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी की सबसे बुरी हालत रही. राहुल के नेतृत्व में पार्टी को महज 44 सीटें मिली. इसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी का ग्राफ लगातार गिरता रहा. इस बुरे दौर में राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान मिलने वाली है तो कांग्रेस के हौसले की तारीफ करनी होगी और राहुल गांधी के जज्बे को भी.