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पंजाब चुनाव 2017: ये 'उड़ता पंजाब' नहीं 'दिवालिया पंजाब' है!

अमरिंदर सिंह इस हकीकत को जानते हैं. इसीलिए वही चुनावी-वादे करते हैं जो पूरे किये जा सकें.

Nazim Naqvi

चुनाव का मौसम है. जिन प्रदेशों में चुनाव हैं वहां मौजूद हर कलम और हर जबान के पास आजकल काफी काम है. गंदे से गंदे और अच्छे से अच्छे, हर तरह के विचार खुले सांड की तरह इधर-उधर घूम रहे हैं. पूरी तस्वीर किसी के पास नहीं है. फिर भी ‘सुबह होने को है, माहौल बनाये रखिये’ की तर्ज पर सब व्यस्त हैं.

तो आइये मतदाताओं की अदालत से सिर्फ 9 दिन दूर खड़े पंजाब का मुआयना कर लें. इधर-उधर से देखी हुई कुछ तस्वीरें जिनसे पंजाब की क्या हालत है इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं. देश के विकसित प्रदेशों की गिनती बिना पंजाब का नाम लिए पूरी नहीं होती. लेकिन इस हकीकत से बहुत कम वाकिफ हैं कि पंजाब एक दिवालिया हो चुका प्रदेश है.


ढाई लाख करोड़ का कर्ज

प्रदेश के जितने बड़े शहर हैं, वहां की सारी सरकारी-सम्पत्तियां गिरवीं रखी जा चुकी हैं. ओवर-ड्राफ्ट के जरिये कर्मचारियों की तनख्वाह का इंतजाम होता है.

विभिन्न टैक्सों से सरकार की आमदनी महज 27 हजार करोड़ है. जबकि, खर्च इसका तीन गुना. सरकारी खजाना सूना पड़ा है और इस बदहाली के खत्म होने के दूर-दूर तक कोई असार नहीं हैं.

माइनिंग से पंजाब की कमाई में पांच हजार करोड़ से ज्यादा आना चाहिए लेकिन जो सरकारी खजाने में आता है वह केवल 112 करोड़ है. पंजाब का एक बड़ा रेवेन्यू-स्रोत शराब के ठेके हैं. इन ठेकों की संख्या तमिलनाडु के अनुपात में कहीं ज्यादा है लेकिन सरकार को मिलने वाला टैक्स, तमिलनाडु से कहीं कम है.

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सरकारी संपत्तियों को गिरवीं रखना या निजी हाथों में सौंप देना, यहां का सबसे बड़ा सरकारी काम माना जाता है. खेतों-खलिहानों और उनके बीच खड़ी मंहगी कारों वाले पंजाब में सबसे कमजोर अगर कोई है तो इसका सरकारी तंत्र, जिसे अपनी उखड़ती सांसों के लिए हर समय केंद्र से ऑक्सीजन की दरकार रहती है.

अमृतसर में बारिश के बीच एक किसान अपनी साइकिल खींचता. फोटो: पीटीआई

एक ऐसा प्रदेश जिसकी सरकार आर्थिक-अस्पताल के आईसीयू से कभी बहार नहीं आती. ऐसे प्रदेश में आजकल वादों की बौछार है. हम आये तो ये कर देंगे, हम आये तो वो कर देंगे. पिछले कुछ वर्षों से पंजाब की नसों में दौड़ रहे नशे का इतना बखान किया गया है जैसे ये कोई आसमानी समस्या है जो अचानक टूट पड़ी है.

नशा कोई नई बीमारी नहीं

हकीकत ये है कि पंजाब में नशे का कारोबार, अफगानिस्तान के रास्ते, सदियों से चला आ रहा है. गुरु नानक भी नशा-मुक्ति के लिए अपने समय में प्रयत्नशील रहे. लेकिन किसी भी कीमत पर पैसे कमाने की चाह के सामने गुरुनानक के उपदेशों का क्या मतलब रह जाता है. जाहिर है कि जब नशे के तस्कर (जो की प्रदेश में सबसे ज्यादा हैं) पंजाब में बढे़ हैं तो नशेड़ियों की तादाद भी बढ़ी है.

यदि आप पंजाब में फैले नशे की देश के दूसरे हिस्सों में फैले नशे से तुलना करें तो दिल्ली और पुणे ज्यादा गंभीर दिखाई देंगे. यहां की रेव-पार्टियों के सामने पंजाब धूल चाटता नजर आएगा. देश के साथ-साथ पंजाब के युवाओं में फैल रहे इस नशे को रोकना ही होगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता.

दरअसल हरे-भरे खेतों और खलिहानों में खड़े, प्रभावशाली कद-काठी और चौड़ी कलियों वाले पंजाब के लिए, नशे का व्यापार, निहायत भावनात्मक मसला है. इसके जरिये कोई फिल्म उड़ाई जा सकती है और अच्छी-खासी रकम कमाई जा सकती है. लेकिन सच दिखाना है तो ‘उड़ता-पंजाब’ की जगह फिल्म ‘दिवालिया-पंजाब’ बनानी चाहिए.

कांग्रेस के स्टार प्रचारक नवजोत सिंह सिद्धू अमृतसर में एक चुनावी सभा के दौरान. फोटो: पीटीआई

पंजाब का सबसे बड़ा मसला, मुद्दा, बहस, चिंता, उसका दिवालिया होना है. सरकारें आती-जाती रहती हैं, दिवालियापन वही खड़ा रहता है. हर आने वाली सरकार, जाने वाली सरकार को इस दिवालियेपन का दोषी ठहराकर सत्ता में आती है. एक बार अकाली तो अगली बार कांग्रेस. अभी तक का इतिहास यही है.

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लेकिन पिछली बार ऐसा नहीं हो सका. बहुत थोड़े मतों से ही सही. अकाली दोबारा सत्ता में आ गए. यानी पांच-साला क्रम में गतिरोध आया और पहली बार अकाली एक मुश्त दस-साल के लिए सत्ता पर काबिज रहे. इसलिए इस बार मुश्किल भी बड़ी हो गयी. पगड़ी उछलने से खुद को बचाना मुश्किल हो गया.

अकालियों के पाप

कुल मिलाकर पंजाब का चुनावी माहौल अकाली विरोधी है. चूंकि भाजपा ने सत्ता में बंटवारा किया था. इसलिए उसे भी साथ खड़े होकर इस विरोध का सामना करना है. कायदे से होना तो यही था कि बिना किसी चूं-चां के कैप्टन साहब की कांग्रेस सत्ता में आ जाती.

लेकिन इस बार विरोध की नाटकीयता का मंचन करने में माहिर केजरीवाल भी मैदान में हैं. इसका अंदाजा केजरीवाल टीम को पिछले लोकसभा चुनाव में ही हो गया था. जब पंजाब ने मोदी आंधी के बावजूद उसे चार सांसद दिए थे.

सारी लडाई कांग्रेस और आप में है. तमाशे में खोकर अपना दुःख-दर्द बहलाने वाला एक बड़ा तबका, केजरीवाल-मंडली के तमाशों में शरा-बोर है. जुगाड़ के पहियों से चलने वाला पंजाब ‘शायद ये कुछ केर दे’ की उम्मीद पर अगर मोहर लगा दे तो अचम्भा कैसा?

लेकिन अगर आपकी मुलाकात किसी समझदार मतदाता से हो गयी तो वह कैप्टन अमरिंदर सिंह की ओर झुकता हुआ मिलेगा. सवाल ये है कि 27 हजार करोड़ की कमाई में एक लाख करोड़ के खर्चों का बोझ किसी भी सरकार के लिए नाकामयाबी की गारेंटी है. कांग्रेस हो या अकाली, बादल हों या अमरिंदर, कोई इन हालात में कुछ नहीं कर सकता.

केजरीवाल के वादों का क्या

ऊपर से बादल सरकार ने जो अक्षम्य जुर्म किया है. उसकी सजा तो उसे मिलनी ही चाहिए. और वो जुर्म है निजी कंपनियों (ज्यादातर अपनी) द्वारा राज्य-ट्रांसपोर्ट का संचालन करना. हो सकता है कि कुछ पाठक ना जानते हों कि पंजाब में आवागमन का सबसे बड़ा साधन रोडवेज है. यहां रेल यातायात का जाल कम है, इसके कई कारणों में इसका सरहदी-प्रदेश होना भी है.

जो अक्षम्य जुर्म बादल सरकार ने किया वो ये कि बाकायदा उसने, सरकारी ट्रांसपोर्ट के लिए जो ग्रांट उसके पास थी, उसे इस्तेमाल नहीं किया. उसकी अवधि को खत्म हो जाने दिया. ताकि यातायात को सुगम बनाने के नाम पर वह अपनी निजी बसों को दौड़ा कर हजारों करोड़ों की आमदनी (जो सरकारी खजाने में जाती) पर कब्जा कर सके.

अमृतसर में गणतंत्र दिवस समारोह के दौरान प्रस्तुति देते बच्चे. फोटो: पीटीआई

पंजाब में चैलेंज चुनाव जीतना नहीं, पंजाब को पटरी पर लाना है. पंजाब जिसे विकसित-प्रदेश कहा जाता है उसकी हकीकत ये है कि अगर केंद्र उसे आर्थिक मदद ना मुहैया करे तो उसे अपने कर्मचारियों का वेतन निकालना मुश्किल है. अमरिंदर सिंह इस हकीकत को जानते हैं. इसीलिए वही चुनावी-वादे करते हैं जो पूरे किये जा सकें. लेकिन केजरीवाल ने अपने घोषणापत्र में जो वादे किये हैं वो कैसे पूरे होंगे?

वह अपने भाषणों में कहते हैं कि सरकार बनी तो अगले दिन मजीठिया जेल में दिखाई देंगे. तालियां तो पिट जाती हैं लेकिन मजीठिया के जेल जाने से पंजाब का क्या भला होगा? सच्चाई ये है कि केजरीवाल ने अगर पंजाब को 'पंजाब का दर्द' दिखा दिया है तो उसे बढ़ा भी दिया है.

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साफ है कि आप पार्टी किसी भी तरह पंजाब में अपनी सरकार बनाना चाहती है. केजरीवाल टाइप सियासत के लिए पंजाब में हर स्थिति मौजूद भी है. ‘दुश्मन को कमजोर नहीं समझना चाहिए’ की तर्ज पर बड़े-बड़े वायदे करके वोटर पर जादू करने वालों को सोचना चाहिए कि सरकार बन गयी तो ये सब होगा कैसे? लेकिन सोचता कौन है?