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जाति और आंकड़ों के गणित में उलझे 'मिशन 30' को कैसे पूरा करेंगी प्रियंका गांधी?

सबसे बड़ा सवाल आंकड़ों और जातिगत समीकरणों के बीच उलझकर रह गया है कि क्या वाकई प्रियंका के बूते कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपने मिशन 30 को अमली जामा पहना पाएगी या नहीं

Utpal Pathak

प्रियंका गांधी वाड्रा को आगामी लोकसभा चुनावों में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिलने की घोषणा को दो दिन हो चुके हैं और बीते 48 घंटों में सोशल मीडिया से लगायत टीवी चैनलों के स्टूडियो और हिंदी पट्टी के चट्टी चौराहों पर चर्चा-ए-आम और ज़ेरे-बहस बस यही मसला है कि प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आने से किसका नफा नुकसान कितना होगा. अब तक पत्रकारों, विश्लेषकों से लगायत सामान्य जनमानस ने भी अपनी अपनी राजनीतिक समझ के अनुसार प्रियंका के प्रदर्शन पर भविष्यवाणी भी कर दी है और जनवरी की बारिश भरी ठंडी हवाओं के बावजूद प्रदेश में राजनीतिक गर्मी बरकरार है.

बहरहाल, एक बात तो तय है कि कांग्रेस के इस कदम के बाद अगले कुछ कदम भी नपे-तुले होने वाले हैं और शायद यही वजह है कि लखनऊ के सियासी गलियारों में कांग्रेस के नए प्रदेश अध्यक्ष की आमद की चर्चा भी जोरों पर है, साथ ही प्रदेश को तीन से चार अनुभागों में विभाजित करके कुछ अन्य महत्वपूर्ण पद भी सृजित होने तय माने जा रहे हैं. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल आंकड़ों और जातिगत समीकरणों के बीच उलझकर रह गया है कि क्या वाकई प्रियंका के बूते कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपने मिशन 30 को अमली जामा पहना पाएगी या नहीं.


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पूरब+ मध्य+बुंदेलखंड = प्रियंका का पूर्वांचल

हालांकि, सीधे तौर पर यह कह पाना कठिन है कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने इतने बड़े राज्य को महज दो भागों में क्यों बांटा है लेकिन अंदरखाने से छनकर आ रही चर्चाओं को मानें तो इस निर्णय को एक राजनीतिक रणनीति के अनुसार उठाया गया एक अहम सियासी कदम माना जा रहा है. अब तक सीटों के बाबत कोई स्पष्ट घोषणा नहीं हुई है लेकिन कांग्रेस सूत्रों के अनुसार प्रियंका गांधी को पूर्वांचल के साथ ही अवध और मध्य क्षेत्र की भी कुछ सीटों की जिम्मेदारी मिलना तय माना जा रहा है. ऐसे में प्रियंका को पूर्वांचल की मिर्जापुर, भदोही, रॉबर्ट्सगंज, वाराणसी, चंदौली, गाज़ीपुर, अम्बेडकरनगर, जौनपुर, मछलीशहर, लालगंज, आजमगढ़, बलिया, घोसी, देवरिया, सलेमपुर, महराजगंज, कुशीनगर, संतकबीरनगर, बांसगांव, डुमरियागंज, गोरखपुर, गोंडा, बस्ती, श्रावस्ती, बहराइच, कैसरगंज, बाराबंकी, फैज़ाबाद, अकबरपुर, सुल्तानपुर, अमेठी, प्रतापगढ़, रायबरेली, फूलपुर, इलाहाबाद, कौशाम्बी, उन्नाव, कानपुर, खीरी, धौरहरा, हरदोई, सीतापुर, मिश्रिख, मोहनलालगंज, लखनऊ, सहित 42 से 43 सीटों की जिम्मेदारी मिल सकती है.

उलझे हुए आंकड़ों का इतिहास

2019 के चुनाव में उत्तर प्रदेश की सभी 80 सीटों पर प्रत्याशी उतारने का दावा करने वाली कांग्रेस ने पिछले कई लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की सभी 80 सीटों पर उम्मीदवार नहीं उतारे हैं. पिछले दो लोकसभा चुनावों में एक दर्जन से अधिक सीटों में कोई प्रत्याशी बनने को तैयार नहीं था. 2014 में कांग्रेस ने महज 66 सीटों पर ही अपने उम्मीदवार उतारे थे, और सिर्फ दो ही सीटें जीत पाने में कामयाब रही थी. सिर्फ 6 सीटों पर कांग्रेस दूसरे स्थान पर आ पाई थी इन सभी सीटों पर हार जीत का बड़ा अंतर था.

2014 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मात्र 7.5 प्रतिशत वोट मिले थे और इन चुनावों में वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी स्मृति ईरानी से सिर्फ 1,07,903 वोटों से ही जीत पाए थे. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर ने 5 लाख से अधिक वोटों से चुनाव हारने का रिकॉर्ड कायम किया था और बाराबंकी से पी एल पुनिया 2,11,000 वोटों से हारे थे और कानपुर से श्री प्रकाश जायसवाल 2,22,000 वोटों से चुनाव हारे थे. वहींं लखनऊ से राजनाथ सिंह और रीता बहुगुणा के बीच 2,72,000 वोटों का फासला था.

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मिशन 30 और चुनौतियां

कांग्रेसी खेमे में प्रदेश की 30 लोकसभा सीटें जीतने के उद्देश्य से बनाए गए कथित मिशन 30 को अमली जामा पहनाने में सबसे बड़ी दिक्कत वोटों के बंटवारे में बीजेपी को मिलने वाले सीधे लाभ से है. मिसाल के तौर पर 2014 सहारनपुर सीट से कांग्रेस के इमरान मसूद को लगभग 4 लाख वोट और दूसरा स्थान मिला था, इसी सीट पर एसपी-बीएसपी को मिले संयुक्त मतों की संख्या लगभग 3 लाख थी.

ठीक इसी तरह रामपुर सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी को डेढ़ लाख वोट मिले थे और गाजियाबाद सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी को लगभग 2 लाख वोट मिले थे. 2009 में कांग्रेस को मिली 21 सीटों में से अधिकांश सीटें इन 30 सीटों वाली सूची में हैं. पश्चिम उत्तर प्रदेश से सहारनपुर, गाज़ियाबाद, रामपुर के अलावा रूहेलखंड और तराई इलाके में आंवला, बरेली, खीरी, धरौरा के साथ मध्य उत्तर प्रदेश की उन्नाव, लखनऊ, कानपुर, प्रतापगढ़ और फ़र्रुख़ाबाद सीटें हैं. बुंदेलखंड की अकबरपुर, हमीरपुर, झांसी और जालौन समेत प्रदेश के पूर्वी इलाके की गोंडा और डुमरियागंज जैसी सीटों के नाम भी शामिल हैं जहां कांग्रेस को लाख से अस्सी हजार वोट मिले थे.

हालांकि, पश्चिम में मिले अधिक वोटों के पीछे राष्ट्रीय लोक दल का समर्थन भी था जो इस बार कांग्रेस के साथ न होकर एसपी-बीएसपी के साथ है. 2014 में राष्ट्रीय लोक दल ने पश्चिम उत्तर प्रदेश की 8 सीटों पर चुनाव लड़ा था जिनमें बागपत, हाथरस, मथुरा, कैराना, बुलंदशहर, अमरोहा और नगीना शामिल थी और शेष सीटों पर कांग्रेस के अपने प्रत्याशी उतारे थे. इस अंचल में गौतम बुद्धनगर और मुज़फ्फरनगर जैसी सीटों पर कांग्रेस को महज कुछ हज़ार वोटों पर संतोष करना पड़ा था और जाट मतदाताओं ने बीजेपी को भारी मात्रा में समर्थन दिया था.

उम्मीदों भरे इलाके में जान फूंकने की कवायद

2009 के लोकसभा चुनावों में जब कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में 21 सीटें जीतीं थी तब उनमें से 15 सीटें पूर्वांचल और अवध क्षेत्र से थीं. 2014 चुनावों में कांग्रेस ने महज दो ही सीटें जीतीं थीं लेकिन उसका प्रदर्शन प्रदेश के अन्य इलाकों की अपेक्षा पूर्वांचल में बेहतर था. भौगोलिक पूर्वांचल इलाके में 2014 में कांग्रेस के लिए आशा की किरण कुशीनगर और मिर्ज़ापुर जैसी सीटें हैं, पिछले चुनावों में कुशीनगर सीट से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आरपीएन सिंह को लगभग 2.85 लाख वोट मिले थे और मिर्ज़ापुर सीट पर बीजेपी-अपना दल गठबंधन प्रत्याशी अनुप्रिया पटेल की जीत के बावजूद कांग्रेस प्रत्याशी ललितेश पति त्रिपाठी को 1.52 लाख वोट मिले थे. माना जा रहा है कि इस बार भी इन दोनों सीटों पर कांग्रेस आरपीएन सिंह समेत ललितेश को दोबारा मौका देगी.

क्या होगा वाराणसी सीट में

प्रियंका को मिले इलाके में सबसे बड़ा दबाव वाराणसी लोकसभा सीट को लेकर बना हुआ है. 2014 में ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सीट वाराणसी में कांग्रेस प्रत्याशी अजय राय को लगभग 75 हजार वोट मिले थे और एसपी-बीएसपी को संयुक्त रूप से एक लाख के करीब वोट मिले थे. अरविंद केजरीवाल को दो लाख वोट मिले थे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पांच लाख से अधिक वोट मिले थे.

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गुरुवार को वाराणसी में कांग्रेस के समर्थकों और युवा इकाई के कुछ नेताओं ने प्रियंका को वाराणसी से चुनाव लड़ने की ताकीद करते हुए पोस्टर भी जारी कर दिए और पूर्व विधायक अजय राय ने एक प्रेस वार्ता के माध्यम से प्रियंका को वाराणसी से चुनाव लड़ने की अपील भी कर दी. जानकारों का मानना है कि प्रियंका के वाराणसी से लड़ने पर पूर्वांचल की अन्य सीटों पर प्रभाव पड़ेगा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वाराणसी से चुनाव लड़ने या न लड़ने दोनों ही सूरतों में कांग्रेस पिछले चुनावों से अच्छा प्रदर्शन करेगी.

गुप्त समझौते पर टिकी हैं निगाहें

एक तरफ एक और चर्चा भी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक शक्तिस्थलों पर हो रही है, जिसको अगर मानें तो एसपी-बीएसपी कुछ सीटों पर कांग्रेस से गुप्त समझौते के अंतर्गत कुछ हल्के प्रत्याशी उतार सकती है, वाराणसी सीट पर भी नरेंद्र मोदी के समक्ष साझा उम्मीदवार उतारे जाने की चर्चा जोरों पर है.

एसपी के एक पूर्व कैबिनेट मंत्री ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि 'जिस तरह एसपी अध्यक्ष जी गठबंधन की घोषणा वाले दिन कांग्रेस के प्रति नरम दिख रहे थे ऐसे में बीजेपी को हराने के उद्देश्य से भीतरखाने में आखिरी मौके पर कुछ सीटों पर गुप्त समझौते होने स्वाभाविक हैं.'

वाराणसी में वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ भट्टाचार्य भी मानते हैं कि 'बीजेपी के विरोधी खेमों को एकजुट होकर चुनाव लड़ने में फायदा होगा लेकिन कांग्रेस के साथ सीधा गठबंधन स्वीकार करना एसपी-बीएसपी में से किसी के लिए संभव नहीं है , हां कुछ सीटों पर आख़िरी समय पर वोटों का स्थानांतरण संभव है.'