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प्रियंका गांधी को राजनीति में हमेशा से दिलचस्पी रही है, बस उन्हें अपनी बारी का इंतजार था

अगर प्रियंका सफल रहीं तो कांग्रेस के संगठन में बदलाव की प्रेरक शक्ति साबित हो सकती हैं. उन्हें ये काम कर दिखाने का बड़ा कम समय दिया गया है

Rashme Sehgal

नव-नियुक्त कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी को लेकर यह मांग जोर पकड़ रही है कि वो चुनाव में किसी और के खिलाफ नहीं बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबिल खड़ी हों और चुनावी जंग लोकसभा की बनारस वाली सीट से लड़ें.

एक तथ्य यह भी है कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बनारस में ललिता घाट से लेकर काशी विश्वनाथ मंदिर तक कंक्रीट का गलियारा (या कह लें सड़क) बनाने के लिए बड़ी संख्या में धरोहर माने जाने वाले भवन और मंदिर गिरवा रहे हैं और जाहिर है, ऐसा प्रधानमंत्री मोदी की सहमति से ही हो रहा है- तो, यह तथ्य लोगों के लिए प्रधानमंत्री से दूर छिटक जाने का एक अच्छा बहाना साबित हो सकता है.


बनारस या रायबरेली?

अगर यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी की सेहत अगले कुछ हफ्तों में नहीं सुधरती तो बहुत संभव है कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, प्रियंका को रायबरेली से चुनाव लड़ने के लिए कहें जो गांधी-परिवार के लिए एक तरह से खानदानी सीट रहा है- इंदिरा गांधी ने चुनावी लड़ाई लगातार इसी सीट से लड़ी.

हालांकि, यह बस 16 दिसंबर 2017 की ही बात है जब 24 अकबर रोड में राहुल गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष पद सौंपने का जलसा हो रहा था और इस समारोह के दौरान ही पत्रकारों से बातचीत में प्रियंका गांधी ने कहा था कि 'रायबरेली से मेरे चुनाव लड़ने का सवाल ही नहीं उठता..मेरी मां वहां से चुनाव लड़ेंगी.'

लेकिन एक जाहिर सी सच्चाई यह भी है कि प्रियंका गांधी छुटपन से ही अपने माता-पिता सोनिया-राजीव के साथ अमेठी और रायबरेली जाती रही हैं. प्रियंका की राजनीति में दिलचस्पी है- इस बात का भान उनके माता-पिता को भी रहा है. कांग्रेस के नेता जनार्दन द्विवेदी की मानें तो एक दफे 1990 में राजीव गांधी ने उनसे सियासत में प्रियंका की दिलचस्पी का जिक्र किया था.

यही वजह है जो बीते तमाम सालों में प्रियंका ने दोनों ही चुनाव-क्षेत्रों के लोगों से अपने निजी रिश्ते बहाल रखे हैं, उनके घर के दरवाजे रायबरेली और अमेठी के लोगों के लिए खुले रहते हैं. इस रीत का पालन 10 जनपथ यानी सोनिया गांधी के निवास में भी होता है और राहुल गांधी के निवास 12 तुगलक लेन में भी. अमेठी और रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र से आया कोई व्यक्ति कितना भी दीन-हीन क्यों ना हो, गांधी परिवार कभी उसे ‘ना’ नहीं कहता. दरअसल 2012 में प्रियंका गांधी रायबरेली और अमेठी के लोगों के लिए हर हफ्ते नियम से जनता-दरबार लगाती थीं.

राहुल गांधी और प्रियंका गांधी (फोटो: AICC)

राहुल गांधी को 2004 में अपना नामांकन-पत्र भरना था. उस वक्त लखनऊ एयरपोर्ट से अमेठी तक दोनों भाई-बहन ने एक शानदार रोड शो किया था. इस रोड शो में प्रियंका टाटा सफारी की छत पर भाई राहुल के साथ बैठी थीं- इससे दोनों के बीच नजदीकी का अंदाजा लगाया जा सकता है. उस वक्त साफ जाहिर हो रहा था कि राहुल राजनीति में अभी नए हैं और उनकी बहन अंगुली पकड़कर सियासत के रास्ते पर चलना सिखा रही हैं.

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अमेठी और रायबरेली के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हैं

साल 2004 में पूर्वी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक पर्यवेक्षकों के आगे यह बात एकदम साफ हो चुकी थी कि प्रियंका गांधी अमेठी और रायबरेली के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हैं. उस वक्त भी कांग्रेस कार्यकर्ता जोर लगाए हुए थे कि प्रियंका वहां से चुनाव लड़ें. तब कार्यकर्ताओं ने पुस्तिकाएं (बुकलेट) छपवाई थीं- उनमें बताया गया था कि प्रियंका गांधी के चुनाव लड़ने से उनके पक्ष में मतदाता किस तरह एकजुट होंगे.

उस वक्त प्रियंका गांधी को चुनाव-अभियान में उतरते देखना-समझना अपने आप में एक यादगार अनुभव है. प्रियंका दोनों निर्वाचन-क्षेत्रों में जिन-जिन जगहों पर जातीं, राह में रुककर लोगों से हाल-चाल पूछतीं, निजी तौर पर उनका सुख-दुख सुनतीं और उनकी समस्याओं के बारे में पूछती थीं- उनसे मदद का वादा करते हुए कहती थीं कि ‘मुझसे जो कुछ बन पड़ेगा, आपके लिए करूंगी.’ यह उनका पहला चुनाव-अभियान था लेकिन उनका बरताव एक अनुभवी चुनाव-प्रचारक जैसा था.

अमेठी में जामा मस्जिद वाले मोड़ पर उन्होंने एक अचंभित करने वाला काम किया. वो मोड़ पर एक मिठाई की दुकान पर रुकीं. मिठाई की यह दुकान एक बीजेपी-समर्थक की थी. उन्होंने इस दुकानदार से पूछा- भैया, क्या खिलाएंगे आप? प्रियंका वहीं बैठ गईं, दुकानदार की परोसी जलेबी खाने लगीं. जलेबी खाने के बाद उन्होंने दुकानदार से उसके परिवार-जन का हाल-चाल लिया, कामकाज के बारे में पूछा और यह कहते हुए बातचीत खत्म की थी कि ‘इस बार वोट कांग्रेस को दीजिएगा.’

ये वो दिन थे जब बीजेपी की कमान अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे दिग्गज नेताओं के हाथ में हुआ करती थी. उस वक्त कांग्रेस और बीजेपी के बीच ऐसा दुराव भी ना था.

धाराप्रवाह हिंदी और अवधी बोलती हैं प्रियंका

पुराने कांग्रेसी प्रियंका की तुलना उनकी दादी इंदिरा गांधी से करते हैं. प्रियंका की एक बड़ी खूबी है कि वो हिंदी धारा-प्रवाह बोलती हैं. यूपी के ग्रामीण लोगों से वो अवधी में बात करती हैं. बाघीपुर गांव में उन्होंने मतदाताओं से कहा कि ‘राजीव गांधी की मेहरारू अऊर मेरी मां सोनिया’ जी को वोट कीजिए. मतदाता प्रियंका के मुंह से ये शब्द सुनकर आश्चर्य में पड़ गए थे.

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किसी ने उनसे पूछा कि आपने अवधी जबान कब सीखी तो उन्होंने चुनाव-अभियान को कवर कर रहे पत्रकारों को बताया कि उन्हें अवधी बोलना किसी और ने नहीं बल्कि अमिताभ बच्चन की मां श्रीमती तेजी बच्चन ने सिखाया है.

लेकिन प्रियंका उन लोगों में नहीं, जो खरी-खरी कहने में हिचकिचाते हैं. साल 1999 में वो गांधी-परिवार के दोस्त सतीश शर्मा के लिए चुनाव-प्रचार कर रही थीं. सतीश शर्मा रायबरेली से बीजेपी के उम्मीदवार अरुण नेहरू के खिलाफ चुनाव मैदान में थे. प्रियंका ने अपने चाचा अरुण नेहरू के खिलाफ बोलते हुए मतदाताओं से कहा- ‘मुझे आप लोगों से एक शिकायत है. वो आदमी जिसने मेरे पिता के मंत्रालय में रहते हुए विश्वासघात किया, जिसने अपने भाई के पीठ में छूरा भोंका- मुझे बताइए- कि ऐसे आदमी को आपने यहां कैसे आने दिया? उस आदमी ने यहां आने की हिम्मत कैसे की?'

प्रियंका ने उस वक्त कहा था, 'यहां आने से पहले मैंने अपनी मां से पूछा था. उन्होंने कहा था कि किसी के बारे में बुरा मत कहना. लेकिन मैं नौजवान हूं और मैं आपके सामने अपने मन की बात नहीं कहूंगी तो किसी फिर किसके सामने कहूंगी?’ प्रियंका के शब्दों का उस वक्त ऐसा असर हुआ कि अरुण नेहरू चुनाव हार गए.

चुनाव-प्रचार की उनकी सलाहियत 1999 में भी दिखाई दी. उस वक्त सोनिया गांधी बेल्लारी से सुषमा स्वराज के खिलाफ चुनावी मैदान में थीं. प्रियंका जैसे ही बेल्लारी में पहुंची और उजल-पीले रंग की कांजीवरम साड़ी में जीप में सवार होकर चुनाव प्रचार करना शुरू किया, मुकाबले की रंगत ही बदल गई. साफ दिखा कि चुनाव-प्रचार की स्टार प्रियंका ही हैं.

उस वक्त एक रिपोर्टर ने पूछा था कि आप सक्रिय राजनीति में कब आ रही हैं. प्रियंका का जवाब था कि, `इसके लिए आपको अभी बहुत लंबा इंतजार करना पड़ेगा.’

जुबान में संयम रखने वाला और एकजुट गांधी परिवार

आखिर प्रियंका ने सियासत में आने को लेकर अपना फैसला क्योंकर बदला? गांधी-परिवार जुबान के मामले में बड़े संयम से काम लेता है, शायद ही कभी इस परिवार के व्यक्ति लोगों के सामने अपने मन की बात खुलकर कहते हैं. इंदिरा गांधी के भरोसेमंद सहायकों में एक आरके धवन ने एक दफे एक पत्रकार से कहा था कि, 'गांधी परिवार के लोग किसी बाहरी आदमी के सामने अपने दिल की बात कभी नहीं कहते...कभी नहीं.’

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गांधी-परिवार के सदस्यों में एकजुटता भी काफी है. शुरुआत से ही यह बात साफ थी कि प्रियंका गांधी राहुल के साथ प्रतिद्वंद्विता में सत्ता का कोई समानांतर केंद्र बनकर नहीं उभरना चाहतीं. भाई-बहन के बीच बहुत घनिष्ठता है. दरअसल पहले दादी और इसके तुरंत बाद पिता को खो देने के कारण इस परिवार के तीनों सदस्य आपस में मिलकर किसी टीम की तरह काम करते हैं. इस परिवार के सदस्यों का एक-दूसरे पर भरपूर भरोसा है. सोनिया गांधी की बीमारी के बाद भाई-बहन और ज्यादा करीब आए हैं.

प्रियंका को भी इस बात का अच्छी तरह है भान है कि परिवार फिलहाल अपना वजूद बचाए रखने की लड़ाई लड़ रहा है. मोदी और शाह की अगुवाई में बीजेपी की सरकार भारत को कांग्रेस-मुक्त और गांधी-मुक्त बनाने पर तुली है. मोदी ने राजस्थान विधानसभा के चुनावों के वक्त प्रचार के दौरान चेतावनी के स्वर में कहा था कि यूपीए सरकार को घूस खिलाने वाले ‘राजदार’ (क्रिश्चिन माइकल) को लाने में ‘चौकीदार’ के धीरज और साहस के कारण कामयाबी मिली है. मोदी ने सोनिया और राहुल के खिलाफ आयकर का मामला भी खुलवाया है और प्रियंका के पति राबर्ट वाड्रा के खिलाफ भी कई मामलों में जांच चल रही है.

कुछ बड़ी परियोजनाएं जैसे शक्तिमान मेगा फूड पार्क, अमेठी में प्रस्तावित हिंदुस्तान मिल प्रोजेक्ट और रायबरेली में खुलने जा रहा पहला महिला केंद्रीय विश्वविद्यालय निरस्त कर दी गईं. इन परियोजनाओं को निरस्त करने के कारण इलाके में लोगों का मन बीजेपी से उचट चला है. परियोजनाओं को रद्द करने का फैसला राजनीति से प्रेरित था.

गांधी परिवार में हमेशा से दो व्यक्ति सक्रिय राजनीति में रहते आए हैं. इस परिवार के सदस्य राजनीति की बारहखड़ी सीखने के क्रम में अपनी उम्र के तीसरे और चौथे दशक के मध्यवर्ती सालों में बड़े दायरे की राजनीति में कदम बढ़ाते हैं. इंदिरा गांधी 42 की उम्र में पार्टी-अध्यक्ष बनीं, संजय गांधी अमेठी से 34 साल की उम्र में चुनाव जीते थे और राजीव गांधी ने 37 की उम्र में पार्टी की सदस्यता ली थी. राहुल ने 33 की उम्र में सियासत में कदम रखा जबकि प्रियंका ने इस बड़े दायरे में अपनी शुरुआत 47 की उम्र में की है.

परदे के पीछे लगातार सक्रिय रही हैं प्रियंका, अब दमखम दिखाने की बारी

प्रियंका पार्टी के लिए पर्दे के पीछे से लगातार काम करती आ रही थीं, महत्वपूर्ण रणनीतिक बैठकों में वो शामिल होती रही हैं- इसी को देखते हुए उन्हें पार्टी में एक वरिष्ठ पद दिया गया है. एक दफे सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने की कोशिश की थी, राष्ट्रपति के आर नारायणन से उन्होंने दावा किया था कि सरकार बनाने के लिए जितनी सीटें जरूरी हैं उतनी पार्टी के पास मौजूद हैं. सोनिया का यह प्रयास सफल नहीं हुआ लेकिन उस वक्त प्रियंका ही पर्दे के पीछे से सोनिया की सहायता कर रही थीं.

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प्रियंका गांधी ने अगर राजनीति में कुछ देर से प्रवेश किया है तो इसके पीछे एक वजह उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति भी है. हिमाचल प्रदेश में लोग बताते हैं कि प्रियंका ने यहां एक घर खरीदा था और उसे तुड़वा दिया क्योंकि वे एक ऐसी जगह रहना चाहती थीं जो उन्हें पहाड़ी वास्तुशिल्प का सा अहसास दे. प्रियंका की संपदा शिमला से लगभग चौदह किलोमीटर दूर छाराबारा में है.

प्रियंका को खूब पता है कि वो एक जोखिम भरे मिशन पर कदम रख रही हैं. पूर्वी उत्तरप्रदेश से बीजेपी के कई वरिष्ठ नेता चुनाव लड़ेंगे. अगर प्रियंका सफल रहीं तो कांग्रेस के संगठन में बदलाव की प्रेरक शक्ति साबित हो सकती हैं. उन्हें ये काम कर दिखाने का बड़ा कम समय दिया गया है, पार्टी के कल-पुर्जे 1988 के वक्त से ही ढीले हैं और ऐसे में खस्ताहाली से गुजर रही कांग्रेस को फिर से खड़ा कर पाना कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं होगी.