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मोदी सरकार की ‘अगस्त क्रांति’ दलितों और ओबीसी को कितना लुभा पाएगी?

केंद्र सरकार के लिए हालिया लिए फैसले दलित और ओबीसी को उनके करीब लेकर आएगी?

Vivek Anand

2019 के चुनाव से पहले बीजेपी को लगने लगा है कि अब एससी एसटी और ओबीसी समुदाय की नाराजगी दूर कर उन्हें अपने करीब लाने का वक्त आ गया है. पार्टी इस कोशिश में जोर-शोर से जुटी है. इसे केंद्र सरकार के हालिया लिए गए कई फैसलों से समझा जा सकता है.

सबसे पहले केंद्र सरकार ने लंबे इंतजार के बाद एससी एसटी एक्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट के दिए फैसले में बदलाव के लिए एससी एसटी एक्ट संशोधन बिल संसद में लेकर आई. लोकसभा में ये बिल पारित हो भी चुका है और उम्मीद की जा रही है कि इसी सत्र में राज्यसभा से भी बिल पास होकर कानून बन जाएगा.


20 मार्च को दिए अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने एससी एसटी एक्ट के प्रावधानों में बदलाव किए थे. इस कानून की सबसे बड़ी खूबी थी- मुकदमे के लिए किसी भी तरह की प्राथमिक जांच की आवश्यकता न होना और एक बार मुकदमा दर्ज हो जाने के बाद अग्रिम जमानत के प्रावधान का न होना. इन दोनों प्रावधानों को सुप्रीम कोर्ट ने निरस्त कर दिया.

एससी एसटी समुदाय के जबरदस्त विरोध के बाद अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटते हुए सरकार बिल के जरिए एससी एसटी एक्ट को दोबारा पुराने फॉर्म में लेकर आने वाली है. दूसरा अहम फैसला है पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिलवाना. केंद्र सरकार ने संविधान संशोधन बिल के जरिए पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक शक्तियां उपलब्ध करवा चुकी हैं. इन दोनों फैसलों के जरिए अब केंद्र सरकार एससी एसटी और ओबीसी को अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रही हैं.

मंगलवार को बीजेपी पार्लियामेंट्री पार्टी की मीटिंग के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सांसदों को बताया कि केंद्र सरकार इन दो फैसलों के जरिए एससी एसटी और ओबीसी समुदाय के लिए अगस्त क्रांति लेकर आई है. पीएम मोदी ने अपने सांसदों को सलाह दी कि अगस्त महीने में लिए सरकार के इन दोनों फैसलों का पूरा क्रेडिट उन्हें लेना चाहिए. जनता के बीच ये संदेश अच्छी तरह से पहुंचना चाहिए कि जो काम चार पीढ़ियों में पूरा नहीं हो सका उसे सरकार ने इस अगस्त महीने में पूरा कर दिखाया.

अगस्त का ये महीना सरकार के समाजिक न्याय के लिए लिए गए इन दो फैसलों की वजह से जाना जाएगा. प्रधानमंत्री मोदी ने आह्वान किया कि हर साल 1 अगस्त से लेकर 9 अगस्त तक सामाजिक सौहार्द पखवाड़ा दिवस के बतौर मनाया जाए. इस साल 15 अगस्त से लेकर 30 अगस्त तक सामाजिक न्याय पखवाड़ा मनाए जाने का निर्णय लिया गया है. इस दौरान बीजेपी के सांसद ओबीसी और एससी एसटी समुदाय के लोगों के बीच जाएंगे. एक सांसद कम से कम 50 मीटिंग्स में हिस्सा लेगा और पिछड़े वर्ग और एससी एसटी समुदाय के कम से कम एक हजार लोगों से मिलेगा.

दलितों और पिछड़ों के बीच 2019 का जादू बीजेपी दोहरा पाएगी?

2014 के लोकसभा चुनाव में बड़ी संख्या में एससी एसटी समुदाय के लोगों ने बीजेपी को वोट किया था. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सबसे ज्यादा सांसद और विधायक बीजेपी से हैं. 2014 के चुनाव में अकेले यूपी से बीजेपी ने 17 रिजर्व सीटों पर जीत हासिल की थी. 2017 के यूपी चुनाव में दलित वोट बीजेपी की झोली में गिरे. लेकिन इन सबके बावजूद एससी एसटी और ओबीसी वोटर्स को लेकर बीजेपी का विश्वास डगमगाया है.

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इस समुदाय के वोट बैंक को लुभाने के लिए पार्टी ने पूरा जोर लगा दिया है. इसी कड़ी में सोमवार को बीजेपी के एससी एसटी मोर्चा को कुछ स्पष्ट निर्देश दिए गए. मोर्चा को कहा गया है कि वो ज्यादा से ज्यादा पिछड़े और एससी एसटी समुदाय के लोगों के बीच पहुंचे. सोशल मीडिया के जरिए कैंपेन चलाकर इस समुदाय के लोगों को अपने साथ जोड़ें. नए फेसबुक पेज और ट्विटर हैंडल के जरिए बीजेपी के लिए पिछड़े तबके की गलतफहमियों को दूर करें. बीजेपी कहीं से भी कोई रिस्क लेने के मूड में नहीं है.

बीजेपी एससी एसटी मोर्चा के अध्यक्ष और सांसद विनोद कुमार सोनकर ने फ़र्स्टपोस्ट से बातचीत में कहा कि ‘देश की आजादी में अगस्त महीने का विशेष महत्व है. 9 अगस्त को क्रांति दिवस के तौर पर मनाया जाता है. उसी तरह से आजादी के 70 वर्षों में भी जिस तरह से पिछड़ा वर्ग को संवैधानिक दर्जा नहीं दिया गया. सौभाग्य से इसी अगस्त महीने में पीएम मोदी के नेतृत्व में दर्जा मिला है. दूसरा सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की वजह से एससी एसटी एक्ट में जो गड़बड़ी हो गई थी, उसको दूर करने के लिए बिल लाया गया. प्रमोशन में आरक्षण का निर्णय भी एससी के पक्ष में इसी महीने में आया. यूजीसी के रोस्टर को रोकने का काम भी सरकार ने इसी महीने में किया. ये पूरा विषय सामाजिक बदलाव के लिए है. इसलिए सामाजिक न्याय सप्ताह मनाया जा रहा है.’

चाहे एससी एसटी एक्ट में बदलाव का मसला हो, विश्वविद्यालयों में रोस्टर का मसला हो या प्रमोशन में आरक्षण का मसला. इन सारे मुद्दों पर बीजेपी की छवि दलित और पिछड़ा विरोधी बनाए रखने की कोशिश चलती रही है. इन मुद्दों पर हर बार विपक्ष ने बीजेपी को घेरा है. आरएसएस के भीतर से उठी आरक्षण की समीक्षा की मांग जैसे बयानों ने बीजेपी के लिए मुश्किलें और बढ़ाई हैं.

चुनावी साल में बीजेपी की सफाई क्या दलितों-पिछड़ों के गले उतरेगी?

चुनावी साल में अगर इन मुद्दों पर बीजेपी अपनी सफाई नहीं दे पाई तो संकट बढ़ सकता है. एससी एसटी एक्ट को लेकर बीजेपी के दलित नेता भी मानते हैं कि इस एक्ट के जरिए एक बड़े स्केल पर अनुसूचित जाति और जनजाति के ऊपर ऊंची जातियों का अत्याचार कंट्रोल में था. वो कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दलित उत्पीड़न बढ़ा था. इसलिए इस एक्ट को लेकर बिल लाना जरूरी था. लेकिन सवाल है कि पिछले दिनों इस एक्ट में बदलाव को लेकर सरकार के लिए जो गुस्सा दलितों ने जाहिर किया था वो अब कम हो जाएगा.

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यूपी पर बीजेपी का सबसे ज्यादा जोर है. क्या यूपी में दलित ओबीसी समुदाय को समझाबुझाकर 2019 का रिजल्ट फिर से दोहराया जा सकता है. बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति जनजाति आयोग के पूर्व अध्यक्ष विजय सोनकर शास्त्री कहते हैं, ‘ 2019 में यूपी से हमें 73 सीटें मिली थी. हमारे अध्यक्ष ने इस बार 74 सीटें जीतने की चुनौती दी है. लेकिन मुझे लगता है कि हम 74 नहीं 78 सीटें जीतेंगे. दलित समाज हमारे साथ है और आगे भी रहेगा. सरकार ने दलित समाज के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक सशक्तिकरण की दिशा में मजबूत कदम उठाए हैं. दलित समाज पढ़लिख कर अब बाबा साहब की दिखाए मार्ग पर आगे बढ़ चुका है. ये लोग बीएसपी, एसपी और कांग्रेस जैसी पार्टियों के बहकावे में आने वाले नहीं है.’

बीजेपी को ब्राह्मण-बनियों की पार्टी कहा जाता रहा है. पार्टी के साथ लगातार ये मिथ रहा है कि ये ऊंची जातियों की पार्टी है. लेकिन 2014 के चुनावी नतीजों ने मिथकों को धराशायी कर दिया. हालांकि उसके बाद जिस तरीके से दलित उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ीं, जिस तरह से आरक्षण को लेकर बयानबाजियां हुईं और जिस तरह से एससी एसटी एक्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया और जिस तरह से विश्वविद्य़ालयों में आऱक्षण की सुविधा में फेरबदल हुआ, उन सबने मिलकर बीजेपी को एक बार फिर से उसी मिथक के करीब ला खड़ा किया. अब इसे तोड़ना ही बीजेपी के लिए सबसे बड़ी चुनौती है.

राष्ट्रीय अनुसूचित जाति जनजाति आयोग के पूर्व अध्यक्ष विजन सोनकर शास्त्री इस बारे में सफाई देते हुए कहते हैं, ‘ बीजेपी को दलित-पिछड़ा विरोधी बताने की साजिश विपक्ष के लोग कर रहे हैं. आप ये देखिए कि मायावती के शासन में बाकायदा शासनादेश जारी करके दलित उत्पीड़न की घटनाएं दर्ज न करने के आदेश जारी किए गए थे. मैं खुद उस वक्त अनुसूचित जाति जनजाति आयोग का चेयरमैन था. 22 जून 2002 को मायवती का शासनादेश जारी हुआ था. उसमें साफ लिखा था कि दलित उत्पीड़न की घटनाएं दर्ज न की जाएं. मैंने 25 अगस्त 2003 को उस शासनादेश को निरस्त कर दिया था. मैंने अपने हस्ताक्षर से उसे खत्म किया था और 28 अगस्त 2003 को उनकी सरकार गिर गई. 2007 में दोबारा मायावती की सरकार बनी तो फिर उसी तरह का शासनादेश जारी हुआ. इसी शासनादेश की वजह से दलित उत्पीड़न के मामले कम दर्ज किए गए.’

बीजेपी के पास दलितों और पिछड़ों को कहने के लिए क्या-क्या है?

जमीनी स्तर पर दलित समुदाय के भीतर बीजेपी के लिए नाराजगी झलकती है. लेकिन ये पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि दलित और ओबीसी समुदाय अपनी नाराजगी बीजेपी के खिलाफ वोट करके जाहिर करेगा. खासकर एक समुदाय एकमुश्त तौर पर वोट कर दे ऐसा मुश्किल है. बीजेपी का पूरा जोर है कि ज्यादा से ज्यादा ऐसे वोटर्स को छिटकने से रोका जाए. इसलिए पिछड़ा और दलित समुदाय उनके एजेंडे में अहम हो गए हैं. बीजेपी दलित मुद्दों पर बचाव के साथ विपक्ष पर हमलावर रुख अपनाए हुए है.

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बीजेपी एससी एसटी मोर्चा के अध्यक्ष विनोद कुमार सोनकर कहते हैं, ‘1997 में जब आरक्षण संबंधी सुप्रीम कोर्ट के 5 फैसले हमलोगों के खिलाफ चले गए तो 2002 में अटल की सरकार ने बाकायदा तीन संविधान संशोधन करके आरक्षण बचाने का काम बीजेपी ने किया. हम अऩुसूचित जाति जनजाति के स्वाभिमान के लिए बिल लेकर आए. प्रमोशन में आरक्षण गया तो बहनजी की गलती की वजह से गया उसको ठीक करने के लिए एसएलपी फाइनल करने का काम ये सरकार करती है. अनुसूचित जाति के महापुरुषों के सम्मान के लिए, चाहे वो बाबा साहब हों या फिर कबीर, उनके लिए स्मारक बनाने का काम ये सरकार करती है. अगर इतना होने के बाद भी अऩुसूचित समाज बीजेपी के साथ नहीं खड़ा होगा तो किसके साथ खड़ा होगा? और अगर वो खड़ा नहीं होगा तो उस समाज का दुर्भाग्य है.’