लंबी बीमारी के बाद डीएमके अध्यक्ष मुथुवेल करुणानिधि का 94 बरस की उम्र में जाना, तमिलनाडु की राजनीति में एक शून्य पैदा कर गया है. तमिलनाडु ने द्रविड़ राजनीति के एक बड़े कद का नेता खो दिया है और देश ने एक ऐसा नेता, जो मिलीजुली सरकारों के युग में क्षेत्रीय पार्टियों को एक मंच पर ले आने में सफल रहा था. करुणानिधि इस तरह कोशिश करते रहे कि केंद्र में संघीय ढांचे के रहते, राज्यों में स्वायत्तता के अपने लक्ष्य को एक मूर्त रूप दे सकें.
70 सालों के अपने सार्वजनिक जीवन के दौरान करुणानिधि तमिलनाडु की राजनीति पर हावी रहे. हालांकि पांच बार वे तमिनलाडु के मुख्यमंत्री रहे, लेकिन उनकी कुछ ही सरकारों ने अपना 5 साल का वक्त पूरा किया. अगर के कामराज की छवि देश के ऐसे सबसे साफ-सुथरी छवि वाले नेता की थी, जो लगातार 9 साल तमिलनाडु के मुख्यमंत्री रहे, डीएमके के संस्थापक सी एन अन्नादुरई का कमाल था कि आज़ादी के बाद तीसरे चुनावों में 1967 में अपनी पार्टी को सत्ता तक ले आए.
लेकिन कांग्रेस का राज खत्म कर, अन्नादुरई सिर्फ एक साल तक मुख्यमंत्री रह पाए, क्योंकि फरवरी 1969 में उनकी मृत्यु हो गई. उनके जाने के बाद, पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को हाशिए पर धकेलते हुए करुणानिधि ने 26 जुलाई 1969 को पार्टी की कमान अपने हाथ में ले ली और अन्नादुरई की कुर्सी पर बैठे. लेकिन उनके नेतृत्व में पार्टी जब 50वें बरस तक पहुंची, करुणानिधि का स्वास्थ्य जवाब दे गया.
करुणानिधि और एमजीआर
हालांकि, करुणानिधि के नेतृत्व में पार्टी ने अच्छे और बुरे दोनों दौर देखे, बतौर मुख्यमंत्री उनके कार्यकाल में विवाद भी खूब हुए. दो बार उनका मंत्रिमंडल बर्खास्त किया गया. एक बार जनवरी 1976 और दूसरी बार जनवरी 1991 में. हालांकि करुणानिधि को एक चालाक नेता की हैसियत से जाना जाता है, लेकिन राजनीति में बड़ी रणनीतिक भूलों के लिए भी उन्हें याद किया जाएगा. मिसाल के तौर पर, 1969 में अन्नादुरई की मृत्यु के बाद, फिल्म अभिनेता एम जी रामचंद्रन ने करुणानिधि को मुख्यमंत्री बनाने में काफी मदद की थी. लेकिन इसके बावजूद करुणानिधि ने एमजीआर को 1972 में पार्टी से ही निकलवा दिया, क्योंकि वे एमजीआर को अपने लिए खतरा मान बैठे. और वक़्त देखिए. एमजीआर, जो डीएमके से निकाले जाने तक राजनीति को लेकर सचमुच गंभीर नहीं थे, ने अलग पार्टी बनाई जिसका नाम था एआईडीएमके और 1977 में सत्ता पर भी काबिज़ हो गए. अगले दस साल यानी 1987 में अपनी मृत्यु होने तक एमजीआर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने रहे.
1971 में इंदिरा गांधी के, लोकसभा चुनावों के साथ राज्यों में विधानसभा चुनाव के फैसले के साथ खड़े होने से भी करुणानिधि को बहुत फायदा हुआ. राष्ट्रीय स्तर पर इंदिरा गांधी ने पूरे देश में जीत दर्ज की, करुणानिधि के नेतृत्व में डीएमके ने 234 में से 184 सीटें जीत कर ऐसा रिकॉर्ड बना दिया जिसे बाद में एमजीआर और जयललिता, दोनों के समय एआईडीएमके नहीं तोड़ पाई. इतने बड़े जनमत के साथ जब करुणानिधि ने सत्ता संभाली, तो उनका शासन बड़ा सख्त रहा. उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री, नई नवेली पार्टी एआईएडीएमके को खत्म कर देने की पूरी कोशिश की, लेकिन नुकसान उनकी खुद की पार्टी को उठाना पड़ा, जब नाराज़ जनता ने उन्हें अगले 13 साल तक सत्ता से बेदखल रखा.
करुणानिधि और इंदिरा
जब 1976 में इंदिरा गांधी ने करुणानिधि की सरकार को बर्खास्त किया, वे इंदिरा के खिलाफ बहुत उग्र हो गए. लेकिन इसके बावजूद, जब जनता पार्टी सरकार केंद्र में धराशायी हो गई और लगने लगा कि इंदिरा फिर सत्ता पर काबिज़ हो जाएंगी, तो करुणानिधि ने इंदिरा से फिर हाथ मिला लिया. 1980 के लोकसभा चुनाव में एआईडीएमके को तमिलनाडु में मुंह की खानी पड़ी.
लोकसभा में एआईडीएमके की हार को आधार बनाकर करुणानिधि ने इंदिरा गांधी से कह कर एआईडीएमके की सरकार गिरवा दी. लेकिन इस बात से नाराज़ लोगों का कहर करुणानिधि पर ही टूटा और जनता ने तमिलनाडु में एक बार फिर एमजीआर को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया. उनकी कुटिल चालों के ही चलते एमजीआर ने उन्हें ‘अशुभ ताकत’ का नाम दे डाला था और ये नाम करुणानिधि के नाम साथ ऐसा चिपका कि ताउम्र छूटा नहीं और लोगों के मन में बैठ गया.
1971 से 1976 तक के उनके मुख्यमंत्रित्व काल पर जो काला धब्बा लगा, उसे सरकारिया कमीशन ने ‘वैज्ञानिक तरीके से किए गए भ्रष्टाचार’ की संज्ञा दे डाली. अब ये दूसरी बात है कि करुणानिधि के समय जो भ्रष्टाचार लाखों का था, एमजीआर के समय वह करोड़ों का हो गया और जयललिता के वक्त तो वह अरबों का हो गया. लेकिन तमिलनाडु की जनता ने एमजीआर के भ्रष्टाचार माफ कर दिए क्योंकि उनकी छवि एक मशहूर और लोगों के भले के लिए काम करने वाले नेता की थी. जयललिता का भ्रष्टाचार उनके करियर के अंत में सामने आया, जब बेंगलुरु की एक विशेष अदालत ने उन्हें भ्रष्टाचार का दोषी माना. लेकिन करुणानिधि के माथे से भ्रष्टाचार का कलंक मिट नहीं पाया.
करुणानिधि और परिवारवाद
तमिलनाडु के लोगों में इतनी पैठ बनाने वाले नेताओं की वजह से राज्य की राजनीति ‘व्यक्ति-आधारित’ हो गई. यानी लोगों के सामने दो ही विकल्प थे. करुणानिधि को चुनें, या फिर एमजीआर को. बाद में बेशक एमजीआर की जगह जयललिता ने ले ली. जब तक एमजीआर ज़िंदा रहे, तमिलनाडु की जनता के दिलो-दिमाग पर छाए रहे. उनके देहांत के बाद, राज्य की जनता ने किसी भी पार्टी को लगातार दूसरी बार कुर्सी पर नहीं बैठाया. इससे करुणानिधि और जयललिता दोनों को ही भरोसा हो गया कि वे चाहे जितना भी बढ़िया काम क्यों न कर डालें, लोग उन्हें लगातार दूसरी बार सत्ता में नहीं लाएंगे, इसलिए लूटो और भाग चलो.
करुणानिधि पर एक और बड़ा लांछन लगा था और वह था ‘परिवार-राज’ को आगे बढ़ाने का आरोप. हालांकि एमजीआर ने भी जयललिता को आगे किया और अपनी राजनीति का वारिस बनाया, लेकिन उन्होंने उतने बड़े पैमाने पर राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा नहीं दिया, जितना करुणानिधि ने. जब एआईएडीएमके और कांग्रेस ने साथ मिलकर तमिलनाडु का चुनाव लड़ा और शानदार जीत दर्ज की, राजीव गांधी की पार्टी कांग्रेस, लोकसभा चुनाव हार गई और वी पी सिंह प्रधानंमंत्री बने. वी पी सिंह ने करुणानिधि से कहा कि वे कैबिनेट में अपनी पार्टी के किसी नुमाइंदे का नाम भेजें, तो करुणानिधि ने अपने भतीजे मुरासोली मारन को आगे कर दिया.
वही कहानी तब दुहराई गई, जब 2004 में करुणानिधि ने लोकसभा की 40 सीटें जीत लीं. सोनिया गांधी ने उन्हें कैबिनेट में 15 मंत्रिपद दे डाले और इसी के बाद दयानिधि मारन, ए राजा और टी आर बालू को बड़े खास और मलाईदार मंत्रालय दिए गए. दुनिया जानती है कि बाद में इन्हीं मंत्रियों के भ्रष्टाचार से यूपीए-1 की सरकार की भद्द पिटी.
बतौर मुख्यमंत्री करुणानिधि का आखिरी टर्म 2006 से लेकर 2011 तक का था, जिसे आप 1971 से 1976 तक वाली उनकी सरकार की प्रतिकृति ही कह सकते हैं. फ़र्क बस एक था कि उनके परिवार के दूसरे सदस्यों ने 2006 वाली सरकार के दौरान हर क्षेत्र में अपना कब्ज़ा जमा लिया और जमकर भ्रष्टाचार किया, लेकिन पहले की तरह इन सबमें हिंसा का कहीं कोई निशान नहीं था. कहना न होगा कि इन्हीं सब वजहों से जयललिता को जनता ने 2016 में लगातार दूसरी बार कुर्सी पर बैठाया, हालांकि स्टालिन फिर भी 90 सीटें जीत ले गए.
करुणानिधि और गठबंधन की राजनीति
करुणानिधि के रहते स्टालिन को डीएमके की ओर से मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया और यही बात स्टालिन के खिलाफ चली गई. जो भी हो, कामराज और अन्नादुरई के बाद सिर्फ करुणानिधि ही अकेले ऐसे नेता थे, जिनके राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में खूब दोस्त थे. राष्ट्रीय स्तर पर उनकी राजनीति का आधार ही कांग्रेस विरोध पर टिका था. उसकी भी शुरुआत तब हुई थी जब इंदिरा गांधी ने जम्मू-कश्मीर की फारूख अब्दुल्ला सरकार, आंध्र में एनटीआर की सरकार और पुद्दुचेरी में डीएमके की सरकार बर्खास्त कर दी.
इसी की प्रतिक्रिया में चेन्नई में नेशनल फ्रंट का जन्म हुआ, जब करुणानिधि, वी पी सिंह, एनटीआर और वाजपेयी समेत राष्ट्रीय स्तर के दूसरे बड़े नेता इकट्ठा हुए और एक बड़ी रैली को संबोधित किया. इसी से आगे जाकर 1989-90 के दौरान केंद्र में नेशनल फ्रंट की सरकार बनाने में भी मदद मिली. 1996 की यूनाइटेड फ्रंट सरकार में भी डीएमके एक महत्वपूर्ण भागीदार के तौर पर शामिल था. हालांकि ये दोनों सरकारें ज़्यादा दिन नहीं चलीं, करुणानिधि ने बीजेपी का विरोध करना छोड़ दिया और ये कहते हुए एनडीए का दामन थाम लिया कि ‘अटल बिहारी वाजपेयी आदमी सही हैं, हालांकि एक ग़लत पार्टी में हैं.’
डीएमके ने 1999 से लेकर 2004 तक केंद्र में सत्ता का सुख भोगा. 2004 में उन्होंने वाजपेयी का साथ छोड़कर सोनिया का हाथ थाम लिया. यूपीए सत्ता में आई और अगले दस साल तक केंद्र में राज किया. करुणानिधि की राजनैतिक हैसियत इतनी थी और सोनिया उनकी बात इतना मानती थीं कि केंद्र में सरकार का हिस्सा रहते हुए भी उन्होंने राज्य में कांग्रेस से हाथ नहीं मिलाया. बेशक वे 2006 से 2011 तक अल्पमत की सरकार चलाते रहे, लेकिन कांग्रेस से सत्ता बांटी नहीं.
राजनीति को परे भी रखें, तो करुणानिधि का तमिलनाडु में सामाजिक सुधारों में बड़ा योगदान है. जैसे अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण, संपत्ति में महिलाओं को समान अधिकार और हिंदू मंदिरों में हर जाति से पुजारी बनाए जाने के संबंध में कानून बनाया जाना.
कुल मिला कर करुणानिधि ऐसी शख्सियत थे कि आप उनसे प्यार और नफरत तो कर सकते हैं, लेकिन उन्हें नज़रंदाज़ नहीं कर सकते.
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