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विपक्ष समझे क्यों जल्दी बजट ला रही है सरकार

विरोधी दलों की सलाह है कि बजट 8 मार्च के बाद रखा जाए पर उन्हें भी तो बजट को जल्दी लाने के कारणों को समझना चाहिए

Pramod Joshi

ाEभारतीय राजनीति में लोक-लुभावन घोषणाएं ऐसी औजार हैं, जिनका इस्तेमाल हरेक पार्टी करना चाहती है लेकिन दूसरी पार्टी को उसका मौका नहीं देना चाहती.

केंद्र सरकार ने इस साल सितंबर में फैसला कर लिया था कि अब से बजट तकरीबन एक महीना पहले पेश किया जाएगा. यह केवल इस साल की व्यवस्था ही नहीं होगी. भविष्य में वित्त वर्ष भी बदलने का विचार है.


चर्चा तो इस बात पर होनी चाहिए कि यह विचार सही है या गलत. पर हम चर्चा तो दूसरी बातों की सुन रहे हैं.

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इधर 3 जनवरी को संसदीय मामलों की कैबिनेट कमेटी ने सिफारिश की कि बजट 1 फरवरी को पेश किया जाए. इसके अगले दिन ही पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा हो गई. उसके साथ ही इससे जुड़ी राजनीति के पंख लग गए.

विरोधी दलों का अंदेशा सही है कि बजट में सरकार लोक-लुभावन घोषणाएं कर सकती है. लेकिन बजट जल्द पेश करने के पीछे केवल लोक-लुभावन तत्व ही नहीं है.

पिछला संसद सत्र धुल गया 

संसद के हाल के सत्रों पर ध्यान दें तो यह भी जाहिर है कि देश की राजनीति की चिंताएं लोक-लुभावन के आगे नहीं जाती. लोक-लुभावन माने ही राजनीति है, और जिसका मौका लगता है वह उसका फायदा उठाता है. पिछला सत्र पूरी तरह धुल गया और राजनीतिक दलों को उस पर अफसोस नहीं है.

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गंभीरता से विचार करें तो पाएंगे कि संसदीय व्यवस्था में बजट सत्र का अपना महत्व है. वह साल का सबसे लंबा सत्र होता है. उसके दो दौर होते हैं. इस लंबी व्यवस्था में बीच का अवकाश भी विचार-विमर्श के लिए होता है.

पिछले साल भी पांच राज्यों के चुनाव के कारण बजट सत्र को छोटा करने का सुझाव आया था, पर उसे छोटा करना या मुल्तवी करना राष्ट्रीय व्यवस्था को कमजोर करेगा. अब इसे दूसरी तरह से देखें.

सन 1991 से शुरू हुए उदारीकरण को उसकी तार्किक परिणति तक जाना चाहिए. संसद ने जीएसटी कानून को पास कर दिया, पर उसे सफलता के साथ लागू करते-करते और उसके फायदे प्राप्त करने में कई साल लगेंगे. अभी उससे जुड़े कुछ और कानूनों को भी पास करना है.

हमारे यहां बजट फरवरी के अंतिम दिन पेश होता रहा है. अब इस तारीख को और पहले लाने की कोशिश हो रही है, ताकि नए वित्त वर्ष की शुरुआत से पहले बजट से जुड़े काम पूरे हो जाएं. मतलब बजट गतिविधियां 31 मार्च तक समाप्त हो जाएं.

वर्तमान व्यवस्था में बजट पास करने का काम दो चरणों में फरवरी से मई के बीच होता है. वास्तविक बजट उपबंध यानी वित्त विधेयक मई में पास होता है.

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जरूरी खर्च के लिए संचित निधि में से धन निकालने के लिए सरकार अनुच्छेद-116 के अंतर्गत संसद से अनुदान मांगें पास कराती है.

पूरा बजट पास होने में विलंब होने से उसे लागू करने में देर होती है. सरकारी व्यय का विवरण देने वाले दस्तावेज बताते हैं कि वित्त वर्ष के पहले दो महीनों में खर्च कम होता है. इससे सामाजिक कल्याण की योजनाओं से लेकर राजमार्ग और अस्पताल बनाने तक का काम दो महीने की देरी से शुरू होता है.

इस व्यवस्था में अक्टूबर से मार्च के बीच ज्यादा काम होता है, हड़बड़ी में होता है. तमाम काम 31 मार्च को होते हैं और बहुत से कार्यों के लिए मुकर्रर धनराशि का इस्तेमाल ही नहीं हो पाता है.

प्रक्रिया जल्दी शुरू हो तो लेखानुदान पारित कराने की जरूरत नहीं होगी और पूरा बजट एक चरण में 31 मार्च से पहले पास हो सकेगा. काम के लिए पूरे बारह महीने मिलेंगे. अभी तक रेल बजट और आम बजट अलग-अलग पेश होते रहे हैं.

92 साल की परंपरा होगी खत्म

92 साल से चली आ रही यह परंपरा भी इस साल खत्म होने जा रही है.

संसदीय कर्म और व्यवहारिक राजनीति के बीच संतुलन होना चाहिए. पांच राज्यों में होने वाले चुनावों की तारीखों की घोषणा के अगले दिन ही विरोधी दलों ने एकजुट होकर चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटाया.

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कांग्रेस समेत 16 बड़े विरोधी दलों ने राष्ट्रपति और मुख्य चुनाव आयुक्त को पत्र लिखकर कहा है कि केंद्र सरकार तय वक्त से पहले बजट लाकर यूपी समेत पांच राज्यों में होने वाले चुनाव में फायदा लेना चाहती है. इन दलों के प्रतिनिधियों ने चुनाव आयोग के सामने अपनी बात रखी.

विपक्ष का अंदेशा है कि चुनाव के ठीक पहले बजट पेश किया गया तो सरकार लोक-लुभावन घोषणाओं से मतदाताओं को अपनी ओर खींच लेगी. पहली फरवरी को बजट है और 4 को पहला मतदान. दोनों के बीच कुल तीन दिन का अंतर है.

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कांग्रेस का कहना है कि सन 2012 में जब इन्हीं पांच राज्यों में चुनाव हुए थे, तब फरवरी में मतदान होने के कारण बजट 16 मार्च को पेश किया गया था. यह दलील अपनी जगह है, पर सच यह भी है कि 1996 के बाद से देश के ज्यादातर लोकसभा और विधानसभा चुनाव फरवरी से लेकर मई के बीच होते रहे हैं.

2014 में भी हुआ था ऐसा ही कुछ

सन 2014 के लोकसभा चुनाव की घोषणा 5 मार्च को की गई थी, बजट के फौरन बाद. हालांकि वह अंतरिम बजट था, पर क्या उसे लोक-लुभावन बनाने की कोशिश नहीं हुई थी?

नैतिकता के सवाल अपनी जगह हैं, पर सच यह है कि देश में चुनाव कहीं न कहीं होते रहते हैं. इस साल पांच राज्यों के चुनाव अभी हो रहे हैं और दो राज्यों के साल के अंत में होंगे. उधर के डेढ़-दो महीने भी सरकारी कार्यक्रमों के लिए बंद रहेंगे.

आदर्श आचरण संहिता कितना लोक-लुभावन रोकेगी? इस संहिता का भी क्रमिक विकास हुआ है. सन 1960 में केरल विधानसभा चुनाव में सामान्य से दिशा-निर्देश के रूप में इसकी शुरुआत हुई थी. इसे व्यवहारिक और उपयोगी बनाना चाहिए.

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विरोधी दलों की सलाह है कि बजट 8 मार्च के बाद रखा जाए. पर उन्हें भी तो बजट को जल्दी लाने के कारणों को समझना चाहिए. ऐसे सवालों पर आमराय बनाने की जरूरत है. यह काम सरकार का है.