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छत्तीसगढ़ में नक्सली समस्या: वो क्या है जो हमसे छिपाया जा रहा है?

दो महीनों के भीतर 36 जवान अपनी जान नक्सली हमलों में गवां चुके हैं

Vinod Verma

बस्तर में फिर नक्सली हमला हुआ. फिर जवानों की जानें गईं. इस बार 25. दो महीनों के भीतर 36 जवान अपनी जान नक्सली हमलों में गवां चुके हैं.

जवानों के ताबूत पर फूल चढ़ाए गए. श्रद्धांजलियां दी गईं और लाशें रोते बिलखते परिजनों को भेज दी गईं. एकाएक पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई. देशप्रेम का ज्वार उमड़ पड़ा.


नक्सलियों के खिलाफ गुस्सा दिखने लगा. कड़ी चेतावनियां दी गईं. नई रणनीति बनाने के वादे दोहराए गए और एक नई बैठक की तारीख़ तय हो गई. सोशल मीडिया पर फतवे जारी किए गए.

व्हाट्सऐप पर तंज कसे गए कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री सबसे अधिक शहीदों को सलामी देने वाले देश के पहले मुख्यमंत्री बन गए. विपक्षी दलों ने नाकामियां गिनाईं, आरोप लगाए.

कुछ लोगों ने विवादास्पद आईजी एसआरपी कल्लूरी को याद किया और दावा किया कि उनके रहते बस्तर में सब ठीक था. सीआरपीएफ और स्थानीय पुलिस के बीच तालमेल न होने के सबूत मिले. और धीरे-धीरे दुनिया में स्थिति सामान्य होने लगी.

आदिवासियों के बुरे दिन

अगले कुछ हफ्ते बस्तर के आदिवासियों पर बुरे गुजरेंगे. न जाने कितने निर्दोष एकाएक नक्सली बना दिए जाएंगे. कितनी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार होगा. कितने बच्चों के सिर से पिता का साया हट जाएगा. लेकिन उससे किसी को फर्क नहीं पड़ेगा. वे वर्दी नहीं पहनते. उन्हें हम तकनीकी रूप से शहीद नहीं कह पाते.

प्रतीकात्मक तस्वीर

ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है. वर्ष 2010 में जब ताड़मेटला में 76 जवानों को मारा गया था तब से अब तक ऐसा न जाने कितनी ही बार ऐसा हो चुका है. हर बार यही दोहराया जाता है.

हर बार सवाल खड़े होते हैं और जवाब न आने से वे थक कर मर जाते हैं.

इस बार भी सवाल खड़े हुए हैं. लेकिन इस बार सवाल गंभीर हैं क्योंकि ताड़मेटला से चिंतागुफा (जहां दो दिनों पहले हमला हुआ) के बीच एक झीरम कांड भी हो चुका है जिसमें दर्जन भर कांग्रेस के बड़े नेताओं सहित 31 लोगों की हत्या नक्सलियों ने की थी.

इस बार जो सवाल खड़े हैं वह इंटेलिजेंस की नाकामी और रणनीतिक चूक से थोड़े बड़े हैं. ये सवाल सरकार की नक्सलियों से निपटने की नीयत से जुड़े हुए हैं. कठिन सवालों को छोड़ते हैं और आईये कुछ आसान सवाल पूछते हैं. एक-एक करके...

1. क्यों सरकारें अब तक तय नहीं कर पाई हैं कि नक्सली समस्या कानून व्यवस्था की समस्या है या फिर सामाजिक-आर्थिक समस्या? लालकृष्ण आडवाणी के गृहमंत्री रहते ‘वामपंथी चरमपंथ’ का शब्द पैदा हुआ और मनमोहन सिंह जी ने प्रधानमंत्री रहते हुए कहा कि यह देश की सबसे बड़ी समस्या है. लेकिन तय नहीं हो सका कि इस समस्या का स्वरूप क्या है? अब भी यह सवाल मुंह बाए खड़ा है. जवाब सरकारें जानतीं हैं. लेकिन वे कभी इस बहाने तो कभी उस बहाने जवाब टालती रहती हैं.

2. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह को सत्ता में रहते हुए साढ़े तेरह साल हो गए. वे अनगिनत बार कह चुके कि बस्तर को विकास की जरुरत है. उससे पहले अजीत जोगी और उससे भी पहले दिग्विजय सिंह यही बात दोहरा चुके थे.

लेकिन किसी भी मुख्यमंत्री ने यह नहीं बताया कि उन्हें बस्तर तक विकास पहुंचाने से किसने रोका? चलिए अविभाजित मध्यप्रदेश में तो बस्तर तक सरकार का पहुंचना कठिन होता था. वह प्राथमिकता में भी न रहा हो शायद.

लेकिन छत्तीसगढ़ तो छोटा राज्य है और बस्तर अब राजधानी की बगल में है. बीजेपी की सरकार जितने लंबे समय से सरकार में रह चुकी है, उसे बस्तर की तस्वीर बदल देनी थी. लेकिन कुछ नहीं बदला. क्यों?

सरकार यदि मानती है कि विकास की ज़रुरत है तो उसे सिर्फ सड़क, इमारतों और टेलीफोन के टॉवर से क्यों जोड़ा जाता है? बच्चों की अच्छी शिक्षा, लोगों के लिए अच्छी स्वास्थ्य व्यवस्था, युवाओं के लिए रोज़गार और विकास की कथित योजनाओं में आदिवासियों की भागीदारी क्यों सुनिश्चित नहीं की जाती?

क्यों केंद्र की मोदी सरकार वनोपज का समर्थन मूल्य 56 प्रतिशत तक घटा देती है और राज्य सरकार महुआ की नई नीति बनाकर आदिवासियों को परेशान करती है?

3. पिछले तीन दशकों में नक्सली समस्या से निपटने के लिए जो कुछ भी किया गया उससे नक्सल आंदोलन को कितना नुकसान हुआ पता नहीं. लेकिन यह हर किसी को पता है कि आदिवासियों का क्या हश्र हुआ. वह तरबूज की तरह कट कर गिरता रहा. कभी सरकार की धार से तो कभी नक्सलियों की मार से. पहले उनकी बहू-बेटियों को सरकारी मुलाज़िमों ने लूटा-खसोटा फिर उसमें नक्सली भी शामिल हो गए. अब तो बाहर से आए सुरक्षा बल के सैनिक भी हैं.

सरकार ने तरह तरह के मजाक किए. उनमें से एक सलवा जुड़ूम भी था. नाबालिग और किशोर आदिवासी बच्चों के हाथों में बंदूकें पकड़ा दी गईं. जेबों में कुछ हजार रूपए महीने की पगार और फिर बस्तर में वो सब हुआ जो एक लोकतंत्र में नहीं होना था.

सात सौ से अधिक गांव खाली करवा दिए गए. आदिवासियों को जंगलों से उखाड़कर सड़कों के किनारे बसा दिया गया. सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम को खत्म करवाया लेकिन अत्याचार खत्म नहीं हो पाया. किसकी ज़िम्मेदारी थी इसे खत्म करना? सत्तारूढ़ बीजेपी सरकार की नहीं?

4. रमन सिंह की सरकार पर आरोप हैं संगीन हैं. पुलिस के साथ बरसों तक नक्सल विरोधी अभियान में शामिल रहा अभय सिंह फिलहाल जेल में है. उसके वकील का कहना है कि उस पर लगाए गए आरोप फर्जी हैं. उसके बाकी अपराध का तो पता नहीं, एक सर्वविदित है कि उसने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर कह दिया कि नक्सलियों और पुलिस की सांठगांठ है.

सरकार की ओर से पुलिस के दो आला अफ़सरों ने पूछताछ की और हाईकोर्ट से कहा, ‘माई लॉर्ड अभय सिंह ने जो कुछ कहा है उसे सार्वजनिक नहीं किया जा सकता, राज्य की पुलिस व्यवस्था छिन्न भिन्न हो जाएगी.’ ऐसा क्या जानता है अभय सिंह? ऐसा क्या है जिसे सार्वजनिक नहीं किया जा सकता?

छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल अभय सिंह से मिल आए तो हंगामा हो गया. लौटकर भूपेश बघेल ने कहा कि सरकार नक्सलियों से मिली हुई है. उनके पास जानकारी है कि झीरम कांड से पहले नक्सलियों को सरकार की ओर से करोड़ों रूपए भेजे गए.

उन्होंने कहा कि सरकार को इसकी सीबीआई जांच करवानी चाहिए. रमन सिंह कभी यह बात स्वीकार नहीं करेंगे. वे जांच से घबराते हैं. क्यों घबराते हैं यह जानना जरूरी नहीं. घबराना अपने आपमें बहुत से सवालों का जवाब होता है.

5. कांग्रेस नेता ने जो आरोप लगाए वह झीरम कांड को लेकर थे. झीरम कांड की एक सुनवाई आयोग में चल रही है. वहां गवाहों के बयानों से पता चल रहा है कि सरकार शायद इस दुर्घटना को रोक सकती थी. लेकिन रोका नहीं. लापरवाही में या षडयंत्र में?

क्या झीरम में कोई षडयंत्र हुआ? क्या कांग्रेस का कोई भेदी भी इसमें शामिल था? इन सवालों के जवाब जांच से मिल सकते थे. लेकिन षडयंत्र की जांच न एनआईए ने की और न आयोग कर रहा है. पुलिस का तो सवाल ही नहीं.

कांग्रेस ने दबाव बनाया तो सरकार ने खानापूर्ति के लिए सीबीआई की आर्थिक अपराध शाखा को आवेदन भेज दिया. अधिकृत रूप से अब तक सीबीआई के किसी जवाब की जानकारी नहीं. लेकिन षडयंत्र की जांच नहीं हो रही है. क्यों?

आईजी कल्लूरी का कार्यकाल

5. इस बीच सरकार का एक और चेहरा सामने आया. उस चेहरे पर मुखौटा था एसआरपी कल्लूरी का. आईजी बस्तर, आईपीएस के रूप में कल्लूरी का इतिहास खासा विवादास्पद रहा है.

बस्तर में उनकी तैनाती ने विवाद को नया आयाम दे दिया. उनके नेतृत्व में काम करने वाले पुलिस बल पर दर्जनों फर्जी मुठभेड़ों, आदिवासी महिलाओं से दुर्व्यवहार के आरोप हैं.

सीबीआई ने एक जांच में पाया कि ताड़मेटला के गांवों में नक्सलियों के घर जलाने के जो एफआईआर दर्ज हैं वो झूठे हैं. वो घर कल्लूरी के नेतृत्व में पुलिस ने खुद जलाए थे. मानवाधिकार आयोग ने पाया कि सुरक्षा बलों ने कम से कम 16 महिलाओं का यौन शोषण किया. दो स्कूली बच्चों को नक्सली बताकर मार दिया गया.

कल्लूरी ने 1200 नक्सलियों का आत्मसमर्पण करवाया और वाहवाही लूटी, लेकिन सरकार की ही एक कमेटी ने कहा कि उनमें से सिर्फ तीन असल में नक्सली थे, शेष निर्दोष आदिवासी थे.

ऐसे आईपीएस अफसर को मुख्यमंत्री रमन सिंह सिर पर बिठाए रखते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आते हैं तो डीजीपी से पहले उन्हें कल्लूरी से मिलवाया जाता है. अक्सर कहा जाता है कि वे एनएसए अजीत डोभाल के प्रिय हैं. सच का पता नहीं. लेकिन पिछले दिनों उन्हें हटाना पड़ा. शायद पानी सिर से गुज़रने लगा था.

6. बस्तर में न सामाजिक कार्यकर्ता काम कर पा रहे हैं और न पत्रकार. पिछले साल एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में यह दर्ज था. पत्रकार मालिनी सुब्रमण्यम को बस्तर छोड़ देना पड़ा क्योंकि उनकी कई रिपोर्टों में इसका ज़िक्र था.

बीबीसी के संवाददाता आलोक पुतुल ने बस्तर जाना छोड़ दिया क्योंकि उन्हें कल्लूरी ने देशप्रेम के पैमाने पर खरा नहीं पाया. बेला भाटिया से लेकर शालिनी गेरा तक कई सामाजिक कार्यकर्ताओं को बस्तर छोड़ना पड़ा और अब वे अपनी जान पर खेलकर ही बस्तर में हैं.

ताड़मेटला कांड को सुप्रीम कोर्ट तक ले जाने का खामियाजा नंदिनी सुंदर को यह भुगतना पड़ा कि उनके नाम से बस्तर के एक थाने में हत्या का मामला दर्ज है. धारा 302 में साथ में सीपीएम के संजय पराते का भी नाम जुड़ा हुआ है.

मुख्यमंत्री सार्वजनिक रूप से पूछते हैं कि नक्सलियों की करतूतों पर दिल्ली के दाढ़ी-कुर्ता वाले सवाल क्यों नहीं पूछते? क्या रमन सिंह अपने 40 बरस के राजनीतिक करियर के बाद इतने मासूम हैं कि वे नक्सलियों से मानवाधिकार के पालन की उम्मीद करें?

वे संयुक्त कमान के प्रमुख हैं. उनके मातहत सुरक्षा बल मानवाधिकार का पालन नहीं कर रहे हैं तो वे सवाल पूछने वालों पर कैसे खीझ सकते हैं? कल्लूरी जैसे अफसरों ने उनके मन में ग्रंथि तो पैदा नहीं कर दी कि सवाल पूछने वाला दुश्मन है?

सुकमा नक्सली हमले में शहीद सीआरपीएफ जवानों को श्रद्धांजलि दिए जाने का (फोटो: पीटीआई)

7. आखिरी और सबसे बड़ा सवाल नीयत का है. क्या सचमुच छत्तीसगढ़ में बीजेपी सरकार नक्सल समस्या को खत्म करना चाहती है? ताजा नक्सली हमलों के बाद से केपीएस गिल का एक पुराना इंटरव्यू फिर चर्चा में है. इसमें उन्होंने कहा कि नक्सली मामलों में सलाहकार बनाए जाने के बाद रमन सिंह ने उनसे कहा था, ‘वेतन लो और मौज करो.’ इसका खंडन कभी नहीं हुआ. क्या नक्सल समस्या मौज का साधन बन गई है?

बस्तर में नक्सलियों के आड़ में जो पिछले एक दशक में हुआ है वह डराने वाला है. आरोप है कि एक बड़ी कंपनी के लिए ग्रामसभा की फर्जी बैठक आयोजित की गई. फिर बंदूक के नोंक पर जमीनें ले ली गईं. एक कंपनी के लिए जमीनें तो ले ली गईं लेकिन संयंत्र कभी नहीं लगा. अब सरकार ने जमीन अपने लैंड बैंक में रख ली.

आदिवासियों को रोजगार आदि का जो सपना दिखाया वह धरा का धरा रह गया. एक सार्वजनिक उपक्रम के लिए जमीनें ली गईं तो आज तक ठीक से मुआवजा नहीं मिला. ऊपर से उस संयंत्र को निजी हाथों में देने की चर्चा शुरु हो गईं. सार्वजनिक उपक्रम की खदानें बरसों से काम कर रही हैं लेकिन आदिवासियों को न उनके अस्पताल में दाखिल होने का हक है और न स्कूल में बच्चों को भर्ती करने का.

एक विशेषज्ञ आंकड़ों के आधार पर बताते हैं कि हर नक्सल प्रभावित जिले को हर साल दो सौ करोड़ रूपए मिलते हैं और इनमें से बहुत सा पैसा बिना हिसाब-किताब यानि अनअकाउंटेड (यानी बिना लेखाजोखा वाला) होता है. तो कौन सोने की अंडा देने वाली मुर्गी को काटकर खाने की गलती करेगा?

सो नक्सलवाद जारी है. शोक सभाओं के बाद अनवरत...लगातार.