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बयानबाजी छोड़िए, सरदार पटेल पर पीएम मोदी को फैक्ट चेक की जरूरत है

पटेल के प्रति बीजेपी का यह लगाव मनमोहक है लेकिन उसे ये नहीं पता कि पटेल की चली होती तो आज बीजेपी ही नहीं होती

Sandipan Sharma

जो इतिहास के भाजपा वाले पाठ पर यकीन करते हैं वे मान सकते हैं कि सरदार पटेल की चलती तो दो चीजें नहीं होतीं- एक यह कि भारत का बंटवारा ना हुआ होता और दूसरा ये कि कश्मीर भी बाआसानी भारत की झोली में पके हुए आम की तरह आ गिरता, ठीक वैसे ही जैसे कि आजादी के पहले सरदार पटेल ने बाकी रियासतों को अपनी झोली में समेटा था.

बीजेपी और उसके नेता इतिहास के इस पाठ की तसदीक करते हैं और मिर्च-मसाला लगाकर बार-बार परोसते हैं. बीते कुछ सालों में ऐसा खास तौर से देखने में आया है. बुधवार को लोकसभा में प्रधानमंत्री ने इतिहास का अपना रोमानी पाठ दोहराया, कहा कि, 'अगर सरदार पटेल प्रधानमंत्री बने होते तो हमारे प्यारे कश्मीर का एक हिस्सा आज पाकिस्तान के कब्जे में ना होता.'


उन्होंने अफसोस जताया कि कांग्रेस की ज्यादातर प्रांतीय इकाइयों के पक्ष में होने के बावजूद सरदार पटेल को प्रधानमंत्री का पद नहीं दिया गया. प्रधानमंत्री ने कहा कि 'कांग्रेस की 15 समितियों में से 12 ने वल्लभभाई पटेल को चुना, 3 ने कोई पक्ष नहीं लिया लेकिन तब भी वल्लभ भाई पटेल को देश का नेतृत्व नहीं करने दिया गया. यह कैसा लोकतंत्र था?'

इसके बाद प्रधानमंत्री ने कांग्रेस पर देश के बंटवारे का आरोप मढ़ा, कहा कि 'आपलोगों ने भारत का बंटवारा किया. आपने जो जहर बोया था उसकी सजा आजादी के 70 साल बाद भी 125 करोड़ भारतीय भुगत रहे हैं. एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरता जब लोगों को आपके पाप का दंड नहीं भोगना पड़ता.'

पटेल के प्रति बीजेपी का यह लगाव मनमोहक है. लेकिन उसे ये नहीं पता कि पटेल की चली होती तो आज बीजेपी ही नहीं होती. महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में पटेल ने पार्टी के मातृ-संगठन आरएसएस को प्रतिबंधित कर दिया था. प्रतिबंध 18 महीने बाद हटा लेकिन इसके पहले उन्होंने आरएसएस के नेताओं पर जोर डाला कि अपने संगठन के संविधान का मसौदा तैयार करके दीजिए. उन्होंने आरएसएस से वादा लिया कि वह राजनीति से दूर रहेगा.  बीजेपी, बेशक इस वादाखिलाफी के बारे में बात नहीं करती.

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प्रधानमंत्री ने जो तीन मुख्य सवाल लोकसभा में उठाए आइए, उन पर गौर करते हैं- क्या कांग्रेस की प्रांतीय इकाइयों के समर्थन के बावजूद पटेल को शीर्ष पद नहीं दिया गया? क्या पटेल भारत को पूरा कश्मीर दिला सकते थे? और आखिरी सवाल यह कि क्या पटेल देश के बंटवारे के खिलाफ थे?

1. पटेल और भारत के प्रधानमंत्री का पद

क्या कांग्रेस की प्रांतीय इकाइयों के समर्थन के बावजूद पटेल को प्रधानमंत्री का पद नहीं दिया गया? अगर हां, तो फिर ऐसा किसने किया?

पहले प्रश्न के जवाब में एक सवाल दागा जा सकता है. सवाल यह कि कांग्रेस की प्रांतीय इकाइयां प्रधानमंत्री का चयन कैसे कर सकती थीं? कांग्रेस का अध्यक्ष कौन बने- हद से हद वे इसके बारे में अपनी पसंद बता सकती थीं.

1946 में मौलाना आजाद कांग्रेस के अध्यक्ष थे. लेकिन उस वक्त आजादी की बेला नजदीक आती दिख रही थी और ऐसे में आम सहमति इस बात पर थी कि अंग्रेजों से निपटने के लिए कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर किसी और को बैठाना ठीक होगा. इसी वजह से कांग्रेस कार्यकारिणी के पूर्ण सत्र के बावजूद प्रांतीय इकाइयों से वोट देने के लिए कहा गया. और यह बात सही है कि ज्यादातर इकाइयों ने पटेल को चुना. लेकिन बाद में गांधी ने हस्तक्षेप किया और पटेल से कहा कि नेहरू के पक्ष में अपना नाम वापस ले लीजिए. गांधी के ऐसा कहने की कई वजहें थीं.

लेकिन यहां मुद्दे की बात यह है कि प्रांतीय इकाइयों को कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए वोट डालने के लिए कहा गया था ना कि भारत के प्रधानमंत्री के लिए. बाद में नेहरू वायसराय की कार्यकारी परिषद में उनके डेप्युटी के रूप में शामिल हुए. जब इस परिषद ने अंतरिम सरकार का रूप लिया तो नेहरू को प्रधानमंत्री चुना गया.

तथ्य यह है कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू महात्मा गांधी की पसंद थे. (दरअसल, बंटवारा टालने के गरज से महात्मा गांधी तो मोहम्मद अली जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे. लेकिन यह एक अलग ही कहानी है). एक बार फैसला हो गया तो पटेल उस फैसले पर आखिर तक कायम रहे.

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पटेल ने प्रधानमंत्री नेहरू की 60वीं सालगिरह के मौके पर लिखा: 'यह उचित ही था कि आजादी की विहान बेला से पहले के गहन अंधकार में वो हमारी मार्गदर्शक ज्योति बनें और आजादी मिलते ही जब भारत के आगे संकट पर संकट आ रहा हो तब हमारे विश्वास की धुरी हों और हमारी जनता का नेतृत्व करें. दुश्वारियों से भरे हमारे वजूद के पिछले दो सालों में उन्होंने देश के लिए जो अथक परिश्रम किया है उसे मुझसे अधिक अच्छी तरह कोई नहीं जानता... उम्र में बड़े होने के नाते मुझे कई बार उन्हें उन समस्याओं पर सलाह देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है जो प्रशासन या संगठन के क्षेत्र में हम दोनों के सामने आती रही हैं. मैने हमेशा उन्हें सलाह लेने को तत्पर और मानने को राजी पाया है....' (नेहरू: अभिनंदन ग्रंथ)

2. कांग्रेस, पटेल और देश का बंटवारा

तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने सत्ता के हस्तांतरण के मसले पर बात करने के लिए कैबिनेट मिशन को 1946 में भारत भेजा था. कैबिनेट मिशन के दो प्रस्ताव थे. इसकी 16 मई वाली योजना में था कि हिंदू और मुस्लिम बहुल प्रांत एक कमजोर केंद्र के अधीन रहें, केंद्रीय सरकार का सिर्फ रक्षा और विदेश-मामलों पर नियंत्रण हो. केंद्र में हर समुदाय की नुमाइंदगी करती सरकार बने और इस सरकार में हिंदू और मुस्लिम प्रतिनिधि बराबर की तादाद में हों.

कांग्रेस ने कहा कि हम चाहते हैं, प्रस्ताव और ज्यादा स्पष्ट हो. कांग्रेस ने अपने 24 मई के प्रस्ताव में कहा: '...उन लोगों (कांग्रेस के नेताओं) ने सत्ता के शांतिपूर्ण और सहयोगात्मक हस्तांतरण तथा एक मुक्त तथा स्वतंत्र भारत की स्थापना की राह निकालने की हरचंद चाहत के साथ इसकी जांच की है. ऐसे भारत में केंद्रीय सरकार का मजबूत होना जरूरी है ताकि वह विश्व-बिरादरी के बीच शक्ति और गरिमा के साथ राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर सके..'

जून में अंग्रेजों ने एक और योजना पेश की. इस बार कैबिनेट मिशन ने प्रस्ताव रखा कि भारत को हिंदू और मुस्लिम बहुल प्रांतों में बांट दिया जाए. इस योजना ने ही पाकिस्तान का रूप लिया.

कांग्रेस ने कुछ दिनों बाद एक प्रस्ताव में कैबिनेट मिशन की इस योजना को नकार दिया- 'अस्थायी या किसी अन्य किस्म के सरकार के गठन के लिए कांग्रेस के लोग कभी कांग्रेस के राष्ट्रीय चरित्र को नहीं छोड़ सकते. वे ना तो बराबरी की बनावटी और अनुचित बात को मान सकते हैं ना ही किसी सांप्रदायिक जमात के वीटो (निषेधाधिकार) को हामी भर सकते हैं. समिति 16 जून के बयान में आए अंतरिम सरकार के गठन के प्रस्ताव को नहीं मान सकती. बहरहाल, समिति ने फैसला किया है कि कांग्रेस को आजाद, अखंड और लोकतांत्रिक भारत के निर्माण के नजरिए से प्रस्तावित संविधान-सभा में भाग लेना चाहिए.'

भारत के अंतिम वायसराय लुई माउंटबेटन के मुताबिक 1947 के अप्रैल तक स्पष्ट हो चुका था कि देश का बंटवारा ही एकमात्र विकल्प है. ब्रिटिश सरकार को 17 अप्रैल 1947 के अपने निजी रिपोर्ट में माउंटबेटन ने लिखा: 'उसने (जिन्ना) बिल्कुल साफ कर दिया है कि मुस्लिम लीग कैबिनेट मिशन योजना को मंजूर नहीं करेगी और वह पाकिस्तान लेने पर आमादा है.' (माउंटबेटन एंड द पार्टिशन ऑफ इंडिया: लैरी कॉलिन्स एंड डोमिनिक लैपियर).

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आईसीएस ऑफिसर तथा आगे चलकर पटेल के सचिव रहे वीपी मेनन ने भी अपनी किताब द ट्रांसफर ऑफ पावर इन इंडिया में लिखा है कि जिन्ना पाकिस्तान हासिल करने की अपनी जिद पर अड़ गए थे. वे साझे विधानमंडल की बात मानने को तैयार नहीं थे, भले ही उसमें मुस्लिम लीग को बराबर का प्रतिनिधित्व दिया जा रहा हो. हिंदू महासभा का भी यही विचार था.

ऐसे में कांग्रेस के पास क्या विकल्प बचा था? आमतौर पर माना जाता है कि बंटवारे की बात पर सबसे पहले पटेल राजी हुए (गांधी कभी राजी नहीं थे). पटेल ने भांप लिया कि कांग्रेस आगे नहीं आई तो अंग्रेज मुस्लिम लीग के हाथ में सत्ता थमाकर चलते बनेंगे. जिन्ना ने अगस्त 1946 में सीधी कार्रवाई (डायरेक्ट एक्शन) का आह्वान किया था और इसके बाद हिंसा भड़की थी. माना जाता है कि बंटवारे को लेकर पटेल ने इस घटना के बाद ही अपना मन बनाया. उनकी यह सोच कांग्रेस कार्यकारिणी के उस भाषण में जाहिर होती है जहां योजना पर विचार-विमर्श हो रहा था :

'मैं (मुस्लिम बहुल प्रांतों) के अपने भाइयों की चिंता को पूरी तरह समझ रहा हूं. भारत का बंटवारा किसी को पसंद नहीं और मेरा दिल बैठा जा रहा है. लेकिन विकल्प यही बचा है कि एक बंटवारा हो या फिर कई बंटवारे हो. हमें सच्चाई का सामना करना चाहिए. हम भावनाओं के ज्वार में नहीं बह सकते. कार्यकारिणी ने भय की भावना से कदम उठाया हो, ऐसी बात नहीं. लेकिन मुझे इस बात का डर है कि कहीं इन तमाम सालों की हमारी कठिन मेहनत बेकार और अकारथ ना हो जाए. नौ माह दफ्तर में बिताने के बाद मेरा कैबिनेट मिशन की कथित खूबियों से पूरी तरह मोहभंग हो चुका है. कुछ एक सम्मान के योग्य लोगों को अपवाद स्वरूप छोड़ दें तो ऊपर से लेकर नीचे चपरासी तक हर मुस्लिम कर्मचारी लीग के लिए काम कर रहा है. मिशन की योजना में मुस्लिम लीग को सांप्रदायिक वीटो का अधिकार दिया गया है जो हर मुकाम पर भारत की प्रगति की राह रोकेगा. चाहे हम पसंद करें या नापसंद लेकिन पंजाब और बंगाल में तो अलिखित तौर पर पाकिस्तान पहले से ही मौजूद है. हालात को देखते हुए मुझे यही ठीक लगता है कि पाकिस्तान लिखित रूप में कायम हो जिससे हो सकता है कि लीग कहीं ज्यादा जवाबदेह बने. आजादी मिल रही है, हमें 75 से 80 फीसद भारत मिलेगा और इसे हम अपनी काबिलियत से मजबूत बनाएंगे. देश के बाकी हिस्से का विकास लीग करेगी.' ( द ट्रांसफर ऑफ पावर इन इंडिया: वीपी मेनन).

3. पटेल और कश्मीर

बीजेपी मानकर चलती है कि कश्मीर तो शुरू से ही भारत का था. लेकिन यह सच नहीं है. जूनागढ़ और हैदराबाद के शासकों की तरह कश्मीर के डोगरा राजा ने भी भारत में विलय के प्रस्ताव पर दस्तखत नहीं किए. उनकी योजना अपनी रियासत को आजाद रखकर उसे एशिया का स्विट्जरलैंड बनाने की थी.

बीजेपी के इतिहासकारों को यह बात दर्ज करनी चाहिए कि पटेल कश्मीर को लेकर बहुत उत्सुक नहीं थे. वे हैदराबाद और जूनागढ़ की रियासतों को भारत में मिलाने को लेकर ज्यादा उत्सुक थे क्योंकि इन रियासतों में हिंदुओं की तादाद अधिक थी.

विद्वान राजमोहन गांधी ने अपनी किताब पटेल, ए लाइफ में जूनागढ़ के बहाउद्दीन कॉलेज में दिए पटेल के एक भाषण का हवाला दिया है जिसमें गृहमंत्री ने कहा था:

'अगर हैदराबाद को भाग्य का लेखा नहीं नजर आ रहा तो उसका भी वही हश्र होगा जो जूनागढ़ का हुआ. पाकिस्तान ने जूनागढ़ के बरक्स कश्मीर का मसला खड़ा करने की कोशिश की. जब हमने समाधान का सवाल लोकतांत्रिक तरीके से उठाया तो उन लोगों (पाकिस्तान) ने हमसे यकलख्त कहा कि वे इस पर विचार करेंगे बशर्ते हम यही नीति कश्मीर पर लागू करें. हमारा जवाब था कि अगर वे लोग हैदराबाद पर राजी होते हैं तो हम कश्मीर पर राजी हो जाएंगे.'

अगर पटेल हैदराबाद के लिए कश्मीर का सौदा करने को तैयार थे तो फिर बीजेपी कैसे कह सकती है कि पटेल प्रधानमंत्री बने होते तो कश्मीर घाटी हमारी होती?