महज 35 साल के रोहित शेखर की कहानी जरा फिल्मी सी है. हिंदी फिल्मों की तरह एक ऐसी कहानी जिसमे प्यार, धोखा, संघर्ष सब हैं. अच्छा यह की यहाँ सुखान्त भी है. रोहित कांग्रेस के दिग्गज नेता माने-जाने वाले नारायण दत्त तिवारी के बेटे हैं.
लेकिन रोहित को यह साबित करने के लिए लंबे संघर्ष से गुजरना पड़ा. किसी फ़िल्मी हीरो की तरह वे इस संघर्ष में वे हार्ट अटैक से गुजरे और उबरे भी. जबकि, उम्र के 90 पड़ाव देख चुके और देश की राजनीति में 5 दशक तक बेहद महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे एनडी तिवारी ने रोहित को हाईकोर्ट के आदेश के बाद बेटा माना.
अदालत के हल से उपजा बाप बेटे का प्यार
इसके लिए रोहित ने 6 साल तक कोर्ट में संघर्ष किया, जबकि काफी ना नुकर के बाद एनडी तिवारी के 'डीएनए टेस्ट' से रोहित को वैधता मिली. भारी दबाव में उस समय 89 साल के तिवारी ने रोहित शेखर की मां 70 साल की उज्ज्वला 'वैधानिक' विवाह किया.
हालांकि, वर्षों से अपने बेटे को पिता का नाम दिलाने की जद्दोजहद में लगी दिल्ली में प्रोफेसर रही उज्ज्वला शर्मा ने अपनी जीत के बाद बेटे को पिता का नाम देने से इनकार कर दिया. ये अलग बात है, अचानक बेटे को पिता का नाम देने का विरोध कर रही उज्ज्वला रोहित को उनकी राजनीतिक विरासत सौपनें के लिए एनडी दबाव बनाने लगी थी.
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एक एक कर एनडी तिवारी के सहयोगियों को बाहर का रास्ता दिखाया जाने लगा. कुछ समय बाद उनके आस-पास सिर्फ रोहित और उज्ज्वला ही दिखने लगे थे.
बेटे को राजनिती का ककहरा
अब एनडी तिवारी के ऊपर रोहित को राजनीति में स्थापित करने की जिम्मेदारी थी. एनडी तिवारी ने इसके लिए बहुत कोशिश भी की लेकिन वे रोहित को जैसा वे (या शायद रोहित और उज्ज्वला शर्मा) चाहते हैं वैसा कुछ दिलवा पाने में अभी तक नाकामयाब रहे है.
वैसे तो अपने संबंधों के जरिये एनडी की पहल पर उस समय सपा मुखिया रहे मुलायम सिंह की पहल पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उन्हें राज्यमंत्री का दर्जा दे रखा था. लेकिन शास्त्रीय संगीत के विद्यार्थी रहे रोहित न तो इससे संतुष्ट हैं, न ही वे यहाँ से खुद आगे ले जाने का कोई रास्ता ही तलाश पाए हैं.
राजनीति में महज 4 साल का अनुभव रखने वाले रोहित की राजनितिक समझ पर उनके साथ के लोग ही सवाल उठाते हैं. ऐसे में एक बार फिर अब बेटे को सही जगह स्थापित करने की जिम्मेदारी एनडी तिवारी के बूढ़े कंधो पर आ गई है.
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खुद एनडी जैसे अनुभवी राजनेता को पता है कि, रोहित तब तक नेता नहीं बन सकते जब तक वे जनता के प्रतिनिधि के रूप में स्थापित न हो जाया जाए. जाहिर है यह रास्ता चुनाव की डगर से होकर निकलता है.
यहां वहां जहां तहां
अब खुद की पार्टी में बगावत की कीमत पर बूढ़े हो चले एनडी तिवारी और राजनीति के लिए बिलकुल नए रोहित पर दांव कौन लगाएगा यह भी बड़ा सवाल है. जानकारी के मुताबिक़ एनडी ने सबसे पहले इस संबंध में कांग्रेस से बात की थी लेकिन वहां बात नहीं बनी.
इसके बाद वे मुलायम से रोहित को लेकर संपर्क में थे, लेकिन पार्टी के आपस के झगडे में पड़े मुलायम से उनकी बात ही नहीं हो पा रही थी. इसके बाद भी सपा परिवार की लड़ाई में उन्होंने 'पत्र' के जरिये अखिलेश के पाले में खड़ा होने का प्रयास किया.लेकिन उन्हें जल्द ही एहसास हो गया की सपा से रोहित को जो मिल सकता है वो वे ले चुकें हैं. ऐसे में कांग्रेस से भाजपा में आये विजय बहुगुणा के जरिये उन्होंने रोहित के लिए भाजपा में संभावनाएं तलाशी.
जानकारी के मुताबिक़ यहाँ बात बनती हुई दिख रही है. रोहित भाजपा के टिकट पर उत्तराखंड से पिता की विरासत पर जमीनी दावा ठोंक सकते है. एनडी अपने बेटे रोहित के लिए कुमाऊं रीजन से टिकट चाह रहे हैं.
न कांग्रेसी हैं न सपाई जो टिकट दे वही भाई
रोहित खुद स्वीकार चुके हैं वे न कांग्रेसी हैं न सपाई. बेहतर विकल्प मिलने पर वे किसी भी पार्टी से चुनाव लड़ सकते हैं.
जानकारी के मुताबिक़ रोहित भाजपा के सिंबल पर लालकुआं या फिर भीमताल से चुनाव लड़ना चाह रहे हैं. भीमताल में एनडी तिवारी का पैतृक गांव है. जबकि, लालकुआं सीट एनडी तिवारी का बड़ा वोट बैंक माना जाता है.
यहाँ, बिंदुखत्ता में एनडी तिवारी के समर्थकों का एक बड़ा वर्ग है, तिवारी के यूपी मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान ही बिंदुखत्ता बसाया गया था. यहाँ हल्दूचौड़ और आसपास में एनडी तिवारी की रिश्तेदारी है. जबकि गौलापार और चोरगलिया भी एनडी तिवारी का प्रभाव क्षेत्र माना जाता है. लेकिन, उत्तराखंड में सत्ता की वापसी की प्रबल दावेदार मानी जा रही भाजपा यहाँ खुद राजनीति के प्रवासी पक्षियों की बहुतायत से जूझ रही है.
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राज्य में कांग्रेस के लगभग सभी दिग्गज भाजपा की केसरिया ओड़नीं ओढ़ चुके है. ऐसे में भाजपा एक और बाहरी को अपनी जमीन पर उतरने का मौक़ा देगी यह किसी फ़िल्मी सस्पेन्स से काम नहीं है.
देखना है की रोहित के लिए राजीतिक राह भी पारिवारिक जीवन के लिए सुखान्त होती है या फिर....