मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सीमाओं से लगी घाटियों में झूठ और फरेब, यहां की सामाजिक जिंदगी की सच्चाई है. मध्य प्रदेश से लगते इटावा के सैफई गांव में मुलायम सिंह का अपने शुरुआती दिनों में इन धोखेबाज घाटियों में रोजमर्रा के जीवन जीने के तौर-तरीकों को सीख लेना किसी कला से कम नहीं था. इन घाटियों के बाहर की दुनिया में इसे राजनीति कहते हैं.
मुलायम के लिए शोक मनाना अभी जल्दबाजी होगी, क्योंकि संकटों से उबरकर बाहर निकलने में महारथ को उन्होंने अपनी कला बना ली है, जिसे राजनीति कहते हैं. पांच साल पहले जब मुलायम ने अपने प्यारे छोटे भाई शिवपाल यादव को दरकिनार कर अखिलेश यादव को अपनी विरासत सौंपी थी. तब ऐसा उन्होंने भावुक होकर नहीं बल्कि व्यवहारिक होकर किया था. अखिलेश तब नौसिखुए थे और मुलायम भी कोई ऊर्जावान नेता नहीं रह गए थे.
बेटे से हारने को बेताब दिखे
बदलते समय में मुलायम इंसान की क्षमताओं से भली-भांति परिचित थे. अब वो अपने इतिहास की धुंधली छाया भर हैं. जिस तरह वो चुनाव आयोग में अपने बेटे अखिलेश के खिलाफ रहस्यमय अंदाज में लड़ाई को लेकर गए, वो उनके शातिरपने को दिखाता है. लगा जैसे मुलायम अपने बेटे से हारने के लिए बेताब थे. ये अखिलेश के जीत के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहने वाले तेवरों को दिखाता है. जो कि एक कामयाब राजनेता में होना बहुत जरुरी है.
मुलायम के आज के दब्बूपन से उलट उनके पहले के आचरण को देखें तो ये अंतर समझ में आता है. अपने राजनीतिक गुरु चौधरी चरण सिंह के बेटे अजित सिंह को किनारे कर मुलायम उनकी विरासत हथियाकर आगे बढ़ गए.
ठीक इसी तरह, बाबरी विध्वंस के बाद वो पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को छोड़कर समाजवादी पार्टी नाम से अपना एक अलग दल बनाने को लेकर जरा भी नहीं हिचके.
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लेकिन मुलायम ने अपने जीवन की सबसे कठिन लड़ाई पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह के साथ लड़ी थी. वो सही मायने में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे थे.
चंबल घाटी के डकैतों के संरक्षक रहे
1980 में यूपी के मुख्यमंत्री बनने के बाद वी पी सिंह ने चंबल के डकैतों के खिलाफ जंग छेड़ दी. यूपी पुलिस ने अपने ऑपरेशन में दर्जनों डकैतों का कथित तौर पर एनकाउंटर कर बेदर्दी से सफाया कर दिया.
उस समय के पुलिस अधिकारियों की बातों पर विश्वास करें तो पुलिस तब के हट्टे-कट्टे नौजवानों के डकैतों से संबंध होने के जरा सा शक होने पर भी उन्हें उठा लेती थी और उन्हें मार डालती थी.
जाहिर है कि मुलायम को जसवंत नगर, इटावा, मैनपुरी, एटा और आगरा में अपने समर्थकों की फौज से हाथ धोना पड़ा. हालांकि फूलन देवी-विक्रम मल्लाह और नेपाल सिंह यादव जैसे डकैत गिरोह बेखौफ अपनी गतिविधियों को अंजाम दे रहे थे. पुलिस केवल उन्हीं छोटे-मोटे अपराधियों को अपना निशाना बना रही थी, जो राजनीति में दस्तक दे रहे थे.
जसवंत नगर की पहाड़ियों में हुई एक मुठभेड़ में कुख्यात डकैत नेपाल सिंह यादव को पुलिस ने मार गिराया तो मुलायम की सेना पूरी तरह से बिखर गई. ऐसा माना जा रहा था कि नेपाल सिंह यादव के नेता जी से करीबी संबंध थे. जिनकी छत्रछाया में वो बरसों तक सलामत रहा.
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मुलायम ने वी पी सिंह पर फर्जी मुठभेड़ की साजिश रचकर इटावा और आसपास की घाटियों में राजनीतिक कार्यकर्ताओं को मरवाने का आरोप लगाया. इसे लेकर उन्होंने वी पी सिंह के खिलाफ जबरदस्त लड़ाई छेड़ दी.
ओबीसी के निर्विवाद नेता बनकर उभरे
हालांकि, 1982 में वीपी सिंह के जाने के बाद बीर बहादुर सिंह की नई सरकार बनने पर मुलायम ने जल्दी ही उनसे मधुर संबंध बना लिये. मुलायम ने चरण सिंह की देखरेख में इलाके में फिर से अपनी फौज बना ली. चौधरी चरण सिंह ने लीडर के तौर पर किसानों से जुड़े मुद्दों को उठाकर सभी जातियों को आपस में जोड़ दिया. मुलायम ने उनसे जल्दी ही इसे लपक लिया और जाट समाज को छोड़कर निर्विवादित रुप से ओबीसी के नेता होकर उभरे.
उन्होंने असरदार तरीके से अजित सिंह को पश्चिमी उत्तर प्रदेश का नेता होकर रहने पर मजबूर कर दिया और बाद में उनका असर केवल बागपत और आसपास के इलाकों तक ही सीमित कर दिया.
वी पी सिंह के साथ मुलायम की चली आ रही लड़ाई 1989 के चुनाव के बाद भी जारी रही. जब वी पी सिंह ने अजित सिंह को यूपी के मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट किया. लेकिन, मुलायम विधानसभा में बहुमत विधायकों का जुगाड़ कर इस लड़ाई में वी पी सिंह से आगे निकल गए.
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बचपन में चंबल की घाटियों में सीखी बाजीगरी की बदौलत मुलायम अयोध्या विवाद से बचकर निकलने में कामयाब रहे थे. विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के नेताओं के साथ वो काफी सहज रहे. अयोध्या आंदोलन को चलाने वाले प्रमुख वीएचपी नेताओं के साथ उनके बेहतर रिश्ते कायम हो गए. लेकिन फिर भी धर्मनिरपेक्षता को अपना हथियार बनाकर उन्होंने मुस्लिम-यादव का मजबूत गठजोड़ खड़ा किया.
ओबीसी और मुस्लिमों का गठजोड़ बनाया
1991 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी बुरी तरह पराजित हुई. लेकिन बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद 1993 में बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन कर मुलायम सत्ता में लौटने में कामयाब रहे. मुलायम के इस मास्टरस्ट्रोक, ओबीसी और मुस्लिमों के गठजोड़ को कम ही लोग समझ पाए. जो अभी तक कांग्रेस का राज्य में मजबूत आधार हुआ करता था.
हालांकि, चतुर मुलायम इस बात को जल्दी ही समझ गए कि उनकी पार्टी का विस्तार कांग्रेस और वाम दलों की कीमत पर ही संभव है. ये ही कारण है कि मुलायम ने कांग्रेस के अल्पसंख्यक वोटबैंक और पूर्वी यूपी के बड़े वामपंथी नेताओं को अपने साथ मिला लिया.
ये जानते और समझते हुए कि अलग-थलग पड़ गए अजित सिंह को इससे राजनीतिक स्थिरता मिल जाएगी. मुलायम ने अपने राजनीतिक हित का ख्याल करते हुए उनके साथ किसी भी तरह के गठबंधन से इंकार कर दिया.
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अपने राजनीतिक जीवन के संध्याकाल में मुलायम के पास अपने बेटे के कांग्रेस और आरएलडी से गठबंधन करने को लेकर चिंतित होने के कारण हैं- इन दोनों से गठजोड़ को उन्होंने नकार दिया था. उनकी चिंता इस बात से भी सामने आती है कि अखिलेश में कुछ भी कर गुजरने के तेवर होने के बावजूद राजनीतिक फैसले लेने के मामले में वो नये हैं.
रहस्य गढ़ने में माहिर मुलायम सिंह
अखिलेश के पिता होने के तौर पर मुलायम जानते हैं कि अच्छे वक्त में दोस्ती दिखाने वालों पर अखिलेश जल्दी भरोसा कर लेते हैं. जबकि, बुरे समय में साथ देने वालों को वो भूल जाते हैं. चंबल की घाटियों और राजनीति में ऐसी नादानियां शायद ही माफ करने लायक होती हैं. या कहें, अक्सर घातक होती हैं. मुलायम ने इसे इतनी ही कठिनाइयों से सीखा है.
मुलायम जब तक आश्वस्त नहीं हो जाते कि अखिलेश राजनीतिक कुशलता में उनसे आगे निकल गए हैं. वो खामोशी का लबादा ओढ़े अपने दोस्तों और दुश्मनों को अपने असली इरादों की भनक नहीं लगने देंगे. ये असली मुलायम सिंह हैं, जो रहस्य गढ़ने में उतने ही माहिर हैं.
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