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हिंसात्मक आंदोलन से सहमत नहीं पर अप्रैल में ही किया था सरकार को आगाह: प्रभाकर केलकर

मध्यप्रदेश के किसान आंदोलन पर फ़र्स्टपोस्ट के संवादाता देबब्रत घोष की आरएसएस से जुड़े बीकेएस के उपाध्यक्ष प्रभाकर केलकर से बातचीत

Debobrat Ghose

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) से संबद्ध भारतीय किसान यूनियन इस बात को लेकर सहमत है कि मध्यप्रदेश में किसानों के आंदोलन का हिंसक होना लाजिमी था जिसमें छह किसान मारे गए और बड़े पैमाने पर सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया था. हालांकि किसान संगठन आंदोलन के दौरान अपनाए गए हिंसात्मक तरीकों से सहमत नहीं है.

फ़र्स्टपोस्ट के साथ विस्तृत बातचीत में में बीकेएस (बीकेएस) के उपाध्यक्ष प्रभाकर केलकर ने बताया कि बीकेएस 20 लाख किसानों का मजबूत संगठन है जो किसानों के बीच जमीनी स्तर पर काम करता है. केलकर ने ये भी बताया कि बीकेएस ने ये देखा है कि नीतियों को लागू करने में सरकार की नाकामी की वजह से कैसे किसानों में गुस्सा बढता गया है.


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आरएसएस के वरिष्ठ प्रचारक की भी जिम्मेदारी संभाल रहे केलकर ने अप्रैल में दिल्ली के जंतर-मंतर में दिन भर चले विरोध प्रदर्शन के दौरान फ़र्स्टपोस्ट के साथ बातचीत में पहले ही ये चेतावनी दी थी कि अगर देश भर के किसानों की मांगों को अनसुना किया गया तो ये ये देश भर में बड़े स्तर के आंदोलन में बदल सकता है.

बातचीत के अंश

आपने अप्रैल में ही ये चेतावनी दी थी कि किसानों का आंदोलन लगातार मजबूत और उग्र होता जाएगा. आपने इतने भरोसे के साथ ऐसा कैसे कहा था?

भारतीय किसान संघ किसानों के मुद्दों के लिए जमीनी स्तर पर काम करता है. हमने जहां कहीं का भी दौरा किया, वहां हमने किसानों के बीच गुस्सा और गहरी निराशा महसूस की. ये लगातार बढ़ रहा था और कहीं ना कहीं जाकर इसमें विस्फोट होना ही था. दुर्भाग्यवश ऐसा मंदसौर में हुआ.

किसानों के आंदोलन ने जो हिंसात्मक रूख अख्तियार किया है क्या आप उससे सहमत हैं?

व्यक्तिगत रूप से ना ही मैं और न ही मेरा संगठन ऐसे हिंसात्मक तरीकों से सहमति जाहिर करता है. लेकिन यह किसानों में इतने समय से पल रहे गुस्से की परिणति थी. यह जरूरी था और ये होना ही था.

हमने सरकार को कई बार सावधान किया था और किसानों और कृषि क्षेत्र की लगातार खराब होती हालत से अवगत कराया था. मौजूदा हालात को लेकर युवा किसानों की नई पीढ़ी अपना धीरज खो बैठी. किसानों की आय कम हो रही है. सरकार के वादे के मुताबिक इसे 'लाभ देने वाला सौदा' होना था लेकिन ये घाटे के सौदे में बदल गया.

इसके व्यापक आंदोलन में तब्दील होने के क्या कारण थे?

इसके कई कारण हैं.  पहला ये कि किसान अपने उत्पादों का सही मूल्य पाने में नाकाम रहे. किसानों को अपने उत्पाद का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) नहीं मिल पा रहा है. अनाज की मंडियों में व्यापारी कम दाम पर उत्पाद खरीद कर रहे हैं.

दूसरा ये कि किसान मानसून आता देखकर कम मूल्य पर अपने उत्पाद बेचने लगे क्योंकि उन्हें बीज और उर्वरक खरीदना था. अगर सरकार ने एमएसपी का ऐलान किया था तो उसे किसानों से इस मूल्य पर किसानों से फसल की खरीद सुनिश्चित करनी चाहिए थी. खरीद के प्रभावी तंत्र की गैरमौजूदगी में किसानों को मजबूरी में अपने उत्पाद हड़बड़ी में बेचने पड़े.

तीसरी ये कि जब अरहर दाल की बंपर फसल हुई तो सरकार ने बड़े पैमाने पर ये दाल आयात कर ली. इसका परिणाम ये हुआ कि घरेलू उत्पाद को सही मूल्य नहीं मिल पाया. आयात-निर्यात में एक तरह का असंतुलन भी है. कृषि मंत्रालय और नागरिक आपूर्ति मंत्रालय दोनों जमीनी हकीकत से अनजान हैं.

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चौथा ये कि मंडियों में व्यापारी फसल की बिक्री के वक्त चेक से भुगतान के नाम पर भुगतान करने में देर करके किसानों का शोषण करते हैं.

पांचवा ये कि बीजेपी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में स्वामीनाथ कमेटी का फॉर्मूला लागू करने का वादा किया था जिसके तहत एमएसपी को कृषि उत्पाद की कुल लागत में 50 फीसदी बढ़ोतरी करके निर्धारित किया जाना था. लेकिन ऐसा नहीं हो पाया.

छठा ये कि सरकार के पास किसानों का उत्पाद खरीदने का बजट नहीं है. इसका नतीजा ये हो रहा है कि बिचौलिए और व्यापारी किसानों का शोषण कर रहे हैं.

राज्य सरकार की नीति में भी गड़बड़ी है. उदाहरण के लिए, सरकार ने मूंग को तीसरी फसल घोषित कर दिया और इसे व्यावसायिक श्रेणी में रख दिया. इस साल मूंग की भरपूर पैदावार हुई लेकिन इस नीति कि वजह से किसानों को सही कीमत नहीं मिल सकी. ऐसे और कई मुद्दे हैं जो किसानों को परेशान कर रहे हैं.

सरकार किसानों की आय को दोगुना करने की बात करती है लेकिन ऐसा होने की बजाय ये आय आधी रह गयी. नाराजगी, कुंठा, विश्वास की कमी जब जमा हो गये तो इससे व्यापक हिंसात्मक आंदोलन की भूमिका बन गयी, जिसके बारे में हमने पहले ही सचेत कर दिया था.

एक जून को शुरू हुए किसानों के आंदोलन के पहले चरण में बीकेएस दूसरी किसान यूनियनों के साथ शामिल था लेकिन बाद ये अलग हो गया. क्यों?

ये फैसला हमारी मध्यप्रदेश राज्य की इकाई ने लिया था. संभवतः उन्हें ये महसूस हुआ कि आंदोलन दिशाहीन हो रहा है और उन्होंने अलग होने का फैसला लिया. आंदोलन ने जो गति पकड़ी इससे ये साबित हो गया कि यूनियनों के बीच कहीं न कहीं सहमति की कमी है.

आंदोलन अब गुंडागर्दी में तब्दील हो गया है और आम आदमी पर हमला किया जा रहा है. एमपी के इस पश्चिमी बेल्ट में जीवन थम सा गया है. क्या आपको इस कार्रवाई के पीछे राजनीतिक ताकतों की साजिश नजर आती है?

खासकर इस किसान आंदोलन में राजनीति बाद में होनी शुरू हुई. जैसा मैं पहले भी कह चुका हूं कि इस हिंसात्मक विस्फोट की मूल वजह किसानों के बीच बढता गुस्सा है. उन्हें एक माध्यम चाहिए था और गुस्से ने दुर्भाग्यपूर्ण टर्न लिया.

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एक गरीब किसान कितने समय तक अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ता रह सकता है. हालांकि अब इस खेल में अपने गोपनीय इरादों के साथ कई अवसरवादी भी शामिल हो गये हैं. कुछ गुंडे भी हैं जिन्होंने किसानों का वेश धरकर इस आंदोलन का लाभ उठाना चाहा. किसानों के अंदर नाराजगी हो सकती है लेकिन वो इस तरह आपराधिक तेवर नहीं अपना सकते.

मध्यप्रदेश सरकार की ओर से किसानों की मांगों को पूरा करने का आश्वासन दिये जाने के बावजूद आंदोलन मंदसौर से आगे फैल रहा है. इसे आप किस रूप में देखते हैं ?

पिछले दस वर्षों में मध्य प्रदेश में कृषि की स्थिति बेहतर हुई है. लेकिन किसानों की शिकायतों को दूर करने में सरकार नाकामी और सरकार द्वारा घोषित कई उपायों के लागू नहीं होने की वजह से सरकार के प्रति किसानों ने भरोसा खो दिया है.

आश्वासन से काम नहीं चलता. सरकार को तेज गति से काम करने की जरूरत है. यह आंदोलन ना सिर्फ एमपी के दूसरे जिलों में फैल रहा है बल्कि दूसरे राज्यों का भी रूख करने लगा है.

कर्ज अपने आप में ही बड़ा जाल है.

किसानों का लोन माफ करने को लेकर आपकी राय क्या है?

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्य नाथ के नेतृत्व में बनी नई सरकर ने लोन माफ करने का ऐलान कर दिया. इसकी वजह से दूसरे हिस्सों के किसानों की ओर से भी ऐसी ही मांगें उठने लगीं. महाराष्ट्र सरकार ने भी घोषणा की है कि लोन माफी की योजना की रूपरेखा तय करने के लिए एक कमेटी बनाई जाएगी. अब ये आग अन्य राज्यों में भी फैलेगी.  यूपी में जो फैसला लिया गया उसे दूसरे राज्यों में भी उसी तरह कैसे लागू किया जा सकता है.

यूपीए सरकार ने किसानों का लोन माफ किया लेकिन ये स्थायी समाधान नहीं हो सकता. मेरा ये मानना है कि लोन माफ करने की बजाय सरकार को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि वो उस राशि का उपयोग बीज, उर्वरक और अन्य कृषि संबंधी जरूरतों के लिए करे.

मौजूदा हालात को देखते हुए सरकार के लिए आपकी सलाह क्या है?

हमने पहले भी ये प्रस्ताव दिया है और अभी भी इसे दोहरा रहे हैं कि संसद सदस्यों को क्षुद्र राजनीति से ऊपर उठकर संसद का विशेष सत्र बुलाकर 25 वर्षों के लिए एक व्यापक रोडमैप तैयार करना चाहिए और राष्ट्रीय नीति बनानी चाहिए ताकि कृषि संबंधी गिरावट और किसानों की बिगड़ती हालत को रोका जा सके. हमें ये प्रस्ताव प्रधानमंत्री को भी दिया है.

दूसरी ओर राज्य सरकार को ग्राम पंचायतों में जाकर किसानों की बात धैर्य के साथ सुननी होगी.  सभी पक्षों के साथ बातचीत शुरू की जानी चाहिए. उन्हें ये बात सुनिश्चित करनी चाहिए कि अब जो भी वादे किए जाएं उन्हें उसी भावना के साथ अक्षरश: पूरा किया जाए. सरकार को जिम्मेदारी लेनी होगी और केवल वादों से काम नहीं चलेगा.