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किसान आंदोलन से सबक: बीजेपी को दूर तक सताएंगे चुनावी वादे

भारत अब किसानों का देश नहीं रहा

Updated On: Jun 09, 2017 05:03 PM IST

Sandipan Sharma Sandipan Sharma

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किसान आंदोलन से सबक: बीजेपी को दूर तक सताएंगे चुनावी वादे

चमत्कार ही कहा जाएगा कि भारत में किसानों का फसल उगाना उस घड़ी भी जारी है जब जाहिर हो चुका है कि यह उनकी बर्बादी का सबब है और कभी-कभी तो उनके लिए मौत का सामान भी साबित हो सकता है.

भारत अब किसानों का देश नहीं रहा. महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में जारी बवाल एक और संकेत है कि किसानी दुखों का कारण बन चली है.

किसानों की हकीकत 

खेतिहर परिवारों की आमदमी के बारे में आई नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक किसान परिवारों की औसत मासिक आमदनी 6426 रुपए है और इस आमदनी का बस आधा हिस्सा खेती-बाड़ी से हासिल होता है. देश के 17 राज्यों में किसी परिवार की औसत मासिक आमदनी मात्र 18000 रुपए है और खेती-बाड़ी से इस आमदनी के मात्र 9000 रुपए हासिल होते हैं.

लेकिन किसानों के दुख की कहानी का यह बस आधा हिस्सा है. सर्वेक्षण से यह भी संकेत मिलते हैं कि खेती पर निर्भर 50 फीसदी ग्रामीण परिवार कर्ज में डूबे हैं. और चूंकि 90 फीसदी किसान परिवार बड़ी छोटी यानी एक हैक्टेयर से भी कम काश्त के मालिक हैं, सो वे कर्ज के दुष्चक्र में फंसे रहते हैं. कर्ज की अदायगी नहीं कर पाते, सूद बढ़ता जाता है क्योंकि खेती-बाड़ी से ऐसे किसानों को पर्याप्त आमदनी नहीं होती.

Uttar Pradesh UP Poverty Farmer

2011 की जनगणना से पता चलता है कि भारत में 11.87 करोड़ किसान और 14.43 करोड़ खेतिहर मजदूर हैं. इसका मतलब हुआ कि भारत के कुल श्रम-बल (48.17 करोड़) का आधे से भी ज्यादा (लगभग 55 प्रतिशत) हिस्सा जीविका के लिए खेती के भरोसे है. दुख-दैन्य जब इतना है तो कोई कैसे उम्मीद कर सकता है कि देश की ग्रामीण जनता शांति के साथ रहेगी?

ग्रामीण-संकट हमेशा से टिक-टिक करते एक टाइम बम की तरह था... अब फटा कि तब फटा. लेकिन वक्त गुजरने के साथ बनती-बदलती तमाम सरकारों ने किसानों को गुमराह करने के लिए बस नारे दिए, वादे गढ़े. महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश का बवाल बस संकट की शुरुआत है. अगर इसका तत्काल समाधान नहीं हुआ तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति को एक सिरे से बदलकर रख देगा.

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क्यों कर रहे हैं इन दो सूबों के किसान विरोध-प्रदर्शन? उत्तर बड़ा सीधा-सादा है. उन्हें लगता है, सरकार ने उनके साथ धोखा किया है. चुनाव से पहले लुभावन वादे करके और चुनावी लाभ को ध्यान में रख औने-पौने हिसाब की नीतियां बनाकर गुमराह किया है. किसानों को लगने लगा है कि राजनेताओं ने उन्हें बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया है.

क्या हुआ तेरा वादा?

2014 के चुनाव-प्रचार के दौरान बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि किसानों को अपनी फसल की लागत के ऊपर 50 फीसदी मूल्य मिले- यह मैं सुनिश्चित करुंगा. उन्होंने कहा था- 'अगर एनडीए सत्ता में आई तो किसानों के लागत मूल्य पर 50 फीसदी का मुनाफा जोड़कर उन्हें फसल का लाभकारी मूल्य देगी.'

रैली में उन्होंने वादा किया था, 'खाद-बीज, सिंचाई और मजदूरी मिलाकर किसान को फसल को उपजाने में जो लागत आती है उसपर 50 प्रतिशत मुनाफा जोड़कर हमलोग न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करेंगे.'

'आज न्यूनतम समर्थन मूल्य कभी 200 रुपए तो कभी 250 और 300 रुपए के हिसाब से बढ़ाया जाता है और आपकी उपज बर्बाद होती रहती है.' ये बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के शब्द थे.

farmer

सरकार ने जो न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया है उससे बहुत कम कीमत पर आज किसान अपनी उपज बेचने को मजबूर है और यही फिलहाज जारी हंगामे के पैदा होने की वजह है.

महाराष्ट्र में अरहर का प्रति क्विन्टल न्यूनतम समर्थन मूल्य 5050 रुपए तय किया गया था लेकिन खरीदार ना मिलने की वजह से किसानों को 3500 रुपए प्रति क्विन्टल के हिसाब से अरहर बेचनी पड़ी. इसी तरह सोयाबीन और प्याज की फसल भी उन्हें औने-पौने दामों में बेचनी पड़ी.

कीमतों के गिरने की वजह 

कीमतों के गिरने की एक बड़ी वजह यह है कि इस साल बंपर उपज हुई है. देश में खाद्यान्न उत्पादन पिछले पांच सालों के औसत के हिसाब से 6.5 प्रतिशत ज्यादा हुआ है. 2015-16 के मुकाबले उपज 8.5 प्रतिशत ज्यादा हुई है.

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जब एक किसान को ज्यादा उपज होती है तो वह धनी होता है लेकिन जब सारे किसानों को ज्यादा उपज हो तो वे गरीब हो जाते हैं. यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक जाना हुआ कायदा है. इसके साथ किसानों पर चोट करने वाली एक और बात हुई- नोटबंदी के कारण उन्हें नगदी की किल्लत का सामना करना पड़ा. किसान मंडियों में अपनी उपज लेकर गये तो देखा कि खरीद के लिए पर्याप्त रकम ही मौजूद नहीं है. लंबे इंतजार के बाद उन्हें जो भी दाम मिल रहा था उसे ही मंजूर कर अपनी उपज बेचनी पड़ी- मांग बड़ी कम थी और उपज की आपूर्ति खूब बढ़ी हुई थी.

साफ जाहिर है कि जिस देश में कभी जय जवान-जय किसान का नारा लगा था वह बड़ी तेजी से किसानों की कब्रगाह बनता जा रहा है. कर्ज बढ़ रहा है, मुनाफा घटता जा रहा है, खेत छोटे होते जा रहे हैं और किसान-आत्महत्या की दर बढ़ रही है.

A farmer rests upon sacks filled with paddy at a wholesale grain market in Chandigarh

सरकार से हिसाब मांग रहे हैं किसान 

उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सूबे में किसानों के 36,359 करोड़ रुपए के कर्ज माफ करने का एलान किया. महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में जारी मौजूदा हंगामे के खड़ा होने की एक वजह यह भी है.

सो, प्रदर्शनकारी किसानों की यह मांग ठीक है कि हमारे कर्जे क्यों नहीं माफ किए जा सकते खासकर यह देखते हुए कि नोटबंदी ने असर डाला है और उपज की सरकारी खरीद उस कीमत पर ना हो सकी है कि किसानों को फायदा मिले. किसानों को ठीक ही महसूस होता है कि राजनीतिक दल उनका इस्तेमाल वोट-बैंक की तरह करते हैं और अपनी जरुरत के हिसाब से लुभाने वाली योजनाएं निकालते हैं.

विडंबना देखिए कि बीते महीनों में बीजेपी शासित कई राज्यों में हिंसक प्रदर्शन हुए हैं- गुजरात का पाटीदार आंदोलन, हरियाणा में जाटों का आंदलन और अब महाराष्ट्र तथा मध्यप्रदेश का संकट! यह बीजेपी के लिए सबक सीखने की बात है, भीतर ही भीतर क्रोध का लावा खौल रहा है और हर चुनावी वादा किसी ना किसी दिन पार्टी के सर पर किसी भूत की तरह मंडरायेगा, अपना हिसाब मांगेगा.

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