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महाराष्ट्र चुनाव 2019: 'महाअघाड़ी' की मदद से अपना गढ़ वापस ले पाएगी कांग्रेस?

कांग्रेस सिर्फ 2019 के लोकसभा चुनाव पर नजर नहीं टिकाए है बल्कि अपने गढ़ महाराष्ट्र को हासिल करना चाहती है

Aparna Dwivedi

2019 में महाराष्ट्र में राजनैतिक पार्टियां लोकसभा और विधानसभा चुनाव की तैयारी में है. 2019 के लोकसभा में जहां एक तरफ कांग्रेस एनसीपी के साथ फिर से गठबंधन की तैयारी में जुटा है ताकि वो केंद्र और राज्य दोनों में सरकार बना सके. राहुल गांधी की स्थानीय कार्यकर्ताओं के साथ हुई मुंबई में बैठक में मोदी सरकार पर निशाना तो साधा ही साथ ही विधानसभा चुनाव के लिए भी तैयार रहने को कहा.

कांग्रेस वहां पर 2019 के लोकसभा चुनाव और राज्य विधानसभा चुनाव में बीजेपी से मुकाबला करने के लिए समान सोच वाली पार्टियों का एक महा अघाड़ी (महागठबंधन) बनाना चाहती है. और इसके लिए पार्टी ने जिला, तालुका और राज्य के नेताओं को तैयार करना शुरू कर दिया है. कांग्रेस की कोशिश है कि इस तरह के गठबंधन होने के बाद, बीजेपी-विरोधी वोट नहीं बंटेंगे.


दो उपचुनावों में बीजेपी बैकफुट पर

महाराष्ट्र में हाल ही लोकसभा के दो- पाल घर और भंडारा गोंदिया में उपचुनाव हुए. बीजेपी के खाते वाली दोनों सीटों पर जहां बीजेपी को पालघर में जीत मिली वहीं भंडारा गोंदिया में एनसीपी ने बीजेपी से ये सीट हथिया ली. कांग्रेस का मानना है कि पालघर उपचुनाव में बीजेपी को धर्मनिरपेक्ष मतों में हुए बंटवारे की वजह से फायदा मिला.

2014 के लोकसभा चुनाव में पालघर सीट पर बीजेपी को 53.7 फीसदी वोट मिले थे लेकिन इस बार उसे सिर्फ 31.4 फीसदी वोट मिले. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 50.6 फीसदी वोट मिले थे, जो उपचुनाव में घटकर 42 फीसदी पर आ गया इस सीट पर पिछली बार हारी एनसीपी को 38 फीसदी वोट मिले थे, जो उपचुनाव में बढ़कर 47 फीसदी हो गया है. इस आंकड़े ने जहां बीजेपी की चिंता बढ़ाई वहीं कांग्रेस को फिर से उत्साहित किया.

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कांग्रेस का गढ़ महाराष्ट्र

महाराष्ट्र राज्य का गठन 1960 में हुआ था. तब से यहां पर कांग्रेस या फिर कांग्रेस गठबंधन की सरकार रही है. कांग्रेस को हटा कर शिवसेना-बीजेपी गठबंधन ने पहली बार 1995 में सरकार बनाई जिसने राज्य को दो मुख्यमंत्री दिए- मनोहर जोशी और नारायण राणे. लेकिन ये सरकार पूरे पांच साल नहीं चल पाई और 1999 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन ने फिर से सरकार बनाई. हालांकि करीब 15 साल चली सरकार में दरार आने लगी थी.

कांग्रेस बड़ी और पुरानी पार्टी होने का रौब रखना चाहती थी वहीं एनसीपी की महत्वकांक्षा बढ़ती जा रही थी. 1999 में एनसीपी का महाराष्ट्र के एक भाग यानी पश्चिम महाराष्ट्र में अधिपत्य था. इसलिए वो जूनियर पार्टी के रूप में कांग्रेस के साथ जुड़ी रही. लेकिन बाद में एनसीपी ने कांग्रेस के वोट बैंक विदर्भ, खांदेश और मराठवाड़ा क्षेत्रों में पैठ बनाई और एनसीपी महाराष्ट्र में कांग्रेस से बराबरी के स्तर पर आ गई.

एनसपी ने 15 साल पुराना गठबंधन तोड़ते हुए मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण पर उपेक्षा करने का आरोप लगाया. दोनों दलों में मतभेद हुए और दोनों तरफ से अहम की लड़ाई ऐसी तनी कि 2014 में दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा. कांग्रेस ने 288 सदस्यीय विधानसभा पर 17.9 5% वोट फीसदी के साथ 42 सीटों पर जीत हासिल की और एनसीपी ने 17.24% वोट फीसदी के साथ 41 सीटे जीती. लेकिन सरकार बीजेपी की बनी. जानकार मानते हैं कि अगर कांग्रेस और एनसीपी अपने मतभेद को सुलझा लेते तो 2014 का विधानसभा उनके पक्ष में जा सकता था.

किसान आंदोलन का सहारा

महाराष्ट्र में बीजेपी सरकार ने तीन साल तक बहुत खुश होकर सरकार चलाया लेकिन फिर वो भी विवादों के घेरे में आने लगी. महाराष्ट्र में किसानों ने सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया. ये आंदोलन उत्तर प्रदेश की नई नवेली बीजेपी का राज्य सरकार बनने के बाद शुरू हुआ. सरकार बनने के बाद उत्तर प्रदेश मुख्यमंत्री योगी ने किसानों के कर्जमाफी की घोषणा की. इससे महाराष्ट्र के किसान नाराज हुए. न्यूनतम समर्थन मूल्य की बढ़ोतरी और कर्ज माफी की मांग करते हुए किसान ने महाराष्ट्र की बीजेपी सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया.

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महाराष्ट्र में हज़ारों किसान और आदिवासी नासिक से 180 किलोमीटर का पैदल मार्च करते हुए मुंबई के आज़ाद मैदान में पहुंच सरकार के खिलाफ आंदोलन की घोषणा की थी. हालांकि उनके आंदोलन की शुरुआत में इसका कोई राजनैतिक चेहरा नहीं था. गौरतलब था कि ये आंदोलन उत्तर और पश्चिम महाराष्ट्र के किसानों ने शुरू किया था जो कि आर्थिक रूप से बेहतर थे. न कि विदर्भ या मराठवाड़ा के अकाल और पानी के संकट से जूझते सीमांत किसानों ने.

किसान आंदोलन ने कांग्रेस और एनसीपी की दोस्ती को फिर से जीवित किया और दोनों दलों ने किसानों के पक्ष में एक साझा रैली नागपुर में की. तब से लेकर अब तक एनसीपी और कांग्रेस दोस्ती एक बार फिर ट्रैक पर लौटती नजर आ रही है. उसी समय कांग्रेस और एनसीपी नेताओं ने 2019 लोकसभा चुनाव में गठबंधन की घोषणा कर दी थी.

दलितों से बेरूखी

किसानों से उबरी बीजेपी सरकार के सामने दूसरा मुद्दा दलित समुदाय के भड़कने का उभरा. 2018 की शुरुआत महाराष्ट्र के पुणे के पास स्थित भीमा-कोरेगांव में भड़की जातीय हिंसा से हुआ जो कि पिछले दो दिनों से महाराष्ट्र के पुणे और आसपास के क्षेत्र में फैलती गई. इस मुद्दे ने कांग्रेस एनसीपी के साथ साथ बहुजन समाज पार्टी ने भी महाराष्ट्र की राज्य सरकार और केंद्र सरकार पर दलितों की बेरूखी का आरोप लगाया.

महाराष्ट्र में 10 फीसदी से ज्यादा दलित मतदाता हैं और 288 विधानसभा सीटों में से करीब 60 सीटें ऐसी हैं जहां दलित मतदाता किसी राजनीतिक खिलाड़ी के लिए अहम साबित हो सकते हैं. यहां तक कि लोकसभा चुनाव में 10 से 12 सीटों पर दलित वोट उम्मीदवार की हार जीत का निर्णय करेगा.

कौन कौन सी पार्टियां हो सकती हैं महाअघाड़ी?

गौरतलब है कि महाराष्ट्र विधानसभा की 288 विधानसभा सीटों के लिए 19 अक्टूबर को हुई मतगणना में बीजेपी 123 सीटें हासिल कर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी. जबकि शिवसेना दूसरे और सत्तारूढ़ कांग्रेस यहां तीसरे स्थान पर खिसक गई थी.

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साल 2014 के विधानसभा में वोट फीसदी देखा जाए तो बीजेपी को 31.15 फीसदी वोट मिले थे और शिवसेना को 19.3 फीसदी वोट मिले थे. कांग्रेस के वोट में करीब 18 फीसदी गिरावट आई थी और उसे 18.10 फीसदी वोट मिले थे. वहीं एनसीपी को 17. 96 फीसदी वोट मिले थे. वहां पर कुछ-कुछ सीटों पर चुनाव लड़ने वाली पार्टियों ने भी अपना रंग दिखाया था.

मुसलमान और दलितों की हितों के नाम पर महाराष्ट्र विधानसभा में कूदे

असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन ने 288 विधानसभा सीटों महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में 24 सीटों पर चुनाव लड़ा और 13.16 फीदी वोट पर कब्जा किया हालांकि सीटें उन्हें दो ही मिली. राज्य में मुसलमान कुल आबादी के 15 प्रतिशत हैं एवं कुल 288 विधानसभा क्षेत्रों में 30 ऐसे क्षेत्र हैं जहां उनकी जनसंख्या घनी है. उसी तरह राष्ट्रीय समाज पक्ष ने छह सीटों पर चुनाव लड़ा और एक सीट के साथ 20.54 फीसदी वोट पर कब्जा किया.

कांग्रेस की इन पार्टियों पर नजर है. इसके अलावा समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के धड़ों, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) जैसी पार्टियां से भी कांग्रेस संपर्क में है.

कांग्रेस इसके अलावा राज्य में खुद को भी मजबूत स्थिति में लाना चाहती है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी मुंबई के कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं से सीधे बातचीत का रास्ता खोलने के लिए सोशल मीडिया समेत कई उपाय में जुटी है. बताया गया है कि वहां पर एक विशेष संपर्क नंबर भी जारी किया गया ताकि कार्यकर्ता सीधे राहुल गांधी से संपर्क कर सकेंगे. करीब दो दशक बाद स्थानीय कार्यकर्ताओं के सथ संपर्क की इस कोशिश के पीछे बताया जा रहा है कांग्रेस सिर्फ 2019 के लोकसभा चुनाव पर नजर नहीं टिकाए है बल्कि अपने गढ़ महाराष्ट्र को हासिल करना चाहती है.

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)