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मध्यप्रदेश में संतुलन बनाने की कोशिश में राहुल गांधी

आमतौर पर माना यही जाता है कि मध्यप्रदेश में चुनावी मुकाबला कांग्रेस बनाम कांग्रेस का बन जाता है

Sandipan Sharma

कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी मध्यप्रदेश में पार्टी के अलग-अलग गुटों के बीच संतुलन साधने की कोशिश कर रहे हैं जिससे संकेत मिलता है कि उन्होंने पंजाब में दो साल पहले नेतृत्व के मामले में किए गए प्रयोगों से सीख ली है. पंजाब में एकदम आखिरी लम्हे में उन्हें मजबूरन सूबे के कद्दावर नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह को प्रदेश कांग्रेस इकाई का अध्यक्ष और मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना पड़ा था लेकिन पंजाब के उलट मध्यप्रदेश में उन्होंने समय रहते नेतृत्व के सवाल को सुलझाने की कोशिश करते हुए कमलनाथ को पार्टी का प्रमुख और ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव-अभियान का मुखिया बनाया है.

आमतौर पर माना यही जाता है कि मध्यप्रदेश में चुनावी मुकाबला कांग्रेस बनाम कांग्रेस का बन जाता है. पार्टी के भीतर बहुत ज्यादा गुट हैं और हर सीट पर दर्जनों की तादाद में लोग पार्टी को अलग-अलग दिशाओं में खींचने में लगते हैं. कांग्रेस पार्टी के भीतर चलने वाली इस लड़ाई से बीजेपी को चुनावों को वक्त फायदा होता है.


कमलनाथ और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह सूबे में पार्टी के भीतर हमेशा की सत्ता के दो केंद्र बने चले आ रहे हैं. पांच साल पहले जब कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह उर्फ राहुल भैय्या को सूबे की विधानसभा में विपक्ष का नेता और अरुण यादव को प्रदेश पार्टी इकाई का अध्यक्ष नियुक्त किया तो इससे सत्ता के और भी ज्यादा केंद्रों का उभार हुआ. लेकिन बात यहीं पर आकर नहीं रुकी.

ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की मांग जोर पकड़ रही है

पार्टी के अंदर बढ़ा है ज्योतिरादित्य सिंधिया का कद 

राहुल गांधी के पार्टी प्रमुख बनने के बाद उनके दोस्त और सलाहकार ज्योतिरादित्य सिंधिया का कद पार्टी में खुद-ब-खुद ऊंचा हुआ और उन्हें कई लोग पार्टी अध्यक्ष राहुल की ओर से सूबे के मुख्यमंत्री पद के पसंदीदा उम्मीदवार के रुप में देखते हैं. लेकिन जब विकल्प ज्यादा हों तो हमेशा की तरह मुश्किल खड़ी होती ही है और विकल्पों को यही बहुतायत सूबे में कांग्रेस पार्टी के लिए सिरदर्दी का सामान साबित हो रही थी.

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राहुल के नेतृत्व पद पर पहुंचने के बाद पार्टी के भीतर ही भीतर नई और पुरानी पीढ़ी के नेताओं के बीच एक लड़ाई जारी थी. सोनिया गांधी के अध्यक्ष रहते पुरानी पीढ़ी के जो नेता ताकतवर थे वे नई पीढ़ी के नेताओं जैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, जतिन प्रसाद, रणदीप सूरजेवाला- का कद नए नेतृत्व में ऊंचा उठने से मन ही मन नाराज चल रहे थे. अहम सियासी हस्तियों के बेटे यानि इन ‘बाबालोग’ के पार्टी में महत्वपूर्ण होते जाने के साथ पुरानी पीढ़ी के नेताओं के मन में एक किस्म का असुरक्षा बोध पैदा हो चला है.

कांग्रेस के भीतर नई और पुरानी पीढ़ी के बीच चलने वाली रस्साकशी का एक हालिया उदाहरण राजस्थान है.. यहां पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पिछले दो दशक से कांग्रेस का चेहरा रहे हैं लेकिन सूबे के मौजूदा पार्टी अध्यक्ष सचिन पायलट से अभी तक उनके समीकरण सीधे नहीं हो पाए हैं. दोनों के बीच जारी रस्साकशी का ही नतीजा है कि अशोक गहलोत की तरफ से यह कहते हुए आरोप उछाले जाते हैं कि सचिन पायलट में अनुभव की कमी है और राहुल गांधी को मजबूरन सूबे के इस पूर्व मुख्यमंत्री को एक ना एक बहाने से प्रदेश से बाहर रखना पड़ता है. गहलोत की महत्वाकांक्षाओं पर नजर रखते हुए राहुल गांधी ने उन्हें पहले गुजरात चुनावों का प्रभारी नियुक्त किया. फिर हाल के वक्त में उन्हें पार्टी संगठन का महासचिव बनाकर जयपुर खिसका दिया.

कमलनाथ को प्रदेश अध्यक्ष बना राहुल ने साधा है संतुलन 

कमलनाथ को मध्यप्रदेश में पार्टी की कमान थमाकर राहुल गांधी ने कांग्रेस को दो पीढ़ी के नेताओं के बीच चल रही कुछ ऐसी ही खींचतान से बचाने की कोशिश की है. कमलनाथ को कमान थमाने का सीधा मतलब निकलता है कि राहुल पार्टी को साझे नेतृत्व में चुनावी लड़ाई लड़ते देखना चाहते हैं. सूबे में इस साल बाद के महीनों में चुनाव होने वाले हैं और अगर पार्टी चुनाव जीतती है तो सिर्फ इसी सूरत में राहुल मध्यप्रदेश में पार्टी के नेतृत्व के सवाल को नए सिरे से सुलझायेंगे.

कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपने तेवर से बगावत के संकेत दिए थे और कमलनाथ के कुछ ऐसे ही तेवर देखकर कांग्रेस की नींद हराम हो रही थी. इस साल के शुरुआती महीनों में यह अफवाह भी उड़ी कि कमलनाथ कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में जा सकते हैं. कमलनाथ ने अपनी तरफ से सार्वजनिक रुप से कहा है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को सूबे का भावी मुख्यमंत्री मानकर चला जाए. इससे संकेत मिलता है कि सूबे में नेतृत्व को लेकर फैसला लिया जा चुका है.

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लेकिन जहां तक कांग्रेस का सवाल है, उसके लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ दोनों ही महत्वपूर्ण हैं. पार्टी के लिए इन दो नेताओं की अहमियत इसी बात से आंकी जा सकती है कि 2014 के लोकसभा चुनावों के वक्त पार्टी की ओर से हिंदीपट्टी में गांधी-परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त इन्हीं दोनों को जीत हासिल हुई थी. जाहिर है, अगले चुनावों में बीजेपी से होड़ करने के लिए कांग्रेस को इन दोनों नेताओं की जरुरत पड़ेगी.

सधे कदम से दूर किया है भीतरघात का डर 

एक और चीज ने भी पार्टी को साझे नेतृत्व का फैसला लेने पर मजबूर किया. सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने हाल में नर्मदा बचाओ यात्रा की. हालांकि दिग्विजय सिंह ने कहा था कि वे अपने को चुनावी राजनीति से दूर रखेंगे लेकिन उनकी नर्मदा बचाओ यात्रा को जनता से जुड़ने के एक अभियान के रुप में देखा गया.

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दिग्विजय सिंह के इस प्रयास की लोगों में सराहना हुई और यात्रा की कामयाबी के कारण दिग्विजय सिंह का कद सूबे की राजनीति में मजबूत हुआ. चूंकि दिग्विजय सिंह भी कमलनाथ को प्रदेश पार्टी इकाई के अध्यक्ष के रुप में देखना चाहते थे इस कारण राहुल गांधी के पास और कोई विकल्प नहीं रह गया था.

मध्यप्रदेश में फिलहाल कांग्रेस ने नेतृत्व का सवाल सुलझा लिया है सो पार्टी अब भितरघात और गुटबंदी की ज्यादा चिन्ता किए बगैर चुनाव-अभियान पर ध्यान टिका सकती है. एक बात यह भी है कि सूबे में पार्टी ने मसला कुछ ऐसे सुलझाया है कि उससे सबको संतोष है.

ऐसे में, कांग्रेस अध्यक्ष अब राजस्थान की तरफ अपना रुख मोड़ सकते हैं जहां अहं, महत्वाकांक्षा तथा पीढ़ियों के टकराव के कारण कुछ ऐसे हालात बने हुए हैं कि इस साल बाद के महीने में होने वाले चुनावों में पार्टी की संभावित जीत हाथ से निकल सकती है.