view all

तीसरा मोर्चा बनाने की जुगत में लगी ममता की कोशिश क्या रंग लाएगी?

अगर बीजेपी के खिलाफ बड़ा मोर्चा खोलने के बजाय छोटी-छोटी जगह बीजेपी को काटा जाए और अपने वोट बैंक को ही संभाल लिया जाए तो बीजेपी के लिए वोटरों को खींचने की गुंजाइश कम होगी

Aparna Dwivedi

एक उपचुनाव की जीत ने विपक्ष के हौसले बुलंद कर दिए हैं. राज्यसभा में बीजेपी की जीत ने इन हौसलों को और हवा दे दी है. बहुजन समाजवादी पार्टी की अध्यक्ष मायावती जहां सारे गिले शिकवे भुला कर समाजवादी पार्टी का हाथ थामने में परहेज नहीं कर रही हैं वही ममता बनर्जी देश भर में घूम-घूमकर विपक्ष को एकजुट करने में लग गई हैं.

उत्तर प्रदेश में गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीट पर उपचुनाव में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी की एकजुटता ने बीजेपी के खिलाफ एक माहौल खड़ा कर दिया और प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सीट पर बीजेपी को पटखनी दे दी. विपक्ष एकता का नारा लगाने वाली कांग्रेस ने जब यहां से अपने उम्मीदवार खड़े किए तो पूरे समीकरण पर सवालिया निशान लगने लगा था. कांग्रेस के उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई लेकिन राजनैतिक विश्लेषकों की मानें, तो कांग्रेस के उम्मीदवारों ने शहरी और उच्च जातिवर्ग के वोटों पर सेंध लगाई. ये बीजेपी के पारंपरिक वोटबैंक माने जाते हैं.


क्या विपक्ष एक साथ मिल कर चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं? क्या 2019 का लोकसभा चुनाव बीजेपी बनाम बाकी सब होगा? या कहें 'मोदी बनाम बाकी सब' होगा? हालांकि विपक्ष को एकजुट करने के लिए कांग्रेस काफी समय से प्रयास कर रही है. लेकिन सभी राजनैतिक दल कांग्रेस के साथ जुड़कर गठबंधन में नहीं रहना चाहते. तभी तीसरे मोर्चे की कवायद शुरु हुई है. इस बार पहल तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने की है. उन्हें समर्थन मिला है ममता बनर्जी, हेमंत सोरेन और असदुद्दीन ओवैसी का.

क्षेत्रीय दलों में बेचैनी

बीजेपी जिस तरह से चार साल से राज्यों में चुनाव जीतती आ रही है उससे क्षेत्रीय दल परेशान हो रहे हैं. अपने-अपने क्षेत्र में उनका महत्व घटने लगा है. बीजेपी वैसे भी शुरु से 'वन नेशन वन पार्टी' का संदेश दे रही है यानी केंद्र और राज्यों में एक ही पार्टी की सरकार होने पर विकास तेज गति से होता है. बीजेपी के इस संदेश ने लोगों को बीजेपी की तरफ खींचा. लेकिन क्षेत्रीय दलों के लिए ये अच्छा संदेश नहीं था. गैर बीजेपी शासित राज्यों का आरोप है कि केंद्र में उनकी कोई सुनवाई नहीं है. तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबु नायडू, पश्चिम बंगाल की मुखयंमंत्री ममता बनर्जी लगातार केंद्र सरकार पर सौतेले व्यवहार और अपने राज्यों के हितों की अनदेखी का आरोप लगा रहे हैं.

ये भी पढ़ें: पश्चिम बंगाल में बीजेपी का एजेंडा साफ है लेकिन ममता क्यों हैं डरी-डरी सी?

यही वजह है कि जब चंद्रशेखर राव ने जब राष्ट्रीय राजनीति में गुणात्मक बदलाव के नाम पर तीसरे मोर्चे की चर्चा छेड़ी तो तो अपने-अपने राज्यों में हाशिए पर पहुंच चुके कई नेता भी राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका की संभावनाएं तलाशने लगे हैं. उत्तर प्रदेश में लोकसभा की दो सीटों पर तो धुर विरोधी रहे एसपी- बीएसपी में गठबंधन हो गया है.

तीसरे मोर्चे पर सवालिया निशान

तीसरे मोर्चे की बात करने वाले सारे नेता घूम रहे हैं, एक दूसरे से मिल रहे हैं लेकिन साथ ही कांग्रेस के हर प्रयास में शामिल भी हो रहे हैं. दरअसल हर चुनाव में इसकी जरूरत और प्रासंगिकता पर चर्चा जरूर होती है लेकिन जब बात गठन की आती है तो ज्यादातर दल कांग्रेस या बीजेपी का दामन थाम लेते हैं.

हालांकि तृणमूल कांग्रेस प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि उन्होंने ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से एक संघीय मोर्चा (फेडरल फ्रंट) बनाने पर बात की है. सोनिया गांधी के विपक्षी एकजुटता रात्रि भोज में तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस), तेलुगु देशम पार्टी (पीडीपी) और बीजू जनता दल (बीजेडी) नदारद रही. हालांकि ये क्षेत्रीय दल हैं जिनका अपने राज्यों में बीजेपी के साथ कोई सीधी लड़ाई नहीं.

वैसे भी ओडिशा के मुख्यमंत्री एवं बीजू जनता दल (बीजेडी) के अध्यक्ष नवीन पटनायक ने संकेत दिए थे कि वह लोकसभा चुनावों से पहले क्षेत्रीय दलों के तीसरे मोर्चे या संघीय मोर्चे में शामिल होने के लिए तैयार हैं. ममता बनर्जी की एक बैठक राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के प्रमुख शरद पवार से भी हो चुकी है. हालांकि शरद पवार ने कांग्रेस का साथ देने की बात भी कही है.

ये भी पढ़ें: माया-अखिलेश की दोस्ती में कांग्रेस को कैसे मिलेगी डील?

दरअसल आज भी ऐसे कई राज्य हैं, जहां पर ऐसे दलों की सरकार है जो कि ना बीजेपी के साथ है और ना ही कांग्रेस के साथ. इनमें पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक, उड़ीसा में बीजू जनता दल, आंध्र प्रदेश में तेलगु देशम, तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति और दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार शामिल है. इन सभी राज्यों के लोकसभा सीटों को मिलाया जाए तो कुल मिला कर 147 लोकसभा सीटें हैं. ऐसे में ये सब मिलकर एक मोर्चा बना भी ले तो भी वो 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को टक्कर देने की हालत में नहीं है. तीसरे मोर्चे की सबसे बड़ी दिक्कत यही है. सबसे बड़ा सवाल नेतृत्व का ही खड़ा होता है. नेतृत्व के झगड़े के चलते ही कभी गैर बीजेपी दल कांग्रेस को विकल्प बनाकर उभरते हैं. वैसे कई दल जहां तीसरे मोर्चे की बात कर रहे हैं वहीं कांग्रेस के गठबंधन में भी शामिल होने को तैयार हैं.

कांग्रेस फैक्टर

देश के कई राज्यों में बीजेपी और कांग्रेस की सीधी टक्कर है. यहां पर क्षेत्रीय दलों का वजूद नहीं है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और ऐसे कई राज्य हैं जहां पर मुकाबला दोनो राष्ट्रीयदल में ही होता है. ऐसे में यहां पर फिलहाल बीजेपी ज्यादा मजबूत है. अगर कांग्रेस बीजेपी को हराने में सफल हो जाती है तो वो मजबूत हो जाएगी. उत्तराखंड को भी मिला लें तो इन राज्यों में 110 सीटों पर बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला होगा. महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन का मुकाबला कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन से है. ऐसे में कांग्रेस को खुलकर नजरअंदाज करना भी मुश्किल है. लेकिन एक सच्चाई ये भी है कि जहां जहां पर कांग्रेस तीसरे नंबर पर गई वहां पर अभी तक फिर से नहीं उभर पाई.

विपक्ष की नई रणनीति

विपक्ष की रणनीति में एक नया बदलाव भी दिखा. भले ही कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष को एक जुट करने में लगी है और ममता बनर्जी तीसरे मोर्चे की विचार को एक अस्तित्व देने में लगी हैं, लेकिन क्षेत्रीय दलों की अहमियत उनके ही क्षेत्रों में है. ऐसे में राजनैतिक दल एक जुट होने के प्रयास को क्षेत्रीय स्तर पर ले जा रहे हैं. जैसे उत्तर प्रदेश में दो धुर विरोधी राजनैतिक दलों ने मिलकर बीजेपी को मात दी. कांग्रेस का अपना वोटर बैंक अगड़ी जातियों में अब भी है. अभी तक देखा गया है कि कांग्रेस ने जिन सीटों पर उम्मीदवार नहीं उतारे वहां पार्टी के वोटर बीजेपी के खेमे में चले गए.

ये भी पढ़ें: NCC की कम जानकारी पर राहुल का मजाक बनाने वालों, इतनी ज्यादती ठीक नहीं

नई रणनीति के तहत अगर बीजेपी के खिलाफ बड़ा मोर्चा खोलने के बजाय छोटी-छोटी जगह बीजेपी को काटा जाए और अपने वोट बैंक को ही संभाल लिया जाए तो बीजेपी के लिए वोटरों को खींचने की गुंजाइश कम होगी.

एक सच ये भी है कि देश में 2914 में करीब तीस साल बाद किसी पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी है. हालांकि एनडीए ने एक बार 13 दिन की और दूसरी बार तेरह महीनों की सरकार चलाई. 1999 में वाजपेयी की एनडीए सरकार ने पहली बार गठबंधन की सरकार पांच साल चलाई. लेकिन फिर मौका नहीं मिला. 2004 से 2014 तक कांग्रेस ने इसी फार्मूले पर दो बार सरकार बनाई और चलाई.

अब अगर विपक्षी पार्टियों को मिलकर सरकार चलानी होगी तो अपने अहं और अपनी महत्वकांक्षाओं से ऊपर उठकर एका करना होगा. साथ ही नेतृत्व से लेकर राष्ट्रीय नीतियों पर इन नेताओं को अपनी बात साफ करनी होगी.