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बीजेपी को हराने और मोदी को हटाने के लिए यूपी में ‘वोट कटवा’ पार्टी बन गई कांग्रेस?

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 7 राज्यों में खाता भी नहीं खोल सकी थी. लेकिन इतिहास के सबसे खराब प्रदर्शन के बाद 3 राज्यों में सत्ता वापसी से कांग्रेस का खोया आत्मविश्वास जरूर लौटा है.

Kinshuk Praval

साल 2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर यूपी की सियासत में सरगर्मियां तेज हो गई हैं. बीजेपी को हराने के लिए बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने 24 साल पुराना गेस्ट-हाउस कांड भुला दिया तो कांग्रेस ने लोकसभा की सभी 80 सीटों पर 'खराब इतिहास' के बावजूद चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया.

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 7 राज्यों में खाता भी नहीं खोल सकी थी. लेकिन इतिहास के सबसे खराब प्रदर्शन के बाद 3 राज्यों में सत्ता वापसी से कांग्रेस का खोया आत्मविश्वास लौटा है. अब कांग्रेस यूपी में सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी है. हालांकि इसकी बड़ी वजह ये भी है कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अपने गठबंधन में कांग्रेस से किनारा कर लिया. लेकिन इन दोनों ने जिस तरह से कांग्रेस से कन्नी काटी उससे कई राजनीतिक सवाल भी उठते हैं.


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एसपी-बीएसपी गठबंधन में कांग्रेस को शामिल न करने के पीछे क्या तीनों पार्टियों की पीएम मोदी के खिलाफ संयुक्त रणनीति है? क्या जानबूझकर मोदी विरोध का ऐसा गठबंधन तैयार किया गया जिसमें कांग्रेस को बाहर रखकर बीजेपी के अगड़ी जाति के वोट बैंक खासतौर से ब्राह्मण वोट बैंक में सेंध लगाई जा सके? साथ ही यूपी में ‘मोदी बनाम सब’ से उपजने वाली सहानुभूति लहर को भी रोकने का काम किया गया?

साफ है कि तीनों पार्टियों की कोशिश है कि बीजेपी विरोध के नाम पर किसी भी तरह दलित-मुस्लिम और ओबीसी वोटों का ध्रुवीकरण किया जाए तो साथ ही हिंदू वोटों को जाति के नाम पर तोड़ा भी जा सके ताकि राम मंदिर के मसले पर ध्रुवीकरण न हो सके. मायावती और अखिलेश यादव की प्रेस-कॉन्फ्रेंस में हिंदू वोटों को ध्रुवीकरण का डर दिखाई दे रहा था. मायावती ने इस दौरान बीजेपी की जीत को लेकर दो ही वजहों से आशंका भी जताई थी. मायावती ने कहा था कि या तो ईवीएम की धांधली या फिर धार्मिक उन्माद में बहे वोटरों की वजह से बीजेपी जीत सकती है. दोनों ने ही बीजेपी पर धार्मिक भावना भड़काने और राम मंदिर की सियासत कर हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण का आरोप लगाया था.

ऐसे में साल 2019 के लोकसभा चुनाव में ‘मिशन सत्ता’ के लिए कांग्रेस गठबंधन के बाहर से रह कर बीजेपी को घेरने की रणनीति पर काम कर रही है. कांग्रेस अब उन पार्टियों को साथ लाने की कोशिश कर रही है जो कि बीजेपी विरोधी हैं या फिर बीजेपी के साथ पिछले चुनाव में सहयोगी रही हैं. कांग्रेस की कोशिश है कि वो छोटी पार्टियों के साथ बड़ा किला फतह करे.

ऐसे में भविष्य में कांग्रेस का शिवपाल सिंह यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया), राष्ट्रीय लोकदल, अपना दल, निषाद पार्टी, पीस पार्टी और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ किसी तरह का सियासी गठजोड़ दिखाई देना तय है.

दरअसल, छोटी पार्टियों की इंजीनियरिंग का ये फॉर्मूला बीजेपी का है जो उसने साल 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में तैयार किया था. अब कांग्रेस खुद बीजेपी के फॉर्मूले से उसको परास्त करने की तैयारी कर रही है.

नारायण दत्त तिवारी

लेकिन यूपी में कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी उसकी जमीन और जनाधार है. न तो उसके पास जमीन बची और न ही जनाधार. साल 1989 में नारायण दत्त तिवारी कांग्रेस सरकार के आखिरी मुख्यमंत्री थे. तब से लेकर अबतक यूपी में कांग्रेस का जनाधार कम होता रहा. ब्राह्मण, दलित और मुसलमान कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक माने जाते थे लेकिन क्षेत्रीय पार्टियों ने इसे लगभग खाली कर दिया. हालात ये हो गए कि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 7.5 फीसदी वोट मिले तो विधानसभा चुनाव में घटकर वो 6.25 फीसदी रह गए.

ऐसे में कांग्रेस किसी बड़े उलटफेर की बजाए सिर्फ वोट-कटवा पार्टियों के साथ मिलकर सबसे बड़ी वोट-कटवा पार्टी की ही भूमिका अदा करने जा रही है. लेकिन सवाल उठता है कि इसका फायदा किसे मिलेगा? कहीं इससे एसपी-बीएसपी के गठबंधन को ही भारी नुकसान न उठाना पड़ जाए?

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कांग्रेस के सामने केवल 2 सीटों पर ही एसपी-बीएसपी के उम्मीदवार नहीं होंगे लेकिन 78 सीटों पर कांग्रेस और दूसरी छोटी पार्टियों के मिलेजुले प्रत्याशी वोटरों पर असर डालने का काम करेंगे. वहीं शिवपाल सिंह यादव भी अपनी नई पार्टी के उम्मीदवारों को टिकट देने से पहले दलित-मुस्लिम-ओबीसी फैक्टर के ही पैमाने पर चयन करेंगे. ऐसे में 'मोदी-विरोध' के हवन में कांग्रेस के खुद के हाथ जलाने के ज्यादा आसार दिखाई देते हैं क्योंकि बीजेपी विरोधी पार्टियों के साथ मिलकर एसपी-बीएसपी के वोटबैंक का ही खेल बिगड़ सकता है.