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कर्नाटक चुनाव नतीजे: सरकार जिसकी भी हो, यह कांग्रेस की 'फूट डालो' राजनीति के खिलाफ जनादेश है

सिद्धारमैया को जातीय बीजगणित पर बहुत ज्यादा निर्भर रहने की बहुत महंगी कीमत चुकानी पड़ी है

Srinivasa Prasad

ये एक ऐसा पॉलिटिकल थ्रिलर था, जैसा हाल के सालों में लंबे समय से देखने को नहीं मिला था. जब ऐसा लग रहा था कि 12 मई को हुए चुनाव के मंगलवार को आने वाले नतीजे में बीजेपी को साधारण बहुमत मिल जाएगा, इसका स्कोरबोर्ड आधे से नीचे हा रह गया. 224 सदस्यों- दो सीटों पर चुनाव नहीं हुए- वाले सदन में 104 विधायकों के साथ अकेली सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी ने सरकार बनाने का दावा पेश किया. सिर्फ 38 सदस्यों वाली जनता दल (सेकुलर) प्लस के एचडी कुमारस्वामी ने 78 सदस्यों वाली कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने का अपना दावा आगे बढ़ा दिया.

राज्यपाल वजुभाई वाला ने दोनों दावों पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है. इस मसले पर कई तरह की नज़ीरें हैं- सबसे ताजा नज़ीर गोवा, मणिपुर (2017) और मेघालय (2018) की है- जिनके आधार पर राज्यपाल चुनाव बाद बने जेडी(एस) और कांग्रेस गठबंधन के दावे को दरकिनार कर सकते हैं. लेकिन वह 'विवेकाधिकार' का इस्तेमाल कर सकते हैं, जिसे राज्य का संवैधानिक प्रमुख इस्तेमाल करने का अधिकारी होता है और बीजेपी को इस आधार पर सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर सकते हैं, कि यह साधारण बहुमत के बहुत करीब है. अगर राज्यपाल दूसरे विकल्प का इस्तेमाल करते हैं, तो वह खुद पर लोकतंत्र की हत्या के आरोप को ही बुलावा देंगे. कर्नाटक के राजनीतिक सर्कस में अभी द एंड नहीं आया है. यह तो सिर्फ शुरुआत है.


कांग्रेस की राजनीति को नकार दिया

लेकिन जो कोई भी सरकार बनाए, चुनावी नतीजे से एक बात बिल्कुल साफ गई है. जाति की राजनीति और लोकलुभावन राजनीति, जिसमें कांग्रेस के निवर्तमान मुख्यमंत्री सिद्धारमैया द्वारा कन्नड़ पहचान को लेकर तालियां बजवाने वाले बेशर्मी से किए गए कुछ फैसले भी शामिल थे, उलटे उन्हीं पर भारी पड़े.

कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि सिद्धारमैया की हार बीजेपी की जीत नहीं, बल्कि नरेंद्र मोदी की जीत है, जिनके चुनावी प्रचार के अंतिम चरण में प्रवेश ने पार्टी के कैंपेन में जान डाल दी, वर्ना तो यह दिशाहीन चुनाव प्रचार करती दिख रही थी.

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इस चुनाव ने साबित किया कि मोदी का वोट खींचने का जादू विंध्य पर्वत के उस पार भी चलता है, और इसने उनकी पार्टी को दक्षिण का गेटवे का इनाम थमा दिया है. अपने दमदार आकर्षण से उन्होंने मतदाताओं को प्रभावित किया और उन्होंने एक के बाद एक रैली में सिद्धारमैया सरकार की खामियों को जिस नाटकीय अंदाज में उठाया, राज्य का कोई और नेता इतने प्रभावी तरीके से नहीं कर सकता था.

फूट डालने वाली राजनीति खारिज

इस चुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए भरपाई ना किए जा सकने वाली चुनावी तबाही लेकर आए, जिसमें वह 2013 में जीती 122 सीटों से इस बार सिर्फ 78 सीटों पर सिमट गई. सिद्धारमैया की हिंदुओं को बांटने और अल्पसंख्यकों के प्रति दुलार दिखाने की बेसिर-पैर की राजनीति ने ऐसा तनाव पैदा किया, जैसा पहले कभी नहीं सुना गया था. और मतदाताओं ने मुख्यमंत्री द्वारा शुरू की गई लोकलुभावन स्कीम के भुलावे में आने से इनकार कर दिया, जिसे उन्होंने कल्याण योजनाओं के नाम पर इस भुलावे में शुरू किया था, कि वो उन्हें चुनाव में सत्तारोधी भावनाओं के ज्वार-भाटे में उबरने में मदद कररेगा.

सिद्धारमैया के प्रशंसक, मोदी के निंदक और वाम झुकाव वाले बुद्धिजीवियों ने मुख्यमंत्री की जनकल्याणकारी नीतियों को समाजवाद के उपकरण के तौर पर देखा, लेकिन कर्नाटक के मतदाताओं का मानना था कि ऐसे सस्ती लोकप्रियता बटोरने वाले कदम गुड गवर्नेंस की जगह नहीं ले सकते हैं. किसानों की चौतरफा नाराजगी, भ्रष्टाचार और बुनियादी ढांचे की दुर्दशा वो प्रमुख कारक थे, जिनसे सत्ताविरोधी मूड बना.

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इस चुनाव में कांग्रेस का जो हाल हुआ है, वो सिद्धारमैया के लिए भी अचंभे की बात है, हालांकि जब मोदी ने राज्य में अपने दौरे शुरू किए, तभी उन्हें अपनी हार के लक्षण दिखने लगे थे.

विधानसभा में मध्य रेखा पार ना कर पाने के बावजूद बीजेपी ने उन क्षेत्रों में भी अच्छा प्रदर्शन किया है, जहां उसे खुद भी उम्मीद नहीं थी, जबकि कांग्रेस को जिन क्षेत्रों में शानदार जीत की उम्मीद की थी, वहां बुरी तरह पिछड़ गई. इस सबके साथ कर्नाटक में 1985 से हर चुनाव में सरकार बदल देने का चलन रहा है, हालांकि कांग्रेस अब धर्मनिरपेक्षता की आड़ लेकर बैकडोर से सत्ता में बने रहने की जुगत में लगी हुई है.

नाकाम रहा अहिंदा फार्मूला

करीब-करीब प्रशासनहीनता की स्थिति को सिद्धारमैया की अहिंदा- कन्नड़ में अल्पसंख्यात्रा, हिंदुलिदा, दलित (अल्पसंख्यक, पिछड़ा वर्ग और दलित) का संक्षिप्त रूप-की राजनीति ने और बर्बाद किया. अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि किस जाति ने कांग्रेस के खिलाफ वोट डाला, लेकिन मतदान के दौरान यह साफ दिखा कि अहिंदा के दायरे में आने वाली सभी जातियां सरकार से खुश नहीं थीं, जिसके कारण अलग-अलग थे.

सिद्धारमैया को जातीय बीजगणित पर बहुत ज्यादा निर्भर रहने की बहुत महंगी कीमत चुकानी पड़ी.

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उन्होंने उत्तर प्रदेश में मायावती की इसी तरह की सोशल इंजीनियरिंग की नाकामी से भी सबक नहीं सीखा. वह यह बात नहीं समझ सके कि एक जाति से दुलार दिखाने से दूसरी जातियों में नाराजगी पैदा हो जाती है. पुरानी मैसूर रियासत में उनके अपनी कुरुबा जाति के लोगों के लिए पक्षपात ने अन्य पिछड़ी जातियों को नाराज कर दिया, दलितों का आधे से ज्यादा हिस्सा- जिन्हें वाम दलित के नाम से जाना जाता है- सरकार द्वारा अनुसूचित जातियों को मिलने वाले लाभ का पुनर्गठन किए जाने के वादे को पूरा नहीं किए जाने से नाराज थे.

उलटा पड़ गया लिंगायत का दांव

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनका ऊंची जाति के लिंगायतों को अलग अल्पसंख्यक धर्म का दर्जा दिए जाने का दांव ना सिर्फ उलटा पड़ गया, बल्कि इससे प्रतिद्वंद्वी सवर्ण वोक्कालिगा राज्य के अलग-अलग हिस्सों में बीजेपी या जेडी(एस) के पीछे लामबंद हो गए. वोक्कालिगा क्षेत्रों में बीजेपी के अच्छे प्रदर्शन का यह प्रमुख कारण रहा. चुनाव प्रचार के दौरान यह साफ दिख रहा था कि लिंगायतों ने भी इस कदम को बीजेपी के परंपरागत हिंदू वोट बैंक को तोड़ने के दूरगामी चुनावी पैंतरे से ज्यादा भाव नहीं दिया.

हालांकि राहुल गांधी समेत सभी कांग्रेस नेताओं ने बेल्लारी घोटाले के लिए बदनाम रेड्डी बंधुओं को साथ लेने पर बीजेपी की खिंचाई करने का कोई मौका नहीं छोड़ा, लेकिन खुद सिद्धारमैया सरकार में इससे भी बुरे घोटालों के कारण इस बात का लोगों पर ज्यादा असर नहीं हुआ.

चुनाव ट्विटर पर नहीं लड़े जाते

कर्नाटक का फैसला सिद्धारमैया को यह सबक भी दे गया कि चुनाव ट्विटर पर नहीं लड़ा जाता. उनके चुटीले ट्वीट्स ने, भले ही ये उनके खुद के लिखे हों या उनके किराए पर रखे गए लड़कों द्वारा, उनकी हकीकत से ज्यादा बड़ी छवि बना दी कि उनमें मोदी से मुकाबला करने की ताकत है, लेकिन बीजेपी ने अपनी मशहूर माइक्रो प्लानिंग और थोड़े कम संभ्रांत वाट्सएप प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल कर कांग्रेस को धूल चटा दी.

(लेखक का ट्विटर अकाउंट है @sprasadindia)