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क्या किसान हैं इस देश का नया विपक्ष!

इस बार देशभर के किसानों ने आत्महत्या नहीं बल्कि संघर्ष का रास्ता एकजुट होकर अपनाया है, जिसे नजरअंदाज करना किसी भी सरकार के लिए भी खतरनाक होगा

Piyush Raj

जब बीजेपी लगातार एक के बाद एक चुनाव जीत रही है और यह कहा जा रहा है कि अब बीजेपी की सरकार को रोकने या झुकाने की ताकत किसी भी पार्टी में नहीं बची है, वैसी स्थिति में यह अद्भुत संयोग है कि देश के किसान लगातार बीजेपी की सरकारों को झुकने पर मजबूर कर रहे हैं. 2014 में बीजेपी ने किसानों की आत्महत्या समेत कई मुद्दों को अपना मुख्य चुनावी एजेंडा बनाया था. 2014 के चुनावों के बाद बीजेपी ने यूपी विधानसभा चुनाव में भी किसानों के मुद्दों को आधार बनाकर जबरदस्त चुनावी जीत हासिल की थी.

यूपीए सरकार की जाने की एक बड़ी वजह किसानों की बदतर होती हालात और बढ़ती आत्महत्याएं थीं. मोदी सरकार के आने के बाद भी किसानों की हालात में कोई खास बदलाव नहीं आया है. पहले मंदसौर फिर सीकर और अब महाराष्ट्र में किसानों ने अपने मुद्दों को लेकर जबरदस्त विरोध प्रदर्शन किया है.


हर जगह के किसानों के मुद्दे लगभग समान हैं. किसान बकाया भुगतान, कर्जमाफी और स्वामीनाथन कमिटी की रिपोर्ट को लागू करने की मांग कर रहे हैं. किसानों की यह भी मांग है कि मोदी सरकार स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों को लागू करे, जिसमें यह कहा गया था कि किसानों को फसल उत्पादन की लागत पर 50 फीसदी का लाभ मिलना चाहिए. पीएम मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनावों में इस समिति की सिफारिशों को लागू करने का वादा भी किया था.

किसानों ने एमपी और राजस्थान में कर रखा है सरकार की नाक में दम

पिछले साल मध्य प्रदेश के मंदसौर और फिर राजस्थान के सीकर में किसान आंदोलन उभरा. इन दोनों किसान आंदोलनों ने बीजेपी की राज्य सरकारों को झुकने पर मजबूर किया. मंदसौर में किसानों के ऊपर गोली चलाने की घटना ने पूरे देश को उद्वेलित कर दिया था.

शिवराज सिंह चौहान की आज अगर मध्य प्रदेश में हालात खराब मानी जा रही है तो इसकी सबसे बड़ी वजह किसानों का आंदोलन ही है. जिसका फायदा कांग्रेस को मिलता दिख रहा है. शिवराज सिंह चौहान और बीजेपी के लिए मध्य प्रदेश को फिर जीतने में अगर कोई सबसे बड़ा रोड़ा है तो वो वहां के किसान हैं.

इसी तरह राजस्थान में सीकर में हुए किसान आंदोलन के बाद वसुंधरा राजे सरकार यह कहा था कि सभी किसानों का कर्ज माफ कर दिया जाएगा. राजे सरकार ने जल संसाधन मंत्री रामप्रताप की अध्यक्षता में एक कमिटी भी बनाई थी लेकिन इस कमिटी की जो सिफारिशें हैं वो टालमटोल की ओर इशारा कर रही हैं. राजस्थान में भी वसुंधरा राजे की स्थिति शिवराज सिंह चौहान की तरह कमजोर मानी जा रही है. इन दोनों राज्यों में इस साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं.

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महाराष्ट्र में हुए किसान मार्च से पहले देशभर के 62 किसान संगठन एक साथ मिलकर दिल्ली में विशाल प्रदर्शन भी कर चुके हैं. तमिलनाडु के किसानों का जंतर-मंतर पर प्रदर्शन भी एक राष्ट्रीयस्तर पर चर्चित रहा था.

ये किसान आंदोलन बीजेपी सरकार के सामने एक मजबूत विपक्ष का काम कर रहे हैं. जब संसद और विधानसभाओं में विपक्ष चुनाव दर चुनाव कमजोर होते जा रहा है, उसी वक्त देश के किसानों का आंदोलन तेजी पकड़ रहा है. किसानों के ये आंदोलन कई लिहाज से खास हैं.

इस वजह से खास हैं ये किसान आंदोलन

सबसे पहली बात यह कि महाराष्ट्र और राजस्थान के किसान आंदोलन का नेतृत्व सीपीएम और अन्य लेफ्ट पार्टियों के किसान संगठनों ने किया. यह इसलिए भी खास है क्योंकि त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में लेफ्ट की पराजय के बाद भारत से लेफ्ट को समाप्त माना जा रहा है. दूसरी तरफ शिवसेना और आरएसएस समेत कई ऐसे पार्टियों और संगठनों ने इन किसान आंदोलनों का समर्थन किया है जो वैचारिक रूप से बीजेपी के करीब माने जाते हैं.

इन किसान आंदोलनों की दूसरी सबसे बड़ी खासियत यह है कि इन आंदोलनों को आम लोगों का भी भरपूर समर्थन मिला है. महाराष्ट्र के मुंबई में किसानों के मार्च को सोशल मीडिया पर समर्थन तो मिला ही साथ ही आम मुंबईवासियों ने किसानों की मदद की.

नासिक से चलकर मुंबई पहुंचा 30 हजार किसानों का जत्था आजाद मैदान में जुटा (फोटो: पीटीआई)

इसी तरह मंदसौर में फायरिंग से मारे गए लोगों के बारे में यह कहा गया कि वे किसान नहीं थे. अगर सरकार के इस बयान को सही भी माने तो इसका साफ मतलब है कि किसानों के आंदोलन को वैसे लोगों का समर्थन था जिनका खेती से कोई लेना-देना नहीं था. इसी तरह सीकर के किसान आंदोलन में भी स्टूडेंट्स, आंगनबाड़ी कार्यकर्त्ता, सिटी बस यूनियन, ऑटोरिक्शा यूनियन, स्माल ट्रेडर्स एसोसिएशन, पंप सेट वर्कर आदि बढ़-चढ़ कर भागीदारी की थी.

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किसान आंदोलनों से खेती से न जुड़े लोगों के इस तरह का लगाव शायद पहली बार देश में देखने को मिल रहा है. शायद ये लोग भी अब किसी पार्टी में विकल्प न देखकर किसानों के आंदोलन के भीतर अपनी मांगों और समस्याओं का इलाज देख रहे हैं. महाराष्ट्र में तो आदिवासियों ने भी किसानों के साथ मार्च किया.

यह कहा जा सकता है कि किसान आंदोलन को धुरी बनाते हुए देश में एक नया विपक्ष तैयार हो रहा है जो संसद या विधानसभा में नहीं सड़क पर अपनी आवाज उठा रहा है. इस बार देशभर के किसानों ने आत्महत्या नहीं बल्कि संघर्ष का रास्ता एकजुट होकर अपनाया है, जिसे नजरअंदाज करना किसी भी सरकार के लिए भी खतरनाक होगा.