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हिमाचल में चुनाव से पहले ही हार गई थी कांग्रेस

83 साल के वीरभद्र सिंह ने अकेले ही राज्य में कैंपेन चलाया, जबकि बीजेपी ने कोई चांस नहीं लिया, प्रधानमंत्री मोदी ने खुद आधा दर्जन से ज्यादा रैलियां कीं

vipin pubby

हिमाचल प्रदेश का चुनाव कांग्रेस वहां विधानसभा चुनावों का ऐलान होने से पहले ही हार गई थी. पार्टी के किसी भी बड़े नेता ने राज्य में ठहरने और प्रचार करने की जहमत नहीं उठाई. यहां तक कि पार्टी प्रेसिडेंट राहुल गांधी ने भी राज्य का केवल एक दौरा किया जिसमें उन्होंने कुछ चुनावी रैलियां कीं.

पूरे देश का फोकस गुजरात पर था. राहुल गांधी गुजरात के जरिए कांग्रेस की तकदीर बदलना चाहते थे, ऐसे में हिमाचल प्रदेश में पार्टी के कैंपेन की पूरी जिम्मेदारी अकेले मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह पर छोड़ दी गई, जो कि बचाव की भूमिका में रहकर यह चुनाव लड़ रहे थे. छह बार मुख्यमंत्री रह चुके नेता का यह सबसे खराब वक्त था और यह शायद उनकी आखिरी पारी भी थी क्योंकि मुख्यमंत्री के तौर पर उनके पास दिखाने के लिए अपने कार्यकाल की शायद ही कोई उपलब्धि थी.


सत्तर के दशक के आखिर से ही हिमाचल में असेंबली चुनावों में बदलाव दिखाई दिया है. 1983 से वीरभद्र सिंह और बीजेपी लीडर प्रेम कुमार धूमल एक के बाद एक सत्ता की कुर्सी पर बैठते रहे हैं. हालांकि, 2012 के चुनावों में पंजाब में यह चक्र रुक गया और कांग्रेस के हाथ कुर्सी नहीं लगी, लेकिन हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के लिए सत्ता को बचा पाना निश्चित तौर पर बड़ा काम था.

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असलियत में यह एक ऐसा चुनाव साबित हुआ जिसमें न तो कांग्रेस और न ही बीजेपी कोई बड़ा एजेंडा पेश कर रही थी. मोटे तौर पर यह दो एंटी-इनकंबेंसी के बीच मुकाबला थाः वीरभद्र सिंह के खिलाफ एंटी-इनकंबेंसी का मुकाबला केंद्र में मोदी या बीजेपी के खिलाफ एंटी-इनकंबेंसी से था. निश्चित तौर पर वीरभद्र सिंह सरकार के खिलाफ एंटी-इनकंबेंसी सेंटीमेंट्स केंद्र के मुकाबले कहीं ज्यादा मजबूत थे.

राजनीतिक जानकारों और ओपिनियन पोल्स ने कांग्रेस को लेकर कोई उम्मीद नहीं दिखाई. इसकी एक बड़ी वजह यह थी कि नोटबंदी और गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) का गुजरात के उलट हिमाचल पर खास असर नहीं हुआ था. हिमाचल में कारोबारी ज्यादा बड़ी तादाद में नहीं हैं जिससे इन दोनों बड़े फैक्टर्स का बुरा असर राज्य में नहीं दिखा.

हिमाचल के सबसे बड़े फैक्टर्स में सरकारी कर्मचारी हैं. तकरीबन सभी परिवारों में एक सदस्य सरकारी नौकरी में है और युवाओं की सबसे बड़ी इच्छा सरकारी नौकरी हासिल करने की रहती है. सरकारी कर्मचारियों का राज्य में चुनावी नतीजे तय करने में सबसे बड़ा प्रभाव रहता है. केंद्र में बीजेपी के होने से इन्हें राज्य में बीजेपी सरकार से बेहतर फायदे मिलने की उम्मीद है.

वीरभद्र सिंह सरकार के निराशाजनक परफॉर्मेंस के अलावा राज्य में कानून और व्यवस्था की बिगड़ती हालत को भी कांग्रेस के पतन के कारणों में गिना जा सकता है. राज्य में कुछ हालिया रेप के मामलों ने सरकार को बचाव की भूमिका में ला खड़ा किया. इनमें से एक, कोटखली रेप केस मामले में पूरे राज्य में विरोध प्रदर्शन हुए. इस बात की मजबूत अफवाहें थीं कि वीरभद्र सिंह के बेटे विक्रमादित्य सिंह से नजदीकी रखने वाले कुछ युवा इस केस में शामिल थे और इन्हें राज्य पुलिस इन्हें बचा रही थी.

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राज्य पुलिस ने एक अन्य राज्य से आधा दर्जन युवाओं को उठाया, ये लड़के सेब के बाग में काम करते थे, और इन पर रेप और मर्डर का आरोप लगाया. इनमें से एक युवा की पुलिस कस्टडी में मौत हो गई. इससे पूरे राज्य में विरोध-प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया. वीरभद्र सिंह ने मामले की सीबीआई जांच की मांग की.

सीबीआई ने एक इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस (आईजी) और एक एसएसपी को अरेस्ट किया और इन पर रेप इनवेस्टिगेशन को खराब करने और एक संदिग्ध की कस्टडी में हत्या का आरोप लगाया. सीबीआई ने हालांकि यह साफ किया कि पकड़े गए युवा निर्दोष हैं, लेकिन एजेंसी अभी तक असली दोषियों को पहचान पाने में नाकाम रही है.

यह घटना शायद कांग्रेस सरकार के पतन का बड़ा कारण बनी, लेकिन अपने पांच साल के शासन के दौरान कांग्रेस ने कुछ भी ऐसा नहीं किया जिसे उपलब्धि के तौर पर गिनाया जा सके. कांग्रेस वीरभद्र सिंह की निजी अपील के सहारे टिकी थी, जिन्हें आमतौर पर राजा साहेब कहा जाता है. साथ ही कांग्रेस ने एनडीए सरकार पर राजा साहेब को करप्शन और वित्तीय अनियमितताओं के मामलों में फंसाने की कोशिशों का आरोप लगाया और विक्टिम कार्ड खेला.

83 साल के वीरभद्र सिंह ने अकेले ही राज्य में कैंपेन चलाया, जबकि बीजेपी ने कोई चांस नहीं लिया. प्रधानमंत्री मोदी ने खुद आधा दर्जन से ज्यादा रैलियां कीं, साथ ही पार्टी प्रेसिडेंट अमित शाह, केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह, वित्त मंत्री अरुण जेटली और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत पार्टी के सभी टॉप लीडर्स ने राज्य में प्रचार किया.

हालांकि, बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल खुद चुनाव हार गए. उनके नाम का ऐलान राज्य में पार्टी यूनिट में चल रहे मतभेदों पर लगाम लगाने के लिए किया गया था. उनकी वजह से राज्य में पार्टी के कुछ उम्मीदवारों को जीतने में जरूर मदद मिली, लेकिन वह खुद अपने पूर्व विश्वस्त सहयोगी और दाहिने हाथ माने जाने वाले राजिंदर सिंह राणा से हार गए. उन्हें अंतिम वक्त पर पार्टी टिकट देने से मना कर दिया गया था और उन्होंने निर्दलीय जीतने के बाद कांग्रेस ज्वॉइन कर ली थी. बीजेपी के सामने अब राज्य में मुख्यमंत्री चुनने का सवाल है.