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गुजरात चुनाव 2017: अपने ही किलों में घिर गए हैं राहुल गांधी के 'युवा तुर्क'

मेवाणी और ठाकोर दोनों के लिए बदकिस्मती से जमीनी हालात सुगम नहीं हैं. हकीकत तो यह है कि दोनों 'युवा तुर्कों' के सामने चुनाव हार जाने का गंभीर खतरा मंडरा रहा है

Sanjay Singh

'युवा तुर्क' जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर अच्छे दलित और ओबीसी एक्टिविस्ट हो सकते हैं, लेकिन राजनीति के चुनावी मैदान में उनकी पहली पारी लड़खड़ा रही है. इस चुनाव की शुरुआत में राष्ट्रीय मीडिया का जो धड़ा शुरू में उनको बहुत भाव दे रहा था, अब उन पर सवाल उठा रहा है.

इन दोनों को दिसंबर 2017 के गुजरात चुनाव में राहुल गांधी के व्यापक जनसमर्थन रखने वाले लेफ्टिनेंट समझा जा रहा था. जिग्नेश मेवाणी से दलित और अल्पेश ठाकोर से ओबीसी वोट कांग्रेस के लिए समेत लाने की उम्मीद की जा रही थी.


कम से कम गुजरात के बाहर के लोगों की इस तरह की सोच को देखते हुए मेवाणी और ठाकोर को मगन रहना चाहिए था और उन्हें 18 दिसंबर को औपचारिक घोषणा में क्रमशः वडगाम और राधनपुर से एमएलए की शपथ लेने का इंतजार करना चाहिए था.

कांग्रेस के इन 'युवा तुर्कों' को अपने किलों से ही मिल रही है चुनौती

लेकिन इन क्षेत्रों में व्यापक दौरे करने और लोगों से बातचीत के बाद फ़र्स्टपोस्ट ने पाया कि मेवाणी और ठाकोर दोनों के लिए बदकिस्मती से जमीनी हालात सुगम नहीं हैं. हकीकत तो यह है कि दोनों 'युवा तुर्कों' के सामने चुनाव हार जाने का गंभीर खतरा मंडरा रहा है. यह कांग्रेस के लिए भी अच्छी खबर नहीं है, खासकर ये देखते हुए कि पार्टी अपने प्रतिद्वंद्वी बीजेपी के खिलाफ दिसंबर 2017 में 2012, 2007 के 2002 मुकाबले काफी अच्छी हालत में है.

सवाल उठता है कि अगर जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर मददगार चुनावी जातीय संयोजन के बाद भी अपनी विधानसभा सीटों पर खुद का चुनाव नहीं जीत पाते हैं तो क्या उनमें क्षमता है कि वो ओबीसी और दलित वोटों को कांग्रेस को ट्रांसफर करा पाएंगे, जैसा कि उन्होंने दावा किया था?

राहुल गांधी के साथ दलित नेता अल्पेश ठाकोर

ठाकोर ने कांग्रेस ज्वाइन कर ली है और कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ रहे हैं. मेवाणी हालांकि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के समर्थन से चुनाव लड़ रहे हैं, लेकिन हर कोई उन्हें कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर ही मान रहा है. मेवाणी ने ऐसे विधानसभा क्षेत्र का चुनाव किया है, जिसे कांग्रेस के लिए सबसे सुरक्षित सीट समझा जाता है. यह अनुसूचित जाति के प्रत्याशी के लिए आरक्षित सीट है, जिसमें मुस्लिम मतदाताओं (करीब 25 फीसद) की आबादी बहुत ज्यादा है. यहां दलित आबादी भी काफी ज्यादा है और एक मौके को छोड़ दें तो कांग्रेस यहां से कभी चुनाव नहीं हारी.

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मेवाणी पर लगा 'हिंदू विरोधी' का ठप्पा

तीन चीजें मेवाणी की किस्मत तय करेंगी- पहला यह कि वह इस सीट पर बाहरी शख्स हैं, दूसरा वह फूट डालने वाले (यह लड़वाता है) हैं. और तीसरा सुनी-सुनाई बातों और वाट्सएप प्रचार के अनुसार वह हिंदू-विरोधी हैं. असल में एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें मेवाणी कहते हैं कि, 'मेरी अगर दो बहनें होतीं तो मैं एक की हिंदू से शादी करता और दूसरी की मुस्लिम से.' इसके साथ ही सेद्रासन गांव में एक वास्तविक चुनावी मौके पर गांव वाले उनके सामने शर्त रखते हैं कि वह उन्हें गांव में तभी घुसने देंगे, अगर वह ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाएंगे. लंबी जद्दोजहद के बाद मेवाणी को गांव में जाने नहीं दिया जाता और वो वापस लौट जाते हैं. युवाओं की एक टोली के साथ सुशील प्रजापति पूरी घटना विस्तार से दोहराते हैं और कहते हैं कि आखिर 'एक हिंदू विरोधी' और बाहरी शख्स को चुनाव में क्यों हर हाल में हराना चाहिए.

तालुका बाजार के पास अलसाए से बैठे उम्रदराज दयारामभाई प्रजापति का नजरिया कुछ अलग है, 'हमें एकजुट होकर मोदी (नरेंद्र) को वोट देना चाहिए. उन्होंने बहुत ज्यादा विकास के काम किए हैं और उनके आदमी को मोदी के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के तौर पर किए काम को आगे बढ़ाने का मौका देना चाहिए.'

इसके बाद हमारी मुलाकात सौराभाई से होती है, जो अपने बारे में बताते हैं कि वो व्यवसायी हैं. वह मेवाणी की जीत को लेकर बहुत आशावादी हैं. 'यह सीधा सा गणित है. करीब 70,000 वोटर मुस्लिम हैं. 40 हजार दलित हैं. इसके अलावा अन्य हैं जो कांग्रेस का समर्थन करते हैं. कुल वोट 1,80,000 हैं. तो फिर आप बताइए मेवाणी कैसे हार जाएंगे?' इस सवाल के जवाब में यह दलित के लिए आरक्षित सीट है. बीजेपी प्रत्याशी भी दलित हैं. और एक अन्य निर्दलीय प्रत्याशी अश्विन, जो पहले कांग्रेस के साथ थे और उनके पिता एमएलए रह चुके हैं, भी दलित हैं. उन्हें क्यों लगता है कि सारे दलित मेवाणी के लिए वोट करेंगे. वह कहते हैं क्योंकि, 'मेवाणी एक दलित नेता हैं.'

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वडगाम तालुका की सीमा पर नाथूभाई पटेल से मुलाकात होती है, जो भरे हुए बैठे हैं, 'मेवाणी लड़ाता है. उस पर भरोसा नहीं कर सकते. वह राहुल गांधी को समझा सकता है कि वो बड़ा नेता है, लेकिन हमें नहीं. मेरा वोट मोदी और बीजेपी को जाएगा.' इस सवाल पर क्या इस चुनाव में पटेल वोट कांग्रेस की तरफ जाएगा, वह थोड़ी रुखाई से जवाब देते हैं, हम में से कुछ लोगों को बरगलाया गया है. वो बाद में समझेंगे. कुछ दूरी पर बेंच पर बैठे बाघाभाई से मुलाकात होती है, जो गेहूं से भरा एक बड़ा सा बर्तन लिए बैठे हैं. उनका और पास बैठे लोगों का जवाब सबसे मजेदार था- यह इशारा देते हुए कि इस सीट पर वोट का रुझान आखिरकार सांप्रदायिक आधार पर- हिंदू मुस्लिम विभाजन से तय होगा- 'उसने (मेवाणी) जय श्रीराम बोलने से मना कर दिया था.' कुछ गांवों में 'हिंदू विरोधी' जिग्नेश मेवाणी को गांव में घुसने नहीं देने के पोस्टर लगे हैं.

अपनी कसम के चक्कर में फंसे अल्पेश

मेवाणी की विधानसभा सीट वडगाम से करीब ढाई घंटे की दूरी पर अल्पेश ठाकोर की सीट राधनरपुर में 'हिंदू विरोधी' की चिप्पी छोड़ दें, तो कमोबेश यहां भी वही हाल है.

जनसभा को संबोधित करते अल्पेश ठाकोर

ठाकोर ने इस सीट का चुनाव इसलिए किया था, क्योंकि यहां अन्य पिछड़ी जातियों और मुसलमानों के अलावा 60,000 ठाकोर वोट हैं. लेकिन ठाकोर को यहां बाहरी माना जा रहा है, जो यहां मौके फायदा उठाना चाहते हैं. जो चीज उन्हें सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा रही है, वो एक छोटी वीडियो क्लिप है, जिसमें वह एक जनसभा में सूर्य भगवान की कसम खाकर कह रहे हैं कि वह कभी राजनीति में नहीं जाएंगे और ना कभी नेता बनेंगे. यह कांग्रेस में शामिल होने से एक महीने पहले की है.

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अल्पेश के विरोधी बीजेपी नेता भी उन्हीं की जाति के हैं- स्थानीय लाविंजी ठाकोर. रास्ते में मिले परमहंस ठाकोर और हर्शिश चौधरी एक समान राय रखते हैं कि, 'अल्पेश एक अच्छे ओबीसी एक्टिविस्ट थे, जिन्होंने अपने पाटीदार-कोटा विरोधी रुख और अवैध शराब का विरोध कर नाम कमाया था, लेकिन उन्होंने कांग्रेस में शामिल होकर और चुनाव लड़ कर अपना खेल बिगाड़ दिया.'

कुछ आगे राधनपुर पालनपुर हाईवे पर चाय की दुकान पर बल्लभभाई फारवाड़ और उनके अल्पेश के लिए अल्पेश के पक्ष में बोल रहे थे, और उनकी जीत के लिए आशान्वित थे, लेकिन ऐसे भी लोग थे, जिनका कहना था कि यहां से कांग्रेस प्रत्याशी को बाहरी होने के कारण ज्यादा समर्थन नहीं मिलने वाला है.