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गुजरात चुनाव 2017: क्या कांग्रेस के पास गुजरात के ताले की चाबी है?

कांग्रेस की गुजरात की राजनीति तीन मुख्य बिंदुओं पर टिकी है. ये बिंदु हैं- एंटी इनकंबेंसी, मुस्लिम मुद्दों से दूरी और जाति समीकरण की नई बिसात.

Dilip C Mandal

गुजरात के विधानसभा चुनाव को 2019 के आम चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा है. यह एक मायने में सही भी है. नरेंद्र मोदी और बीजेपी के भारत की केंद्रीय सत्ता में आने का रास्ता 2014 में गुजरात के रास्ते से ही खुला था. बीजेपी ने यह करिश्मा एक और गुजराती नेता अमित शाह की अध्यक्षता में पूरा किया था.

2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी और नरेंद्र मोदी ने ‘गुजरात मॉडल’ को एक ब्रैंड के तौर पर पेश किया और भारतीय वोटर ने इस ब्रैंड को जमकर सराहा और इसे तबियत से खरीद भी लिया. बीजेपी की बहुमत की सरकार बन गई.


2014 के साढ़े तीन साल बाद गुजरात में एक बार फिर महासमर छिड़ा है और इस बार बीजेपी और कांग्रेस दोनों के लिए दांव बहुत बड़ा है. कांग्रेस ने 1985 में आखिरी बार विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की थी, जब कांग्रेस को विधानसभा में 149 सीटें मिली थीं. गुजरात विधानसभा में 182 सीटें हैं. इसके बाद से अरसा बीत गया, लेकिन कांग्रेस के हिस्से में गुजरात से कोई अच्छी खबर नहीं आई.

खासकर 1998 के बाद से तो प्रदेश में बीजेपी का राज बिना किसी बाधा के निरंतर चल रहा है और इस दौरान नरेंद्र मोदी का लंबा कार्यकाल भी रहा, जिसपर सवारी करते हुए उन्होंने भारत की राजनीतिक तकदीर और तस्वीर बदल दी.

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नऐ समीकरण की तलाश में कांग्रेस

कांग्रेस को लगभग 30 साल से गुजरात में एक जिताऊ समीकरण की तलाश है. इस बार कांग्रेस ने ओबीसी नेता अशोक गहलोत को गुजरात के प्रभारी बनाकर एक नई राजनीति का संकेत दिया है. अब वह राजनीति और रणनीति कसौटी पर कसी जा रही है.

कांग्रेस की गुजरात की राजनीति तीन मुख्य बिंदुओं पर टिकी है. ये बिंदु हैं- एंटी इनकंबेंसी, मुस्लिम मुद्दों से दूरी और जाति समीकरण की नई बिसात.

कांग्रेस इस बार गुजरात में एंटी इनकंबेंसी पर बहुत बड़ा दांव खेल रही है. कांग्रेस का मानना है कि लगातार सरकार में रहने के कारण बीजेपी ने गुजरात के मतदाताओं के बीच कई तरह के असंतोष पैदा कर दिए हैं. स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा और मानव विकास के मापदंडों पर गुजरात के पिछले तीन दशक की कोई उपलब्धि ऐसी नहीं है, जिसका गर्व बीजेपी कर सके.

मिसाल के तौर पर यूनिसेफ ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि गुजरात के 41 फीसदी से ज्यादा बच्चों के शरीर का उतना विकास नहीं हो पाता, जितना होना चाहिए. राष्ट्रीय औसत 38 फीसदी है. उच्च शिक्षा में एनरोलमेंट का गुजरात का आंकड़ा 19.5 फीसदी है, जो राष्ट्रीय औसत 22.3 से कम है. गुजरात जैसे आर्थिक रूप से आगे बढ़े हुए राज्य में कोई भी उम्मीद कर सकता है कि शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में तरक्की के तमाम संकेत मिलेंगे. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया है. तमाम संकेत गुजरात की धूमिल तस्वीर ही पेश करते हैं.

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कांग्रेस की समस्या यह है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, जनसुविधाओं में ऐसी स्थिति के बावजूद बीजेपी वहां लगातार चुनाव जीत रही है. इसके दो मतलब हो सकते हैं. या तो ये मुद्दे जनता के लिए इतने महत्वपूर्ण नहीं हैं कि इससे मतदाताओं का वोटिंग व्यवहार प्रभावित हो. या फिर यह भी कि प्रमुख पार्टी कांग्रेस इन मुद्दों को मतदाताओं के एजेंडे में स्थापित नहीं कर पा रही हो.

सिर्फ एंटी इनकंबेंसी ही काफी नहीं

अगर एंटी इनकंबेंसी से बीजेपी को कमजोर पड़ना चाहिए तो यह अब तक हो जाना चाहिए था. चुनावों के आंकड़ें बता रहे हैं कि लगातार सत्ता में रहना वह पर्याप्त कारण नहीं बन पाया है, जिसकी वजह से लोग कांग्रेस को सत्ता में ले आएं. 2017 का विधानसभा चुनाव इस मामले में कोई नई इबारत लिखेगा, यह मानने या न मानने का फिलहाल कोई आधार नहीं है.

यह मुमकिन है कि खासकर राममंदिर आंदोलन के बाद बीजेपी ने गुजरात में जो धार्मिक ध्रुवीकरण किया है, उसके आगे शिक्षा, स्वास्थ्य, बुनियादी सुविधाएं जैसे मुद्दे गौण हैं और जनता बीजेपी के धार्मिक एजेंडे को बाकी तमाम चीजों से ऊपर मानकर उसे लगातार जिता रही है. खासकर गोधरा ट्रेन हादसे और उसके बाद हुए भीषण दंगों ने गुजरात की राजनीति को निर्णायक रूप से बदल दिया है. कांग्रेस को पिछले तमाम विधानसभा चुनाव में इसकी कोई सफल काट नहीं मिल पाई है.

कांग्रेस की नई रणनीति

कांग्रेस ने 2017 में गुजरात में एक नई व्यूह रचना सजाने की योजना बनाई है. इस व्यूह रचना में सतह पर तो यह नजर आएगा कि कांग्रेस गुजरात की बीजेपी सरकार की नाकामियों पर हमला करेगी और लोगों को बताएगी कि बीजेपी जनता की इच्छाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने में नाकाम है. इसके लिए वह आंकड़ों के जरिए सरकार के कामकाज की समीक्षा कर रही है और बता रही है कि सरकार किन मोर्चों पर निकम्मी साबित हुई है.

इस रणनीति का दूसरा पहलू कांग्रेस का सामाजिक समीकरण है. इस रणनीति का पहला कदम यह है कि कांग्रेस इस चुनाव में मुसलमानों और मुसलमानों के मुद्दों की बिल्कुल चर्चा नहीं करेगी. गुजरात में मुसलमानों की आबादी सिर्फ नौ फीसदी है और कांग्रेस कतई नहीं चाहेगी कि उस पर मुस्लिम तुष्टीकरण जैसा कोई आरोप लगे और दूसरी तरफ बीजेपी हिंदू समीकरण बना ले.

वैसे भी गुजरात का राजनीतिक भविष्य हिंदू मतदाता ही तय कर सकते हैं. कांग्रेस मानकर चल रही है कि प्रदेश में तीसरे मोर्चे के न होने और आम आदमी पार्टी की बेहद सीमित उपस्थिति होने के कारण ज्यादातर सीटों पर मुसलमान वोट उसे यूं ही मिल जाएंगे. मुसलमानों की अलग से बात करना कांग्रेस के लिए न जरूरी है और न ही फायदेमंद.

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कांग्रेस यह भी मानकर चल रही है कि गुजरात में दलित वोटों का बड़ा हिस्सा उसे मिलेगा. बीजेपी के शासन में दलित उत्पीड़न की एक के बाद एक हुई घटनाओं की वजह से भी कांग्रेस का आत्मविश्वास बढ़ा हुआ है. लेकिन ध्यान देने की बात है कि गुजरात देश के उन प्रदेशों में है, जहां दलित वोट काफी कम है और प्रदेश की राजनीति को प्रभावित करने की उनकी क्षमता सीमित है. गुजरात के लगभग 7 फीसदी दलित निर्णायक भूमिका तभी निभा सकते हैं, जब दो प्रमुख दलों के बीच कांटे की टक्कर है. ऐसी स्थिति में दलित वोटर जिस ओर झुकेगा, उसके जीतने की उम्मीद ज्यादा होगी.

गुजरात में जीत की चाभी दरअसल ओबीसी और पाटीदार यानी पटेल वोटरों पर है.

बीजेपी और कांग्रेस दोनों का ध्यान इन दो वोटिंग ब्लॉक को रिझाने पर है. बीजेपी ने पाटीदारों के सबसे प्रमुख धार्मिक केंद्र ऊंझा के उमिया देवी मंदिर को चुनाव से ठीक पहले पौने नौ करोड़ रुपए देने की घोषणा करते दिखा दिया है कि पटेल वोट उसके लिए कितना महत्वपूर्ण है. पटेल इस समय बीजेपी से बहुत खुश नहीं हैं. सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण हासिल करने की पटेलों की उम्मीदों को बीजेपी ने पूरा नहीं किया है. बल्कि इस मांग को उठाने वाले एक दर्जन से ज्यादा पटेल युवक आरक्षण आंदोलन के दौरान मारे गए और पटेल नेताओं पर दमन चक्र भी चला. हार्दिक पटेल उस नाराज गुजराती अस्मिता के प्रतीक हैं.

अभी यह कहना मुश्किल है कि हार्दिक पटेल को बीजेपी से जितनी शिकायत है, क्या उतनी ही शिकायत तमाम पटेलों को बीजेपी से है. बहरहाल पटेल वोट को लेकर बीजेपी हिली हुई तो जरूर है.

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क्या कांग्रेस नाराज पटेलों की भावनाओं को अपने लिए वोट में तब्दील कर पाएगी?

यह आसान नहीं है. कांग्रेस यह वादा करने से हिचकिचा रही है कि पटेलों को ओबीसी कोटे के अंदर आरक्षण दिया जाएगा. ओबीसी संगठनों को लगता है कि ओबीसी कोटे के अंदर अगर पटेल भी आ जाते हैं और आरक्षण का बड़ा हिस्सा पटेल ले जाएंगे और उनका हक मारा जाएगा. ओबीसी संगठनों का कहना है कि पटेलों को अगर आरक्षण देना है, तो वह आरक्षण ओबीसी कोटे के बाहर दिया जाए.

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लेकिन ऐसा करने पर कुल आरक्षण 50 फीसदी से ऊपर चला जाएगा. कांग्रेस को मालूम है कि इतना आरक्षण देना न सिर्फ संभव है, बल्कि संविधानसम्मत भी है. इस मामले में तमिलनाडु में पहले से 69 फीसदी आरक्षण है, जिसे न सिर्फ संसद की मान्यता है, बल्कि अदालतों की इसे मंजूरी भी है. लेकिन इतना आरक्षण देने पर सवर्ण वोटबैंक नाराज हो सकता है. इसी डर से बीजेपी ने पटेलों को ओबीसी कोटे से बाहर आरक्षण नहीं दिया है. यही डर कांग्रेस को भी है.

कांग्रेस के सामने एक दुधारी तलवार है. वह आरक्षण के मुद्दे पर किसी भी तरह पटेलों, सवर्णों और ओबीसी को एक साथ खुश नहीं कर सकती है. यह सवाल बीजेपी के लिए भी है. इस गुत्थी को जो भी बेहतर तरीके से सुलझा लेगा, या जो इन सबको या इनमें से कुछ को जोड़कर बेहतर समीकरण बना पाएगा, उसके लिए चुनावी जीत का रास्ता आसान हो सकता है.

फिलहाल कांग्रेस इस सवाल पर, कोई कमिटमेंट नहीं कर रही है. अल्पेश ठाकोर जैसे युवा ओबीसी नेता को कांग्रेस में शामिल करके उसने यह तो दिखा दिया है कि ओबीसी वोट की उसे कितनी परवाह है. अब उसके अगले कदम पर गुजरात के लोगों की नजर होगी.