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गुजरात जिला पंचायत चुनाव: जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं को मजबूती देने में नाकाम कांग्रेस

कांग्रेस को गुजरात विधानसभा चुनाव में हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर की तिकड़ी ने वोट तो दिलवाए लेकिन उस चक्कर में गुजरात के कांग्रेस संगठन ने नए उभरते चेहरों को आगे बढ़ाने की कोशिश नहीं की

Aparna Dwivedi

जिला पंचायतों का चुनावी फैसला कांग्रेस को परेशान कर गया. और हो भी क्यों ना बीजेपी ने कांग्रेस के पास से पांच जिला पंचायतों पर कब्जा कर लिया है. साथ ही तीस तालुका पंचायत को भी कांग्रेस से हथिया लिया.

गुजरात में ग्रामीण स्तर पर बीजेपी से हारना कांग्रेस के लिए भारी संकट का इशारा है. यह चुनाव अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पदों के लिए हुआ था. गुजरात में 200 से ज्यादा तालुका पंचायतों और 31 जिला पंचायतों के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पदों के लिए बुधवार को चुनाव हुआ था.


चुनाव से पहले कांग्रेस के पास 31 जिला पंचायतों में से 23 थी, लेकिन बीजेपी ने अहमदाबाद, पाटन, भावनगर, महिसागर और दाहोद जिला पंचायतों को विपक्षी पार्टी से छीन लिया. कांग्रेस के पास अब 18 जिला पंचायतें हैं. कांग्रेस ने 2015 में इन स्थानीय निकायों को जीता था. साथ ही 239 तालुका पंचायत में से 146 पर जीत हासिल की थी. लेकिन इनमें से 30 तालुका पंचायत बीजेपी के खाते में चली गई.

कांग्रेस के लिए ये खतरे की घंटी है. इस हार का सबसे बड़ा कारण कांग्रेस पार्षदों द्वारा क्रॉस वोटिंग हैं. हालांकि कांग्रेस ने अपनी तरफ से काफी ऐतिहात बरती. जिला और तालुका पंचायत प्रमुखों के चुनावों के पहले कांग्रेस ने

अपने पार्षदों को राज्य से बाहर भेज दिया. कांग्रेस के मुताबिक वो गुजरात से सटे राजस्थान में रखे गए सारे नेताओं को धन और बल से बचाने की कोशिश कर रही थी.

साल 2015 में कांग्रेस को सफलता

केंद्र में मोदी सरकार के एक साल बाद जब गुजरात में स्थानीय निकाय के चुनाव हुए थे तो जहां एक तरफ शहरी क्षेत्र में बीजेपी का दबदबा कायम रहा था वहीं ज़िला और तालुका पंचायतों में कांग्रेस ने बढ़त हासिल की थी. शहरी इलाकों में बीजेपी ने सभी छह नगर निगमों - अहमदाबाद, सुरत, राजकोट, भावनगर, जामनगर और वडोदरा पर जीत हासिल की थी. वहीं ज़िला पंचायत के 31 सीटों में से 23 पर कांग्रेस और सात पर बीजेपी ने जीत हासिल की थी, जबकि तालुका के 230 सीटों में से 132 पर कांग्रेस और 73 पर बीजेपी ने जीत हासिल की थी.

230 तालुका पंचायतों में 4778 सीटें थीं, जिसमें कांग्रेस ने 2509 जीती थी, जबकि बीजेपी के पाले में 1981सीटे आई थी. बीजेपी की हार की एक वजह उस समय पटेलों की नाराज़गी थी. इसका फायदा कांग्रेस को मध्य गुजरात और

सौराष्ट्र में मिला था. ये चुनाव नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने और आनंदीबेन पटेल के गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद पहली बार गुजरात में हुए थे.

विधानसभा सीटों के लिहाज से इन नतीजों को देखा गया था तो 182 विधानसभा क्षेत्रों में से 90 पर कांग्रेस को बढ़त मिली थी, जबकि बीजेपी 72 सीटों आगे रही थी. 2015 में बीजेपी के पास 116 सीटें हैं, जबकि कांग्रेस के पास 60 सीटें थी.

विधासभा चुनाव में भी लाभ स्थानीय निकाय के चुनाव का असर 2017 के विधानसभा चुनाव पर भी दिखा था. साथ ही कांग्रेस को तिकड़ी यानी

पाटीदार नेता हार्दिक पटेल, दलित नेता जिग्नेश मेवाणी और ओबीसी नेता अल्पेश ठाकुर के साथ ने भी काफी मदद की.

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विधानसभा चुनाव में जीत भले ही बीजेपी की हुई हो लेकिन कांग्रेस ने अपना वोट शेयर काफी बढ़ाया. कांग्रेस को चुनाव में 41.8 फीसदी वोट शेयर मिले थे जो पिछले विधानसभा चुनाव (2012) में 38.93 फीसदी था. यानी पिछले बार की तुलना में इस बार कांग्रेस के कुल वोट शेयर में 7.37 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. साथ ही ग्रामीण गुजरात के ज्यादातर इलाकों में कांग्रेस ने बाजी मारी थी.

गुजरात में कुल 182 विधानसभा सीटें हैं, जिसमें से 122 सीटें ग्रामीण इलाकों में हैं. कांग्रेस को 122 ग्रामीण सीटों में से 71 सीटों पर जीत मिली थी. गुजरात में स्थानीय निकाय के चुनाव पांच साल में होते हैं लेकिन नए प्रमुखों का चुनाव कार्यकाल के माध्यम से बीच में होता है.

गौरतलब है कि अहमदाबाद और पाटन के पंचायतों के सदस्य 20 जून को प्रमुखों का चुनाव हुआ था. हालांकि कांग्रेस की ये सारी कोशिश नाकाम रही और कांग्रेस पार्षदों ने बीजेपी के उम्मीदवारों को वोट दिया.कांग्रेस ने आरोप लगाया कि बीजेपी धन-बल का इस्तेमाल कर उसके निर्वाचित सदस्यों को ‘खरीद’ रही है. वहीं दूसरी तरफ बीजेपी ने दावा किया कि कांग्रेस ने अंदुरुनी लड़ाई की वजह से शिकस्त खाई है.

इन नतीजो के क्या मायने

कांग्रेस बीजेपी के इन आरोप प्रत्यारोप को शुद्ध राजनीति भी मान लिया जाए तो एक बात तो तय है कि कांग्रेस अपने लोगों को संभाल नहीं पाई. कांग्रेस पार्षदों ने धन के लालच में या बल के डर से क्रॉस वोटिंग की, तो भी ये तय है कि कांग्रेस अपने लोगों में वो विश्वास पैदा नहीं कर पाई जिसके बल बूते पर वो आने वाले लोकसभा चुनाव पर नजर टिकाए हुए हैं.

भावनगर में आठ में से तीन पार्षदों ने खुल्लम खुला बीजेपी उम्मीदवार को समर्थन दिया. कुछ ऐसी ही कहानी बड़ौदा, राजकोट और मोरबी में देखने को मिली. राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि मात्र छह महीने पहले इन क्षेत्रों में बीजेपी को रोकने वाली कांग्रेस को उनके ही लोगो ने धोखा दिया. अभी विधानसभा चुनाव में पहले के मुकाबले ज्यादा सीट और ज्यादा वोट शेयर के नशे में कांग्रेस नेता फिर वहीं गलती कर रहे हैं जिसका खामियाजा वो 2014 के लोकसभा चुनाव में भुगत चुके हैं.

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कांग्रेस के लिए परेशानी की सबसे बड़ी वजह है कि इनमें से ज्यादातर पंचायातों में ओबीसी, ठाकोर और आदिवासी वोटर हैं ये वहीं जगह है जहां बीजेपी को मुंह की खानी पड़ी थी. गुजरात में वोटरों पर नजर डाली जाएं तो करीब 40 फीसदी ओबीसी हैं, 15.5 फीसदी आदिवासी, सात फीसदी दलित, 15 फीसदी पाटीदार, 9.7 फीसदी मुसलमान और 12 फीसदी सवर्ण हैं. कांग्रेस को विधानसभा में वोट देने वालों में ओबीसी, दलित आदिवासी और मुसलमान ज्यादा थे. साथ ही ग्रामीण गुजरात ने कांग्रेस का बढ़ चढ़ कर साथ दिया था. लेकिन जिला और तालुका पंचायत के इन नतीजों ने कांग्रेस को उसके आधार पर ही चोट पहुंचाई

है.

पड़ोसी राज्य के चुनाव पर असर

गुजरात से सटे मध्य प्रदेश और राजस्थान में इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. कांग्रेस ने अपने दो जिला पंचायत सीट दाहोद और महिसागर खोई है वो राजस्थान और मध्यप्रदेश के पड़ोसी जिला है. हालांकि गुजरात में ये चुनाव जिला पंचायतों में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पदों के लिए हुआ था लेकिन इसका असर जरूर पड़ोसी राज्य के चुनाव पर पड़ सकता है. ये वो स्थान है जहां से राजस्थान और मध्य प्रदेश के सीमा पर पड़ते है.

राजनैतिक जानकार मानते हैं कि यहां पर भले ही लोगों ने वोट नहीं डाला लेकिन क्रॉस वोटिंग के कारणों को बीजेपी कांग्रेस के लीडरशिप पर सवालिया निशान के रूप में जरूर भुनाएगी. ये प्रचार कांग्रेस के लिए काफी भारी पड़ सकता है , खास तौर पर तब जब कांग्रेस इन राज्यों में वापसी की तैयारी में जुटी है.

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की नजर भी शहरी इलाकों में अपनो वोट बैंक को बढ़ाने की है. इस के चलते वो गुजरात के शहरी इलाकों में रैलियों और मीटिंग करने की तैयारी में हैं.

लेकिन पार्टी गुजरात में जमीनी स्तर पर अपने कार्यकर्ताओं को मजबूती देने में अभी तक बहुत सफल नहीं रही है. खास तौर से ग्रामीण इलाकों में इसका

असर दिख रहा है. कांग्रेस को गुजरात विधानसभा चुनाव में हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर की तिकड़ी ने वोट तो दिलवाए लेकिन उस चक्कर में गुजरात के कांग्रेस संगठन ने नए उभरते चेहरों को आगे बढ़ाने की कोशिश नहीं की.

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इस चक्कर में कांग्रेस की अगली पांत के नेता एकदम हाशिए पर चले गए. उनकी निराशा भी एक वजह है कि कांग्रेस जमीनी स्तर पर कमजोर हो रही है.

राजनैतिक जानकारों का मानना है कि पार्षद चुनावी जमीन की नींव होती है. अगर नींव ही कमजोर पड़ रही है तो कांग्रेस को लोकसभा चुनाव का किला संभालने में काफी मुश्किलें आएंगी.