राहुल गांधी अंत में दिल्ली में चल रहे आप के अनशन पर बोलने के लिए मजबूर हो ही गए. हालांकि उनकी पार्टी दिल्ली में लगातार आप का खुलकर विरोध कर रही है. फिर भी मुझे इस बात का इंतजार था कि आखिर राहुल बोलते क्या हैं? बोलते भी हैं या नहीं? वो बोले और बड़े दुखी मन से कहना पड़ता है कि राहुल ने वो कद नहीं दिखाया जिसकी लोग 2019 के संदर्भ में उम्मीद कर रहे थे. वो आधे-अधूरे दिखे. जो कहा वो मेरी समझ में तो नहीं आया. मोदी जी भी हाय-हाय. केजरीवाल जी भी हाय-हाय. अफसर भी हाय-हाय. अराजकता भी हाय-हाय.
राहुल के बारे में कहा जाता है कि वो ‘रिलकटेंट’ राजनेता हैं. यानी जो पूरे मन से राजनीति में नहीं हैं. वो अपनी इच्छा या सोच से राजनीति में नहीं हैं. वो राजनीति में इसलिए हैं क्योंकि उनके ऊपर अपने परिवार का दबाव है. वो इसलिए हैं क्योंकि वो परिवार की विरासत को बचाना चाहते हैं क्योंकि परिवार की विरासत बचाने की जिम्मेदारी आ पड़ी है. वो राजनीति को मन से पसंद नहीं करते. ऐसे में उनसे उम्मीद होती है एक ठंडी निष्ठुरता की. दो टूक फैसले करने की. निर्णायक कदम उठाने की. जो बात दिल्ली के बारे में उन्होंने आठ दिन में कही वो पहले दिन कह देते, जिसको जो समझना होता वो समझता.
राहुल अभी बड़ी तस्वीर नहीं देख पा रहे हैं
उनके बयान से स्पष्ट है कि राहुल अभी भी निर्णायक फैसले लेने में हिचकते हैं. बल्कि ये कहे कि डरते हैं. झिझक गई नहीं. या फिर किताबी अधिक हैं. ये टैग हटना आवश्यक है अगर 2019 में कुछ जोर दिखाना है.
फिर ये भी साफ लगता है कि राहुल अभी भी बड़ी तस्वीर नहीं देख पा रहे हैं . मौजूदा लड़ाई देश में लोकतंत्र को बचाने की है. मोदी जी के राज में देश को आरएसएस के एजेंडे के तहत तानाशाही में तब्दील करने की पूरी कोशिश चल रही है! गाय के नाम पर अल्पसंख्सक लोगों पर हमले. देश के दूसरे इलाकों में जबरन कसाईबाड़े की बंदी के आदेश. हर बहस में उनको देशद्रोही और देश का दुश्मन साबित करने की क़वायद. कश्मीर और पाकिस्तान के नाम पर ‘देश तोड़क’ की छवि बनाने की कोशिश. ‘लव जेहाद’ की आड़ में मुस्लिम समुदाय का बायकॉट करने का प्रयास. 282 सांसदों में एक भी मुस्लिम समुदाय का सांसद न होना. यूपी के 300 से अधिक विधायकों में से किसी का भी मुसलमान न होना.
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विपक्ष को मोदी के खिलाफ एकजुट होना पड़ेगा
अब इस पर बात हो रही है कि उन्हें खुली जगह में नमाज़ की इजाज़त नहीं होनी चाहिए. कठुआ में बीजेपी के नेताओं का खुलकर उनका बचाव करना जिन्होंने आठ साल की मासूम बच्ची के साथ नापाक हरकत की. साथ ही दलितों के ख़िलाफ़ अत्याचार. उनके नेताओं की धरपकड़. विपक्षी नेताओं के ख़िलाफ़ सरकारी जांच एजेंसियों की दादागिरी. ज़बरन केस कर छवि ख़राब करने और जेल भेजने का षड्यंत्र. मीडिया को घुटनों पर झुकाने का उपक्रम. ये ऐसे उदाहरण हैं जो साफ बताते हैं कि अगर 2019 में मोदी जी को नहीं हराया गया तो लोकतंत्र पर खतरा बढ़ जाएगा.
आज देश में लोकतंत्र ख़तरे में है और आज विपक्ष की सबसे बड़ी भूमिका ये होनी चाहिए कि सारे लोग एकजुट होकर मोदी और बीजेपी के खिलाफ मज़बूत मोर्चा बनाएं. राहुल का ध्यान इस ओर कम है और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल से खुन्नस निकालने की ज़िद ज़्यादा है. ये ज़िद तो तब निकलेगी न जब 2019 में बचेंगे और उसके लिए 2019 की जंग जीतनी जरूरी है. ये बड़ी तस्वीर अगर वो नहीं देख रहे हैं और सिर्फ कांग्रेस पार्टी के बारे में सोच रहे हैं तो ये सोच लंबी दूर तक नहीं उन्हें ले जा पाएगी.
आम आदमी पार्टी ने हमेशा असंवैधानिकता का विरोध किया है, चाहे पार्टी कोई भी हो
यहां ये बताते चलें कि तमाम विरोध के बाद भी लोकतंत्र पर जब भी संकट आया है, पार्टी ने खुलकर विरोध किया है. उत्तराखंड में जब कांग्रेस की सरकार बर्खास्त हुई तो सबसे पहले आप ने मोदी सरकार के इस फैसले की निंदा की. अरुणाचल प्रदेश में जब कांग्रेस सरकार को हटाया गया तब भी पार्टी ने मोदी सरकार की तीखी आलोचना की. जब गोवा में सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद भी कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका नहीं दिया गया तब भी पार्टी ने आगे बढ़कर मुख़ालफ़त की. इसी तरह मणिपुर और मेघालय में भी पार्टी पीछे नहीं. आवाज़ बुलंद करती रही. तो क्या इस वजह से आप कांग्रेस की पिछलग्गू हो गई? क़तई नहीं. पार्टी ने संकीर्णता का सहारा नहीं लिया. उसने देश को आगे रखा. ये मायने नहीं रखता कि सरकार किसकी है. अगर असंवैधानिक व्यवहार किसी भी सरकार के साथ हो और चुप रहे हैं तो ये देशहित में नहीं होगा.
आप को लगा कि उत्तराखंड, अरुणाचल, गोवा, मणिपुर, मेघालय में संविधान की धज्जियां मोदी सरकार ने उड़ाई, इसका विरोध होना चाहिए, इसलिए देशहित, संविधान हित में विरोध किया और बिना लाग-लपेट के किया. राहुल को भी दिल्ली के कांग्रेसी नेताओं के छद्म में नहीं आना चाहिए, बड़ा दिल दिखाना चाहिए, मोदी की दिल्ली सरकार को पंगु करने के अपराध का विरोध करना चाहिए. उनकी अपनी सरकार पुडुचेरी में उप-राज्यपाल किरण बेदी के दख़लंदाज़ी से काफी परेशान है. राहुल को शायद ये पता न हो लेकिन आप ने बेदी को नहीं बख़्शा और जमकर उनकी भर्त्सना की. बेदी उसी तरह से कांग्रेस सरकार को काम करने नहीं दे रही हैं जैसे दिल्ली में उप राज्यपाल बैजल.
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राहुल को लोकतंत्र और लंबी राजनीति के बारे में सोचना होगा
राहुल को कम से कम ममता बनर्जी और सीपीएम से सबक़ लेना चाहिए. बंगाल में दोनों एक दूसरे के ख़िलाफ़ दशकों से लड़ रहे हैं. पर जब अरविंद के अनशन की बात आई तो दोनों ने खुलकर समर्थन दिया. ममता के साथ केरल के मुख्यमंत्री पिंडरई विजयन, दोनों दिल्ली के मुख्यमंत्री के घर गए और अपना समर्थन दिया. तो क्या इससे ममता और सीपीएम का एक दूसरे का विरोध बंद हो गया? इसी तरह से समय की नब्ज़ को पकड़ते हुए यूपी में बीएसपी और समाजवादी पार्टी ने एक साथ आने का फ़ैसला किया. दोनों एक दूसरे के जानी-दुश्मन थे. समाजवादी पार्टी के लोगों ने मायावती पर 1995 में जानलेवा हमला किया था. गेस्ट हाउस कांड के नाम से मशहूर है वो कांड. राजनीति का काला धब्बा कहते हैं इस कांड को. लेकिन आज दोनों साथ हैं. क्यों? ये सवाल तो राहुल को ख़ुद से पूछना चाहिए.
आज आप के अनशन के समर्थन में टीएमसी, टीडीपी, सीपीएम, सीपीआई, जेडीएस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, डीएमके, झारखंड मुक्ति मोर्चा खुलकर सामने हैं. यहां तक कि बीजेपी की गठबंधन के साथी शिवसेना और जनता दल युनाइटेड तक ने आप का समर्थन किया है. तो क्यों किया? ये सवाल तो राहुल को खुद से पूछना चाहिए? ये सब समझ रहे हैं कि देश पर संकट गहरा है. जिन मुद्दों को आप ने उठाया है, जिसके लिए वो लड़ रहा है वो देश के संविधान की मूल आत्मा से जुड़ा है. ये लड़ाई देश के संघीय ढांचे को बचाने की है. देश में जहां-जहां गैरबीजेपी सरकारें हैं उनको या तो काम नहीं करने दिया रहा है या फिर उनको अस्थिर किया जा रहा है. हर पार्टी इस संकट से दो चार हैं.
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ये मसला सिर्फ एक पार्टी का नहीं है. हर पार्टी का ये संकट है. ऐसे में राहुल को एक बड़ी पार्टी का कलेजा और दिल दिखाना चाहिए. पर वो इस टेस्ट में फेल रहे. वो शायद ये नहीं समझ रहे हैं कि देश उनकी तरफ देख रहा है. सारी पार्टियां उनकी तरफ़ देख रही हैं. ये देख रही हैं कि वो देश को नेतृत्व देने, विपक्ष को साथ में लेकर चलने की लियाक़त रखते हैं या नही. दिल्ली पर दिया उनका बयान ये भरोसा नहीं देता. दिल्ली के उनकी पार्टी के नेता उनका नुक़सान ज़्यादा कर रहे हैं पार्टी का फ़ायदा कुछ भी नहीं.
(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं)
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